संस्कृत और हिन्दी व्याकरण में 'ह' और 'स/श/ष' को दग्धाक्षर कहा जाता है.
– क्यों? इन्हें दग्धाक्षर क्यों कहते हैं?
– क्या ये सभी वर्ण दग्ध (जले हुए) हैं? अथवा
– इनका नाद दग्ध करता है?
इनकी गणना ऊष्म व्यंजनों के अन्दर भी होती है.
– क्या इनके उच्चारण पर ऊष्मा का निस्सरण होता है? अथवा
– ये उच्चरित होकर ऊष्मा संग्रहित करते हैं?
जी हाँ, प्रत्येक ध्वनि के अपने-अपने विशेषण हुआ करते हैं और उन विशेषणों का शब्द-रूप औचित्यपूर्ण हुआ करता है. अनायास शब्द-निर्माण या भाव-चित्र के लिये अनुमान से शब्द गढ़ना संस्कृत व्याकरण में तो रहा नहीं |
प्राणियों में मनुष्य ही सार्थक ध्वनि समूहों वाली भाषा का प्रयोग करता है. शोक, हर्ष व अन्य अनुभूतियों पर आंगिक क्रिया करने के साथ-साथ वह उनसे सम्बद्ध ध्वनियों का उच्चारण भी अनायास कर बैठता है. यदि इन सभी ध्वनियों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि इनमें से संतापसूचक, पीड़ा-प्रदर्शक और आह्लाद-द्योतक ध्वनियाँ ही 'ऊष्म व्यंजनों वाली' है |
शरद, हेमंत, शिशिर की ऋतुओं में शीत के सताने पर जो ध्वनियाँ मुख से निकलती हैं वे भी ऊष्म व्यंजनों से बाहर नहीं. कँपकँपी में "ह्ह्ह , हो..हो..हो..", जलन में श्वास मुख से भीतर-बाहर करते हुए - "शsss.." ध्वनि करना |
कभी ध्यान दें बच्चों को चोट लगने पर, ... जो सबसे पहली ध्वनि होगी .. वह 'अ', 'आ', के स्वरों में मिली ऊष्म व्यंजनों की ही होगी |
विदेशी 'ओह, आsह, आउच' शब्दों में अपनी पीड़ा का मोचन करने वाले लोग भी इन 'ओ,आ' स्वरों में अपनी दग्धता छिपाए हैं |
'अ, आ' आदि स्वरों को दग्धाक्षरों से पूर्व तभी जोड़कर बोला जाता है जब अपनी पीड़ा या अपनी अनुभूति को दूसरे तक संप्रेषित करना लक्ष्य हो. बच्चा 'उवाँ-उवाँ' करके रोये अथवा कोई मोर्डन महिला 'आउच' करे - ये ध्वनियाँ संकेत मात्र हैं कि उनकी परेशानी को समझा जाये, उन्हें उचित सुरक्षा दी जाये |
वस्तुतः शब्दों में अधिकांश स्वरों का प्रयोग उन्हें बल प्रदान करने के लिये होता है. अधिक स्वरों का आगम शब्द को आकर्षक और बरबस ध्यान खींचने वाला बना देता है |
'होली' शब्द में दूसरा व्यंजन 'ल' है जो अन्तस्थ व्यंजन है. यह अनुभूति (हृदय) की आह्लादात्मक ध्वनि है. 'ह' ध्वनि संताप व्यक्त करने के साथ-साथ आह्लाद को भी दर्शाती है |
हँसी के रूप में 'हा.हा.हा...' और हीं.हीं.हीं...' ध्वनियाँ प्रयुक्त होती हैं. इस प्रकार 'ह' और 'ल' दोनों ही व्यंजन आह्लादात्मक उल्लास को व्यक्त करते हैं. किन्तु इन दोनों में अंतर यही है कि 'ल' वर्ण पूर्णतः आह्लाद को दर्शाता है जबकि 'ह' वर्ण की विशेषता 'उन्मोचन' की है |
प्रफुल्लित हृदय 'ल' ध्वनि की पुनरावृत्ति से झूम उठता है, तो संकुचित विश्रांत मन 'आलंबन और उद्दीपन' की श्रेष्ठता के आधार पर संचित पीड़ा को ... 'ह' ध्वनि के रूपों से ... मोचता है |
पहला रूप शोक का है — 'हा! हाय-हाय! होs.. च्च.[क्लिक ध्वनि] !' ये मनःस्थिति की स्वाभाविक प्रस्तुति है.
दूसरा रूप हर्ष का है — "हें! [आश्चर्य]......... हु हा हा हा!! [हँसी] ......... हीं.हीं.हीं.' ये मनःस्थिति की वैकल्पिक प्रस्तुतियाँ हैं किन्तु एक सीमा तक |
अपने दुःख पर 'हाय-तौबा' करना सामान्य वृत्ति है, स्वयं के संतापों पर मुस्कुराना या हँसना दार्शनिक वृत्ति है किन्तु दूसरों की पीड़ा या पराजय पर हँसना हास्य का शिष्ट रूप नहीं |
प्रतियोगिता में प्रतिवादी को हारते देख या शत्रु को रणभूमि में पराजित होते देख उसमें अपने पक्ष के लोगों की आह्लादात्मक ध्वनियाँ भी एक सीमा तक शिष्टाशिष्ट दायरे से बाहर रखी जाती हैं ये तो मात्र उत्साहवर्धन का आनंद द्योतित रूप होती हैं |
इस तरह 'होली' शब्द का ध्वन्यात्मक अर्थ स्पष्ट है :
ह+ओ+ल+ई (संताप प्रदर्शक ध्वनि + ध्यानाकर्षक ध्वनि + आह्लाद द्योतक + तीव्रता सूचक ध्वनि)
होली पर्व पर प्रायः "होली हैSS, होली हैSS" ... का स्वर ... रंग उड़ाते, रंग लगाते, रंग मलते, रंग घोलते आदि आदि करते समय सुना जा सकता है |
होली पर व्यक्ति कर कुछ भी रहा हो मूलतः वह अपने मनस्ताप और शारीरिक तापों को दूर कर देना चाहता है. "होली है, होली हैSS,होली हैSS" की गूँज ... संतापों का हरण करने में सहायक है |