गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

उधार-गाथा

कुछ समय के वास्ते
चाहिए मुझको तुम्हारी
'जमा पूँजी'
जो तुम्हे देती रही
नेपथ्य से —
संकल्प दृढ़ता.
मन में उठी एक चाह को
'पक्का इरादा में बदलने
की सनक.

प्राप्त करके
जमा राशि तुम्हारी
मिल ना पाती
मन को तुम्हारी भाँति 'दृढ़ता'.

ज़रुरत भी
एक होती पूर्ण
दिखती दूसरी तब
इस तरह तो
बोझ मेरा कम ना होगा!

तुम उसी धन की बदौलत
उधार में मुझको दिया जो
बन चुके 'उदार' अब हो.

क्यों विषमता इस तरह की
सोचता हूँ मैं कभी ये
उसी धन से तुममें सदगुण
उसी धन से मुझमें अवगुण.

किन्तु मेरे मन में पैदा
हो रही कुछ और बातें
— घर बदल लूँ बिन बताये
— सामने बिलकुल ना आऊँ.
आ भी जाऊँ, भूल जाऊँ–धन लिया जो
— चेहरे का गेटअप बदल लूँ.
पर कुछ ना होगा –
पत्नी बच्चों को वह पहचानता है
ये बदल तो नहीं सकते
कृपा को वापस न दूँगा.

या कहूँ
ओ मित्र मेरे!
भागता भई मैं कहाँ हूँ!
– दे ही दूँगा,  सामने हूँ!
– मैं अभी मरा नहीं हूँ!
– तुम भी कैसे दोस्त मेरे!
मेरे पीछे ही पड़े हो!
नौकरी में करके नागा!
– फाके तो तुम नहीं करते!
– जी रहे हो ठाट से तुम!

पूछते हो अब मुझी से –
'मैंने तुमको क्या दिया?
कौन-सी दोस्ती निभायी?'
– सैकड़ों ही बार सुबह
तुम हमारे घर पर आकर
चायनाश्ता कर चुके हो.
– और दसियों बार दिन में
– पेटभर भोजन किया है.
— ले ही लेना अगले सप्ताह!
अगले सप्ताह भी कहूंगा –
कल या परसों तक मिलेगा.
शर्म होगी, आयेगा ना
बेशरम हो आयेगा भी
— रात १० बजे का टाइम दूँगा.
— इतने चक्कर कटा दूँगा.
भूल जाएगा यही कि
'किसलिए आता यहाँ हूँ."

रात १० बजे को इज्जत दार
ना किसी के घर जाते.
इस तरह ही उधार देकर
सदगुणी उदार व्यक्ति
अंततः हैं बदल जाते.

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मेरे बारे में

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.