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जन्म शती पर.... [जन्म २६ अगस्त, १९१०]
सुना है मैंने
आपने अपने
जवान और बूढ़े
हाथों से खूब धन लुटाया
ग़रीबों पर, दुखियों पर, लाचारों पर.
भोले, भक्त, निरक्षरों को
शिक्षा दी 'ज्ञान'* की
सेवा की निर्लिप्तता से
निःस्वार्थ मन की भावना से.
फिर भी निर्धनता दूर नहीं हुई
आपके आसपास की.
दिमागी तौर पर कोई विकसित नहीं हुआ
मानता रहा फिर भी तुम्हें देवी
अवतारी व्यक्तित्व एक.
मिली सेवा जिसको भी
बन गया तुम्हारा ही
मतावलंबी.
मरने पर तुम्हारे
लुटाये धन से लाख गुना
खर्च हो गया तुम्हारी ही लाश पर.
तिरंगे में लपेटे तुम्हें
रोते सुबकते रहे
[या मात्र दिखावा ही सही}
असंख्य जन संसार के.
— यह कैसा ज्ञान था
जो मोह से न कर पाया अलग
तुम्हारे ही भक्तों को.
ज्ञान बंधना नहीं
ज्ञान तो मुक्ति है.
खोलना है 'पलकों' का
टिकाना नहीं फिर भी
दृष्टि को जड़ता दे.
खोलना है 'शब्दों' का
अर्थ तक पहुँचकर
व्यंजना तक जाना है.
खोलना है 'ह्रदय' का
त्याग औ' वियोग आदि
में ही आनंद को पाना है.
परन्तु
मदर तुमने
विस्मय में डाल दिया है हमको
संत कहने में संकोच है मुझको
हमारे लिए तुम थीं
'माँ' — स्त्री होने के नाते.
'प्रचारिका' — क्रिश्चेनिटी की.
* 'ज्ञान' से मतलब यीशु-संबंधी ज्ञान से है.
[जिसके जितने अनुयायी या भक्त होंगे, वह उतना ही बड़ा संत और सिद्ध माना जाएगा. वस्तुतः साधक ही सिद्ध को पुजवाते हैं. यदि साधक ही न हों तो सिद्धताई धरी ही रह जायेगी...]