आदमी
जब अनुभवों से
पक जाता है,
शरीर से
सूख जाता है.
फिर वह
समाज के लिए
अधिक उपयोगी हो जाता है.
सफेदे की पत्तियों की तरह.
सफेदे की पत्तियों की तरह.
पर आज
युवाओं को क्या हुआ है
वह अपनी हथेलियों पर
नहीं मसलता अनुभव की पत्तियाँ.
अपनी ऊर्जावान मांसपेशियों को देखकर
वृद्धों के जर्जर शरीर से तुलना करने लगता है.
सूँघ नहीं पाता वह
तब, चहुँ ओर व्याप्त
सूखी वृद्ध-गंध*.
*सूखी वृद्ध-गंध — अनुभव [जीवनानुभव]
[यह टिप्पणी रूप में विकसित हुई थी और इसका श्रेय शेखर सुमन जी को है, जिनका लिंक है :
http://i555.blogspot.com/2010/08/blog-post_29.html ]