मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

पेड़ के हाथ-पाँव

कॉमनवेल्थ गेम को
बना नया खेल गाँव।
चौड़ी की जा रही हैं
आस-पास की सड़कें
बिन रुके गाड़ियां दौड़ने को
बनाए जा रहे हैं
मल्टी स्टोरी पुल।
इस होते विकास के तले
न जाने कितने ही सुन्दर-स्वस्थ पेड़ों को
जड़ समेत ख़त्म कर दिया गया।

ऐसे में एक दिन ...
लो-फ्लोर बस में बैठा
जब मैं निकल रहा था खेल गाँव से
अपने ऑफिस को सुबह-सुबह।
तब ही सोचा, प्रकृति निरीक्षण कर।

परमात्मा ने बनाया सभी जीवों को सम्पूर्ण
जिसको हाथ-पाँव देने थे।
उसे हाथ-पाँव दिए।
जिसे करना था खड़ा जड़वत
उसे कर दिया खड़ा वृक्ष रूप में।
जिसे देनी थी गति
उसे बना दिया घोड़ा।
जो गति पाकर भी
न हो पाया गतिवान (चालक)
बन गया समाज पर फोड़ा।

एक कल्पना कर सिहर जाता हूँ।
"अगर वृक्ष के होते हाथ-पाँव"
तो परमात्मा की व्यवस्था का क्या होता?
आज के मनुष्य को पास आता
देखकर
बिदक उठते पेड़
फडफडाती शाखाएं - आवाज करतीं -
"मेरी छाँव में आने से पहले
देना होगा - पहचान-पत्र,
करेक्टर सर्टिफिकेट
दिखाने होंगे - सभी कागज़ात
एक-एककर।
जब तक विश्वास न होगा -
प्रकृति प्रेमी होने का
न बैठ पाओगे - मेरी छाँव तले।"

जबरन कोई बैठ जाता
मूर्ख कालिदास की भांति
या, वृक्ष तले पड़े-पड़े
कुरेदता जड़ें - अस्थिर मति से।
पकड़-पकड़कर वृक्ष अपने हाथों से
स्वयं ही बचाव में अपने
उठ खड़े होते।
या, फिर थके राही को
सुनसान रेतीले प्रदेश में
जा-जा पास उसके छाया देते
फलदार फल देते
हलक सूखे हर संकोची राहगीर को।

परन्तु अच्छा ही हुआ
परमात्मा ने जिसे जो देना था
उसे वही दिया।
मनुष्य को 'हाथ-पाँव' - कर्म करने को
वृक्ष को 'शाखाएं' - छाया, फल देने को
पर्वत को 'उंचाई' - अहंकार की बाड़ से बचने को।
... जिसे जो-जो दिया
पूरा था
मगर असंतोषी लोभी मनुष्य
उसे मानता अधूरा है।

(नया खेल गाँव बनाने के लिए सेकड़ों वृक्ष काटे गए, उन कटे वृक्षों की स्मृति में)

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