सोमवार, 29 मार्च 2010

मेरा प्रेम

— कवि! तुम्हे सबसे अच्छा क्या लगता है?
— शून्य!
— अर्थात?
— खुला आकाश!
— क्यों?
— क्योंकि वहाँ मेरी कल्पना विचरण करती है।
— अच्छा, तो क्या तुम कल्पना से प्रेम करते हो?
— हाँ, बहुत!!
— बहुत, फिर भी कितना?
— जितना मैं अपने आप से करता हूँ।
— लेकिन यह शरीर और जीवन दोनों ही क्षण-भंगुर हैं। तब, क्या तुम्हारा प्रेम भी...
— हाँ, मेरा प्रेम भी क्षणिक है, जब तक यह शरीर और जीवन है, तब तक ही कल्पना से प्रेम जीवित है। या यूँ कहें, कल्पना भी तब तलक ही है।
— कवि! तब तुम्हारी आत्मा का क्या कार्य है?
— वह मुझे सदैव प्रेम करने की प्रेरणा देती रहती है। लौकिक के अतिरिक्त अलौकिक वस्तुओं से भी वह प्रेम करना सिखाती है। मेरी कल्पना लौकिक वस्तुओं से निर्मित होकर भी अलौकिकता की गरिमा लिए हुए है।

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.