मंगलवार, 25 मई 2010

चंदू मेरा बन्धु

ऑफिस में मेरा एक साथी है चन्द्र प्रकाश. हरियाणवी यादव. खेत-खलियान भरपूर, ढोर-डांगर भी घी-दूध में डूबे रहने के लिए अच्छी-खासी संख्या में है. चाहता तो ता पुलिस की नौकरी. पर हर बार इंटरव्यू में अच्छी सिफारिश ना होने के कारण मायूस होना पड़ता है. कमरदर्द की शिकायत उसे काफी रहने लगी है. पापा शादी के लिए उसपर दबाव बनाए रहते है. लेकिन मन-ही-मन वो...... नहीं बताना मना है. कविता सुन लीजिये. कविता में कहने की कवि को छूट है.  मेरे मित्र दीप जी ने इस कविता को फिर से जीवंत  करने  को कहा  था.

चंदू का मन ..... कोरा पेज़
बेशक उसकी छब्बीस एज़

पहले छापी ..... गर्ल इमेज़
'मैरीज' ने कर दिया इरेज़.

अब ऑफिस है कुर्सी-मेज़.
कमर दर्द करती है. तेज़.

नहीं पचा पाता नॉन-पेज़.
देसी घी से .... है परहेज़.

चौरों का करना था चेज़.
पुलिस मेन इच्छा डेमेज़.

मन अब भी रहता इंगेज.
नयी-नवेली .... गर्ल इमेज.

पापा लगते हैं ... चंगेज़.
रहता है मुनीरका विलेज.

चंदू मेरा .... कोरा पेज़.
जो इमेज़ लाता ....... इरेज़.

सोमवार, 24 मई 2010

मेरे सपने की दूधिया गाय

मेरे बचपन का एक सच्चा सपना और २२ वर्ष वहले २१-१२-१९८८ को लिखी गयी कविता. इस कविता में मैंने एक क्षण-विशेष को मानस में कैद किया हुआ है जो आज भी मुझे बचपन जीने में मदद करता है. आप के सामने एक किस्से के रूप में...

बात पुरानी
वर्षा में भरा घुटनों तक पानी.
सड़कें डूबीं,
खेत डूबे,
हुयी फसलों को हानि.
मोर प्योहूँ-प्योहूँ करें.
मेढक टर-टर राग सुनाएँ.
अब भी थीं नभ पर छायीं काली घनघोर घटायें.

हुयी सांय,
हम बच्चे कूदें पानी पर, सवार से.
हमने तैरायीं कागज़ की नाव, बड़े प्यार से.
भोजन कर,
मैंने दूध माँगा नियम से रात में.
दूध न था जानकार, सो गया मायूस-सा मैं.
स्वप्न आया,
तो देखा एक गाय को साइकल पर.
बेच रही दूध, शुद्ध, ताज़ा व् तुरंत निकालकर.
गाय ने आवाज लगाई —
"दूध ले लो.............दूध."
मैंने पूछा —
"गऊ माता! कैसे दिया है दूध."
बोली वो मुस्कराकर —
"बेटा! तुमने क्या पूछ लिया?
जितना चाहे पियो,
मुफ्त है मैंने लिया."
रात को ही सपना मेरा,
अधूरा छूट गया.
अचानक,
जाग उठा मैं,
पुनः प्रसन्नचित सो गया.

बुधवार, 19 मई 2010

प्रेम औषधि से चिकित्सा करवाने वाले कृपया आगे जाएँ.

मित्र विनय से मुलाक़ात मोबाइल पर हो ही गयी. आगे जानने के लिए दर्शन प्राशन दवाखाने पर जाएँ. मरीज वहीँ मिलेगा. रास्ता है:
http://darshanprashan-pratul.blogspot.com/2010/05/blog-post_19.html

सोमवार, 17 मई 2010

मेरा उत्तर [मेरे मित्र विनय कुमार की कविता]

अपेक्षाएँ हैं मुझसे कितनी,
पूरी कर न सकूँ जितनी.
लाभ इसका होगा क्या,
मेरी बस बात है इतनी.

लिखूँ गद्य लिखूँ पद्य,
न सेवन करूँ कभी मद्य.
विचारूँ छंद उतारूँ निबंध,
बुरी हर बात पे प्रतिबन्ध.

'उनका' विचार अब त्याग दूँ,
सीमाएँ अपनी बाँध लूँ.
दिखाया है आपने जो मार्ग,
अपना लक्ष्य उसपे साध लूँ.

था आवरण संकोच का जो,
अब मेरे किस काम का.
समय आ गया है कदाचित
लज्जा के प्रस्थान का..

[मेरे संकोची मित्र विनय कुमार जी द्वारा रचित एकमात्र कविता, मैंने ज्यूँ की त्यूँ उतार दी है.]
अगर इस कविता को पढ़कर उन्होंने मुझसे संपर्क नहीं किया तो मैं उनपर लिखी सभी कवितायें जग-जाहिर कर दूँगा.

शनिवार, 15 मई 2010

वाह विधाता

देखी तेरी लीला सबने
लिया देख सब डाटा.
................................. वाह विधाता!

फ़ैल रही है कहीं बीमारी
कहीं संकुचित 'त्राता'.
................................. वाह विधाता!


कहीं कंप होती है धरती
कहीं भूधर फट जाता.
................................. वाह विधाता!


बेमौत मरे लाखों नर-नारी
पर तू ना पछताता.
................................. वाह विधाता!


कहीं कृषि को भूमि बंजर
कहीं अकाल पड़ जाता.
................................. वाह विधाता!


कहीं टूटकर पूजा मंदिर
ह्त्याघर खुल जाता.
................................. वाह विधाता!


कहीं उजड़कर झुग्गी-बस्ती
अपार्टमेन्ट बन जाता.
................................. वाह विधाता!


कहीं पलायन वृद्ध कर रहे
कहीं टूटता नाता.
................................. वाह विधाता!


कहीं भीड़ है भक्त जनों की
कहीं कोई ना आता.
................................. वाह विधाता!

कहीं किसी पर उड़न-खटोला
कहीं बामुश्किल छाता.
................................. वाह विधाता!


कहीं टिप्पणी लगे सैकड़ा.
कहीं खुला ना खाता.
................................. वाह विधाता!

[त्राता — कल्याणकारी ईश्वर,
भूधर — पहाड़,
उड़न खटोला — हवाई जहाज, {एक विशेष सन्दर्भ में प्रयोग}
छाता — छतरी ]

गुरुवार, 13 मई 2010

साहित्यकार

पान
बीड़ी
तम्बाकू
सिगरिट का धुआँ.
थोड़ी शराब, थोड़ा जुआँ
— हो जाए.
बनो 'मेरे यार'.
मैं इस युग का साहित्यकार.

बुधवार, 12 मई 2010

मेरे हाल चाल

आज गुप्पा हो गया
................ मैं फूलकर इतना
............................लगने लगा भय
.......................................नोक से.

आसमान में उठा
................ मैं ऊलकर इतना
.......................... भगने लगा हय*
.................................... शोक से.

साथ तेरे थक गया
................ मैं झूलकर इतना
........................... जगने लगा मैं
................................... झोंक से.

उर को सभी कुछ दे दिया
.................. है मूल-कर इतना
.......................... ठगने लगी वय*
..................................... थोक से.

आप आते हो नहीं
................... मुँह खोलकर अपना
............................... पगने लगी लय
......................................... कोक* से.

हय — घोड़ा;
वय — आयु;
कोक — काम-वासना.

मंगलवार, 11 मई 2010

धनिया माँगते हैं

तीज त्योहारों पर ........................ जमादार.
शादी-ब्याह
और बच्चा होने पर ....................... हिंजड़े.
ज़रा-सा
कंस्ट्रक्शन शुरू करने पर ................. ठुल्ले.
.......................हक़, न्योत, चाय-पानी माँगते हैं.


पब्लिक स्कूल में
एडमिशन पर ............................. प्रिंसिपल.
परीक्षा से पहले
कमज़ोर बच्चों से ......................... ट्यूटर.
फेल को
पास में बदलने पर ...................... मास्टर.
...................... डोनेशन, फीस, बच्चों की मिठाई के लिए पैसा माँगते हैं.


तीर्थ स्थलों पर
शंख बजाकर .......................... मोटे साधू.
सरकारी दफ्तरों में
फाइलों के पास बैठे ......................... बाबू.
नौकरी के लिए
इंटरव्यू देने के बाद ................... निर्णायक.
....................... दान, पान-बीढ़ी, जेब गरम करने को लक्ष्मी माँगते हैं.


होटल में
खाना खिलाने के बाद ...................... बैरा.
प्लेट-फॉर्म पर
बोझा ढोने के बाद .......................... कुली.
सब्जीमंडी में
शाक खरीदने के बाद ................ ग्राहक.
........................ टिप, बक्शीश, धनिया माँगते हैं.

रविवार, 9 मई 2010

बौनी पीढ़ी


 
गमलों में

उग आये हैं
नीम बेल अनार इमली के पेड़.

गमलों में
पेड़ों को उगा देख
बसे-बसाए 'फूल से'
किराएदारों को मैंने विदा किया.

माँ ने समझाया
गमलों में पेड़ नहीं लगते.
पेड़ों को चाहिए होती है ज़मीन
अधिक क्षेत्रफल/ खुलापन
बेटा, पौधों को गमलों से मत निकालो
मत बसाओ पेड़ों को गमलों में.

मैंने कहा —
माँ! ये गमलों में बौने ही रहेंगे
मैं इन्हें खाद पानी दे ज़िंदा रखूँगा.
ये पेड़ उगाने का बौन्साई फार्मूला है – कम स्पेस में.
आजकल इसी का फैशन है
घर-घर उगाये जा रहे हैं इसी नीति से पेड़.
कुछ सालों बाद ये फल देने लगते हैं.

पिता ने कहा —
"बेटा! इनके फलों में स्वाद नहीं होगा
असली जैसा"

कमरे के भीतर से आता 'बच्चों का शोर' सुन
पिता की बात को अनसुना करने का
मुझे कल्चर्ड बहाना भी मिल गया.
— पापा सर्कस जाना है.
— पापा 'पा' देखने चलो.
पत्नी का दोनों बच्चों को पूरा सपोर्ट था

सो, पहले सर्कस
फिर फिल्म/ बारी-बारी से जाना हुआ.

पहला 'शो' सर्कस
जहाँ
बच्चों के कद में
समाहित थे पूरे के पूरे आदमी/
उनका चलना, उनका घूमना/
उनका उठना-बैठना, झूमना
बच्चों की हँसी को कंटीन्यू किये था.

समाज में जब हम देखते हैं किसी को
उम्र से घट-बढ़ हरकतें करते देखते
– हँसी छूट जाती है.
पर यहाँ तो उम्र अपनी सही जगह लिए है
कद ही नहीं है अपने ठिकाने पर.
"बौना"
परमात्मा का 'अनफेयर' 'अमेच्योर सृजन
फिर भी उसको देख
हँसी आ जाती है क्यों?

दूसरा 'शो'
३ से ६ "पा"
"ओरो"
प्रोगेरिया का शिकार
 परमात्मा का अनजस्टिस/
इकतरफा प्रोग्रेस
जिसमें शरीर तेज़ी से महीने-दर-महीने उम्र की दहलीज़ें लांघता है.
 पर पिछड़ जाती है अक्ल, उम्र के मुताबिक़.

'पा' के बाद से ही समाज में सुन्दर महिलाओं के नज़रिए में दिखने लगा था बदलाव.
जो कभी किसी वृद्ध व्यक्ति के घूरने पर बिदक जाया करती थीं घरेलू औरतें/
अब वही खोजने लगीं हैं हर बूढी घूरती नज़रों में छिपा हुआ 'बच्चा' प्यार से.
सच में 'पा' का क्रांतिकारी असर है.


सर्कस और फिल्म देखने के बाद
घर लौट आया मैं खयालों में

'मनोरंजन' एक खाद है
जो थोड़ी मात्रा में दी जाये तो
थके मस्तिष्क को रिलेक्स देती है.
नयी ऊर्जा से पुनः भर देती है.'
पर मनोरंजन की हवस
किस तरफ ले जाती है
समझ नहीं आता.
क्योंकि तब तक दिमाग सोचने लायक नहीं रहता.
मनोरंजन में बहते जाना बहते जाना
जरूरत सी लगने लगती है.
क्रिकेट मैच देखने से छूट जाए
तो उसके हाईलाइट्स देखने बेहद ज़रूरी हैं.
चाहे दिनभर ऑफिस में आँखें
कम्पूटर के आगे थकाई हों.
देश की कौन-सी विधान-सभा में
हंगामा हुआ/ जूतम-पैजार हुआ/
किस नेता की जोकरी का कारनामा
आज पूरे दिन चैनल्स पर छाया रहा.
किस छोटे कद के नेता ने बड़े बोल बोले.
किस गुदड़ी में छिपे संत के
उसके भक्त ने सारे राज़ खोले.
खबर मालूम पड़ने पर भी
बार-बार फिर-फिर
मर्डर-मिस्ट्रीयों में
मनोरंजन खोजते रहना.

-- कहाँ करें मनोरंजन का अंत.
कैसे दें आखों को आराम/
दिमाग को दो क्षण सुकून के. ...
सोचता-सोचता कब मैं
घर के टी वी के सामने
आ बैठा पता ना चला.


टी वी पर चल रहा था
'डांस-इंडिया-डांस' के जूनियर्स शो ऑडिशंस.
सभी माता-पिता अपने-अपने बच्चों से
युवक-युवतियों के शारीरिक भावों की
उलटी करवा देना चाहते थे.

खैर, मैंने
सुबह से शाम तक
और रात को भी
हर कहीं होते देखी
बौन्साई खेती.
घर की बालकोनी और छतों से लेकर
घर के अन्दर माँ की गोद तक में.

जब मैं नहीं छोड़ पा रहा हूँ
पेड़ों को गमलों में लगाने के शौक को.
तो क्यों उम्मीद करूँ
छोड़ देंगे बाक़ी भी
बोनसाई फार्मूले से
बच्चों को पोसना.

शनिवार, 8 मई 2010

बचत

जेब में
मेरे
'अठन्नी '
हाथ फैलाता
...........................................................................भिखारी
दूर दिखता.
काटता हूँ
मैं
इधर
चुपचाप कन्नी.

शुक्रवार, 7 मई 2010

असल बिहारी

हर शब्द का होता है
अपना एक इतिहास.
भाषा वैज्ञानिक खोद निकालता है
शब्द का आदिम रूप
प्रयोग में लिए जा रहे
प्रचलित शब्दों के आस-पास.

इस खुदाई में 'मूल शब्द'
किस समय – कितना गला, कितना चला
कितना घिसा, कितना पिसा.
किस शब्द ने कितनी साँसें लीं.
किस शब्द ने कब दम तोड़ा.
कौन कब हुआ लापता.
किसने अपने असल अर्थ को छोड़
पराये अर्थ की शरण ली.
कौन धर्मात्मा से बन गया डॉन.
कौन हो गया अपनी उपेक्षा से मौन.
— सभी पहलुओं पर होती है भाषा इतिहासकार की नज़र.

लोक परम्पराओं के खंडहर में
भूले-भटके टहलता हुआ
दीख पड़ता है जब कोई
शब्द का साया.
भाषा वैज्ञानिक
कान खड़े कर
उसके पदचापों को सुनने
वहाँ की ज़मीन तक खोद डालते हैं कि
मिल जाए उन्हें उस शब्द का डीएनए चित्र.
प्राप्त हो जाए उसका असल चेहरा.
.
.
.
आज मैं 'बिहारी'
के असल चेहरे को ढूँढने निकला हूँ.
जो बिहारी शब्द अपने रंग-बिरंगे अर्थों में
आज अपना असल अर्थ खो चुका है.
यदि घृणा से उच्चार दूँ — 'बिहारी'
तो संबोधित व्यक्ति लाल-पीला हुए बिना न रहे.
यदि भक्ति-भाव से बोलूँ 'माखनचोर' अर्थ में
तो लग जाए जयकारा.
किन्तु  असल बिहारी का चेहरा तो खुदाई में निकला है.
.
.
अरे! 'बिहारी' का चेहरा तो 'बीहाड़ी' से निर्मित है.
बीहड़ों में  बसता था जो आदिम शब्द
वह वहाँ उच्चरित होता था  'ड़' के अभाव में.
बीहड़ में रहता था जो बीहाड़ी.
वह बताया जाने लगा 'बिहारी'.
.
.
.
.
.

इतनी मशक्कत
इतनी खुदाई के बाद
मिल गया है मुझे बिहारी का असल आदिम रूप.
लेकिन इस थकान में
'बीहड़' शब्द की खुदाई करने का अब दम नहीं.

[मेरे कई साथी बिहार प्रांत से हैं, उनसे हिंदी-संस्कृत शब्दों पर माथापच्ची होती रहती है. यह केवल मनो-विनोद निमित्त लिखा गया है.]

रविवार, 2 मई 2010

आतंक को पहचानो

मैंने देखा है
आतंकियों को
हुआ हूँ गद्दारों से रू-ब-रू.
मैंने थाली में छेद करने वाले देखे हैं
देखी हैं हरकतें देश-विरोधी.

मैंने देखे हैं
देश के शहीदों के प्रति घृणित भाव.
मैंने उन सरकारी दामादों को देखा है
जिनकी आवभगत हर इलेक्शन में होती है
जो ज़हर उगलते हैं, दूध पीकर भी डसते हैं.
अल्पसंख्यक होने का पूरा फायदा उठाते हैं
पड़ोसी मुल्क से दोस्ती बढ़ाने के बहाने
बसें ट्रेनें चलवाते हैं.
अपनी पसंदीदा, रोज़मर्रा जरूरत की चीज़
बारूद लेकर आते हैं.

मैं देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने वाले
जाली नोट छापने वाले
चेहरों को पहचानता हूँ.
मैं जानता हूँ
कहाँ मिलती है ट्रेनिंग आतंक की.
मैं ही नहीं आप भी जानते हैं
कहाँ पैदा होती है फसल — देशद्रोह की.

हम सब जानते हैं
पर बोलते नहीं
हम सब देखते हैं
पर अनजान बने रहने का
नाटक किये जा रहे हैं
बरसों से – लगातार.
हमें बचपन से ही
कुछ नारे रटा दिए गए हैं
— हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई.
— हमें हिंसा नहीं फैलानी, हमें घृणा को रोकना है.
— साम्प्रदायिकता से बचो सब धर्मों का सम्मान करो.
तब से ही भाईचारे की भावना लपेटे हुए
मैं जिए जा रहा हूँ.
साम्प्रदायिकता समझी जाने वाली ताकतों से भी बचा हूँ.
मन में हिंसा के भाव नहीं आने देता.
घृणा चाहते हुए भी नहीं करता.
जबकि गली में मीट के पकोड़े तलता है
रोजाना गोल टोपी धारी.
नाक-मुँह बंद कर लेता हूँ.
लेकिन कुछ नहीं बोलता
किसी से शिकायत नहीं
क्योंकि ये सबका देश हो चुका है.

क्या मैं अपनी इस ज़िन्दगी को
अगले बम-विस्फोट तक बचाए हुए हूँ.
क्या मैं हमेशा की तरह इस बार भी
अपने भावों पर ज़ब्त करूँ.
कुछ ना बोलूँ.
शांत रहने का,
शांत दिखने का एक और नाटक करूँ.
मीडिया की फिर वही बकवास सुनूँ —
"बम विस्फोटों के बाद भी
आतंकियों से नहीं डरी दिल्ली
बाज़ार फिर खुले,
लोगों ने रोजमर्रा का सामान खरीदा.


छिद्र टोपीधारी
भारतमाता के दामन में
छिद्र कर चुके हैं न जाने कितने ही.
अब भरोसा नहीं होता
कि पड़ोस के शाहरुख, सलमान, आमिर को
अपने घर बुलाऊँ या उनके घर जाकर ईद-मुबारक करूँ.

......

जामिया के कुलपति
जो आज पैरवी कर रहे हैं
उन मुजरिमों की जो प्रमाणतः आतंकी हैं.
एक घटना पोल खोल देगी
जामिया यूनिवर्सिटी की
देश के प्रति वफादारी की

कारगिल के समय
शोक में था जामिया
गुजर गए थे उस दौरान उनके क्षेत्र के कोई मियाँ.
शोक प्रकट किया गया.
उसी समय हिंदी विभाग के प्रमुख
अशोक चक्रधर जी ने कहा
अब कारगिल के उन शहीदों के प्रति भी
दो मिनट का मौन रखें जिन्होंने देश के लिए जान गँवायी.
पर उर्दू अरबी विभाग के प्रोफेसरों को
बात हज़म नहीं आयी.
मजबूरी में मौन रखने के बाद
बोले — "अब गली में फिरने वाले
उन कुत्तों के लिए भी मौन रखवाइये.
जो अभी-अभी मारे गए हैं."

क्या कहती हैं ये घटना
क्या इस टिपण्णी से
सब प्रकट नहीं हो जाता.
कि कहाँ कैसी शिक्षा दी जा रही है.
कहाँ तैयार हो रही है
देशद्रोह करने वालों की पौध.

मैं जान गया हूँ.
आप जान गए.
क्या सरकार में बैठे हमारे नुमायिंदे नहीं जानते
पुलिस प्रशासन नेता सब जानते हैं.
लेकिन चुनाव सर पर बने रहते हैं.
उन्हें सेंकनी होती हैं रोटियाँ 'वोटों की'
उन्हें हमारे वोटों से ज़्यादा
टुकड़ों पर बिकने वालों के वोटों की परवाह रहती हैं.

तभी तो आज भी
लालू, मायावती, मुलायम
राहुल, सोनिया इस आतंक की लड़ाई में
सख्त बयानबाजी से ही काम चला रहे हैं.
विस्फोटों में स्वाहा हुए परिवारों को
खुले दिल से नोट मदद बाँट रहे हैं,
मदद बाँट रहे हैं. ...
 
[अपने मित्रों के चाहने पर प्रकाशित]

प्रचारतंत्र की जय [आज के नेता का स्वगत कथन]

मुझमें ना है कोई योग्यता
फिर भी मैं हीरो हूँ.

ना ही मुझमें रंग-रूप का
कोई आकर्षण है.

प्रबुद्ध जनों को शीघ्र
प्रभावित कर लूँ — असंभव है.

जिज्ञासु बालक की
जिज्ञासा को शमन करन का
मुझपर नहीं मंत्र-वंत्र है
ना ही कुछ अध्ययन है.

मैं केवल छपता रहता हूँ
पत्र-पत्रिकाओं में.
करूँ अटपटे काम
मैं रोचक न्यूज़ बना करता हूँ.

सर के बल जब चलूँ
तो भी फ्रंट पेज़ छपता हूँ.

मोटी रकम / न्यूज़ पेपर को / दूँ जैसा छाप जाऊँ.
बार-बार न्यूज़ चैनल को / मोटी रकम पहुँचाऊँ.
खुद को मनचाहा फिल्माऊँ.

पत्रकार पर जाँच कमेटी नहीं बैठती भाई.
चाहे कितना भ्रष्ट पतित हो दूर रहे सीबीआई.
ऐसे में मन कहता मेरा "प्रचारतंत्र की जय!"

[आज के नेता का स्वगत कथन]

शनिवार, 1 मई 2010

बंधुआ मजदूरी नए ज़माने की [मज़दूर दिवस पर विशेष]

आज का
प्रत्येक व्यक्ति
हो चुका है जागरूक
शिक्षा ने उसमें चेतना घुसाई है.
प्रशासन भी दे रहा है
भरपूर सहयोग शिक्षा को.


— आँखें खोलने के लिए अंधी रूढ़ियों की —
कर रहा है स्थापित विश्वविद्यालय.
व्यक्ति पा सके रोजगार
ऐसे-ऐसे पाठ्यक्रमों को
चलाता है जनता के बीच.
कि पानवाला, तांगेवाला, रिक्शावाला, दिहाड़ी मज़दूर
कर सके अपने बिजनिस को नवीन, और नवीन.


'बंधुआ मज़दूरी' 'बाल मज़दूरी' कानूनन है जुर्म.
जागरूकता अभियान ज़ारी है शासन का.
एनजीओज़ भी चिल्लाते हैं
न्यूज़ चैनल के सामने
'बंद करो बंद करो...'
लेट जाते हैं सड़कों पर — भावावेश में.
लेकिन इन सब क्रियाकलापों के बावजूद
चले जा रही 'बंधुआ मज़दूरी'
— अपने नए रूप में.


"कोंट्रेक्ट सर्विसेज़" — एक बढिया-सा नाम
पॉलिश किया सा लगता है.
जिसे क़ानून भी शोषक की सुविधानुसार तोड़-मरोड़ देता है.
अब शोषण करने का तरीका बदल गया है
बदल गए हैं — सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति
आ रहे हैं निश्चित अवधि के
कोन्ट्रेक्ट-क्वार्डीनेटर, प्रोजेक्ट मेनेजर.


आज
बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं
पढ़े-लिखों की ज़मात — काम करने को.
बंधुआ मज़दूरी के लिए आज
बाध्य नहीं किया जाता
बाध्य हो जाता है खुद-बा-खुद
रोज़गार पाने को भटकता हुआ ग्रेजुएट.
परिस्थितियाँ उससे भरवाती हैं – पानी,
नए ज़माने और बीते ज़माने के बीच
तब वह भेद नहीं कर पाता.
उसको अपनी स्थिति एक बंधुआ मज़दूर-सी लगती है.
एक नौकरी के बाद दूसरी नौकरी की तलाश में
या उसी नौकरी को स्थिर रखने के प्रयास में
सहता है सब कुछ
और रहता है
पहले की ही तरह तनाव में.


ज़माना कहाँ बदला है?
बदले हैं तरीके — शोषण के.
अब इन तरीकों के तहत ही
होगा उन व्यापारियों का भी शोषण
जिनकी दुकानें सील हो चुकी हैं
कोर्ट के आदेश पर.


आना होगा उनको भी अपने साजो सामान के साथ
मॉल में, मल्टीनेशनल बिजनिस कॉम्लेक्स में
एक नए कोन्ट्रेक्ट के साथ
"माल बेचो, कमीशन दो."


यही नियम तो रहा है पहले भी
चौथ वसूलने का.
अधिक से अधिक वसूली को खड़े हैं
हमारे रहम दिल सरमायेदार
टैक्स देना तो है ठीक
लेकिन जड़ें उखाड़कर पेड़ की
दूसरी जगह रोंपने में सूख नहीं जायेंगी
उसकी डालें, उसकी टहनियाँ, पत्ते
शायद मर ही जाये पूरा पेड़.
.
.
.
प्रकृति सँवारती रही है हमारे परिवेश को
बसंत में सज उठती है पूरी की पूरी
पतझड़ भी पीले पत्तों को हटा
नयों को आने का अवसर देता है.
.
.
.
— "दिल्ली को बेहतर करने का है प्रयास"
बेहतर करने के प्रयास में
दिल्ली को दी जा रही आर्टिफिशियल चकाचौंध
गाँवों से निकल शहर आई संस्कृति
कहीं पूरी की पूरी अपनी पहचान ना खो दे.


बहरहाल एक बात साफ़ है
होने वाली है शुरुआत
बंधुआ मज़दूरी की
वह भी नए ज़माने की
अब नयी चकाचौंध के साथ. ....


 [मज़दूर दिवस पर विशेष]

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.