हे देवी! छंद के नियम बनाये क्योंकर?
वेदों की छंदों में ही रचना क्योंकर?
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला?
किसलिये श्लोक रचकर रहस्य ना खोला?
क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था?
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था?
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी?
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी?
'कवि' हुए वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को.
आहत पक्षी कर गया था भावुक उनको.
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा.
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा.
माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू?
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू?
या रामायण के लिए भी डाका डाला?
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला?
हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो !
क्या अब भी ऐसा हो सकता है? बोलो !!
अब तो कविता में भी हैं कई विधायें.
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें.
अब नहीं छंद का बंध न कोई अड़चन.
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन.
कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये?
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये?
छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला.
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला.
मिल गयी छूट सबको बलात करने की.
कवि को कविता से खुरापात करने की.
यदि होता कविता का शरीर नारी सम.
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम.
छायावादी छाया में उसको लाता.
धीरे-धीरे उसकी काया सहलाता.
उसको अपने आलिंगन में लाने को
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता.
लेकिन रहस्यवादी करता सब मन का.
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का.
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता.
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता.
पर, प्रगती...वादी, भोग लगा ठुकराता.
कविता के बदले न..यी कवी..ता लाता.
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को
बेचारी कविता को वन्ध्या ठहराता.
और ... प्रयोगवादी करता छेड़खानी.
कविता की कमर पकड़कर कहता "ज़ानी!
करना इंग्लिश अब डांस आपको होगा.
वरना मेरे कोठे पर आना होगा."
अब तो कविता परिभाषा बड़ी विकट है.
खुल्लम-खुल्ला कविता के साथ कपट है.
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है.
कविता वादों का नहीं कोई सम्पुट है.
ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है.
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है.
जिसकी निह्सृति कवि को वैसे ही होती.
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव पर होती.
जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है.
कविता भी ऐसी दशा बिना सरहद है.