गुरुवार, 12 अगस्त 2010

मेरी दो अ-कवितायें

[१]

मेरी 'नमस्ते' का भूखा

जब भी उससे
नयन मिलते हैं
कुछ अपेक्षा से
उसके नयन ठिठक जाते हैं.
चाहते हैं कि
मेरे नयन
पल भर को
पलकों के हाथ खड़े कर
तपाक से 
गिर पड़े
अपने क़दमों में.

ऐसे में
उसके भूखे कान
सुनने को उतावले
रहते हैं कि
मेरा मुख
उसके कमेन्ट बॉक्स में
'नमस्ते' का
ऑडियो मैसेज छोड़ जाए.

[२]

मेरा बड़प्पन

मेरे बाद जन्मे लोग
मेरी बात क्यों नहीं मानते?

मेरे अनुभव
मेरी उपलब्धियों से लाभ क्यों नहीं उठाते?

क्यों नहीं बैठते
आकर मेरे पास?

क्यों बनी रहती है
हमारे बीच
दो पीढ़ियों की दूरी?

मेरे मन में
इन सभी उठते सवालों के बीच
माँ की आवाज़ ने दस्तक दी .....
"बेटा! मंदिर जाना,
पुजारी के पाँव छूकर आशीर्वाद ले लेना.
भगवान् चाहेगा तो इस बार ....."

तपाक से मेरे भीतर
बैठे बड़प्पन ने जवाब फैंका —
"नहीं माँ, अपने मंदिर का पुजारी
मुझसे उम्र में छोटा है."

मातृभाषा प्रयोग मतलब मानसिक स्वतंत्रता

"केवल एक ही भाषा में हमारे भावों की व्यंजना हो सकती है, केवल एक ही भाषा के शब्दों के सूक्ष्म संकेतों को हम सहज और निश्चित रूप में ग्रहण कर सकते हैं. यह भाषा वह होती है जिसे हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं, जिसमें हम अपनी प्रारम्भिक प्रार्थनाओं और हर्ष तथा शोक के उदगारों को व्यक्त करते हैं. दूसरी किसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना - विद्यार्थी के श्रम को अनावश्यक रूप से बढ़ावा देना ही नहीं, बल्कि उसकी मानसिक स्वतंत्रता को भी पंगु बना देना है."
— अंग्रेज़ी साहित्यकार ब्रेल्सफोर्ड

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.