गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

उधार-गाथा

कुछ समय के वास्ते
चाहिए मुझको तुम्हारी
'जमा पूँजी'
जो तुम्हे देती रही
नेपथ्य से —
संकल्प दृढ़ता.
मन में उठी एक चाह को
'पक्का इरादा में बदलने
की सनक.

प्राप्त करके
जमा राशि तुम्हारी
मिल ना पाती
मन को तुम्हारी भाँति 'दृढ़ता'.

ज़रुरत भी
एक होती पूर्ण
दिखती दूसरी तब
इस तरह तो
बोझ मेरा कम ना होगा!

तुम उसी धन की बदौलत
उधार में मुझको दिया जो
बन चुके 'उदार' अब हो.

क्यों विषमता इस तरह की
सोचता हूँ मैं कभी ये
उसी धन से तुममें सदगुण
उसी धन से मुझमें अवगुण.

किन्तु मेरे मन में पैदा
हो रही कुछ और बातें
— घर बदल लूँ बिन बताये
— सामने बिलकुल ना आऊँ.
आ भी जाऊँ, भूल जाऊँ–धन लिया जो
— चेहरे का गेटअप बदल लूँ.
पर कुछ ना होगा –
पत्नी बच्चों को वह पहचानता है
ये बदल तो नहीं सकते
कृपा को वापस न दूँगा.

या कहूँ
ओ मित्र मेरे!
भागता भई मैं कहाँ हूँ!
– दे ही दूँगा,  सामने हूँ!
– मैं अभी मरा नहीं हूँ!
– तुम भी कैसे दोस्त मेरे!
मेरे पीछे ही पड़े हो!
नौकरी में करके नागा!
– फाके तो तुम नहीं करते!
– जी रहे हो ठाट से तुम!

पूछते हो अब मुझी से –
'मैंने तुमको क्या दिया?
कौन-सी दोस्ती निभायी?'
– सैकड़ों ही बार सुबह
तुम हमारे घर पर आकर
चायनाश्ता कर चुके हो.
– और दसियों बार दिन में
– पेटभर भोजन किया है.
— ले ही लेना अगले सप्ताह!
अगले सप्ताह भी कहूंगा –
कल या परसों तक मिलेगा.
शर्म होगी, आयेगा ना
बेशरम हो आयेगा भी
— रात १० बजे का टाइम दूँगा.
— इतने चक्कर कटा दूँगा.
भूल जाएगा यही कि
'किसलिए आता यहाँ हूँ."

रात १० बजे को इज्जत दार
ना किसी के घर जाते.
इस तरह ही उधार देकर
सदगुणी उदार व्यक्ति
अंततः हैं बदल जाते.

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

अंत की सीमा

अंत की सीमा
निर्धारित नहीं.
आरम्भ का  उदगम 
किस बिंदु को स्वीकार लें.

अभिव्यक्ति का आरम्भ
मेरे मौन का है अंत.
व्यक्त का अलम
मेरे मौन का प्रारम्भ.

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

अंत - सूक्ष्मता का

दुष्ट विचारों को
पहचान
उनसे नज़र बचाकर
निकल जाना चाहता हूँ.
पर, कैसे हो संभव
जब जानता हूँ मैं —
"परिचितों से
नज़र चुराना अच्छा नहीं
अच्छा या बुरा भाव
व्यक्त करना ज़रूरी है."

करता हूँ कभी
व्यक्त — 'घृणा' अपनी भी
उन विचारों से, जो हितकर नहीं
लिप्तता का सुख
— 'पल' का
मिथ्या है — सोचता हूँ ऐसा भी.

पर, सच्चा
सच्चा सुख — पाने में
खो गया हूँ मैं
हो गया हूँ मैं
तब से
— प्रतिक्रिया हीन
— प्रयतता से दीन
— एक दो तीन
गिनतियों में लीन.
— पूर्णतया विलीन.

ब्रहमांड में जैसे
मर गया हो कोई
विशाल चमकता 'पिण्ड'
क्रमशः लघु से लघुतर होता
द्युति से द्युतिहीन होता
बचता तो केवल कर्षण
'कृष्ण-गह्वर'
अंत — सूक्ष्मता का.

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

चुपचाप देखो मेरा दूसरा जन्म

जब अमित जी ने प्रकृति के एक नज़ारे को मेरी नज़र से जानना चाहा ...
उनका लिंक है:  http://27amit.blogspot.com/2010/04/blog-post_23.html


"आज आपके पास
आश्चर्य करने के अलावा कुछ नहीं."


देखो! शुरू हो गया है मेरा
— स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढना.
— मज़बूत चट्टान से कंकणों में बदलना.
— कंकणों से रेत में तब्दील होना.

'कंकणों का एकजुट हो जाना'
लम्बे समय बाद चट्टान रूप में पहचाना जाता है.


यह तो मेरी नियति है.
प्रकृति की निरंतर चलायमान
बहुत ही धीमी गति है.


यदि यह गति धीमी ही हो
तो मुझे कष्ट नहीं होता.
जैसे शिशु 'अकाल वृद्धावस्था' को प्राप्त नहीं होता.
बीच में जी लेता है 'चंचल बचपन''
जीता है 'प्रशिक्षु किशोरावस्था'
भोगता है 'उर्जावान यौवन'
उतारता है अनुभवपरक प्रौढ़ता
और अंत में,
बिछा जाता है अपने समाज में
अपनी क्षमताओं के साथ
अलग-अलग अनुपात में
नैतिक मूल्यों की,
रीति-रिवाजों के धागों से बुनी,
रंगीन छापों से संस्कारित
'विरासत की चादर'.


अब मेरे भीतर तक नहीं है
एक भी जलकण.
जो मेरे प्रत्येक कण को
परस्पर थामे रखने का कारण था
मेरा आकर्षण था
मैं उसके पास जब भी जाता
वह अपनी अलग पहचान खो देता
मुझसे तादात्म्य कर मुझमें विलीन हो जाता.
'यह प्रक्रिया' मेरे लिए 'प्रेम' थी.


मेरे प्रेम को मुझसे किसने छीना?
कौन उसका हरण कर गया?
किसने मेरी अन्तर्निहित
जलीय भावनाओं को वाष्पित कर दिया?


— क्या मानवीय कृत्यों ने?
या फिर विधाता की इच्छा ने?
— अरे कहीं सचमुच तो मेरा स्वाभाविक क्षरण नहीं हुआ?
अथवा नए रूप पाने को हो रहा है मेरा गमन.


करो आश्चर्य, क्योंकि मैं बहने लगा हूँ.
करो आश्चर्य, क्योंकि मैं स्थिर नहीं.
करो आश्चर्य, क्योंकि आपने अभी जाना है.
अंश और अंशी के सम्बन्ध को पहचाना है.


आत्मा का विलय परमात्मा में होता है.
क्या मैं अपने चट्टान रूप को बिना रेत किये विलीन हो सकता हूँ?
यदि नहीं, तो आश्चर्य किस बात का
मुझे भी तो सद्गति चाहिए, मोक्ष चाहिए.
नए रूप पाने को इस प्रक्रिया से निकलना ही होगा.
मुझे शान्ति से नया आकार पाने दो
हो-हल्ला न करो
इस हो हल्ले से शांत ठहरा समीर गदला हो जाएगा.
नयी सोच का बुद्धूजीवी [बुद्धिजीवी]
ग्लोबल-वार्मिंग, ग्लोबल-वार्मिग चिल्लाएगा.
इसलिए
चुप! ... शांत!!
चुपचाप देखो मेरा दूसरा जन्म.

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

गोबर का कमाल

आधा गाँव
— आधा शहर
घूमें ढोर
— आठों पहर.

डाले बाँह
— हो निडर.
बाँहों में
— बेखबर.

सुबह शाम
— सड़कों पर.
घूमें हैं
— वधु-वर.

निकला बाजू
— ट्रक होकर.
उछला "छप्प्प"
— से गोबर.

[उड़न तश्तरी पर सवार श्रीमान समीर लाल जी को समर्पित]
समीर सर से एक प्रश्न: यदि कहीं कुछ लिखा जाता है तो बिना प्रभाव पड़े क्या रहा जा सकता है? यदि गोबर "उछाल पद्धति" से खुद पर आ गिरे तो कोई प्रतिक्रिया क्या आप नहीं देंगे?

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

मिस्टर पेटूराम की चिकित्सा

मिले एक दिन बाबा राम
बोले — कर लो प्राणायाम
पूरे दिन में बस दो बारी
खाना खाओ शाकाहारी
तीन समय लो प्रभु का नाम
सुबह, दोपहर और शाम
जागो चार बजे तुम रोज
आलस छोडो, भर लो ओज
पाँच जगह की करो सफाई
नोज़, इयर, टंग, स्किन, आई
लंच और डिनर के बीच
छह घंटे का अंतर खींच
सप्ताह में जो दिन हैं सात
करो किसी दिन व्रत की बात
ऑफिस के घंटे हैं आठ
मेहनत कर लो खोल कपाट
रात नौ बजे तक सो जाओ
टीवी प्रोग्राम नहीं चलाओ
पिचकेगा दस दिन में पेट
छोटा नहीं लगेगा गेट.

[इस बार बच्चों के लिए गिनती वाक्यों के बीच में  है]

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

मिस्टर पेटूराम

एक थे मिस्टर पेटूराम
 उनका पेट भरा गोदाम
दो थे उनके मोटे हाथ
घूम नहीं पाते एक साथ
तीन बार ना खाते थे
हर दम चरते रहते थे
चार बार खाते थे चाट
बर्गर, भल्ले, टिक्की हाट
पाँच बार पीते थे चाय
दरवाजे पर रोती गाय
छह बार तम्बाकू पान
इधर-उधर हर तरफ निशान
सात बार करते स्मोक
खाँसा करते खुल-खुल खौंक
आठ बार पीते कोल्ड-ड्रिंक
हेल्थ से छूटा पूरा लिंक
नौ पैकेट खाते थे चिप्स
सूखे-सूखे रहते लिप्स
दस घंटे करते आराम
गिर जाते थे जहाँ धडाम.

कबाड़ीवाला

घर के एक कोने में
कर दी हैं इकट्ठी
घर के सभी सदस्यों ने
— अपनी-अपनी रद्दी.


माँ
महीनों से
जोड़ रही थी जिस कबाड़े को
वह कबाड़ा बिक गया
— पिता की बिना मर्जी.


लास्ट सन्डे
न्यूज़पेपर में छपा जो
एडवरटायिज़ — "फ्लेट एमआईजी बनेंगे".
— खोजते हैं अब उसी को भैया-भाभी.


पिछले हफ्ते ही खरीदा —
"रोज़गार"
वैकेंसी थी — किसी कम्पनी को
चाहिए था 10 वीं पास 'चौकीदार'.


घर में तो मैं
चौकीदारी कर न पाया.
ले गया सब — कबाड़ीवाला.


बहन ने जो सिलने दिए थे सूट
उसकी पर्ची नहीं मिलती.
संदेह रद्दी पर उसे है.
— अब, लौटाएगा न सूट दर्जी.

पिता झल्लाते ढूँढ़ते हैं
'योग की पुस्तक'
वृद्धावस्था पेंशन की
— उसमें रखी थी अर्जी.

माँ थी सचमुच परेशान
शाम तक उसे करना था
— 'इंतजाम'.
इसलिए तो बेची थी रद्दी  
मिलेगा पैसा
तो बनेगी शाम की सब्जी.

कबाड़ीवाला
ले गया अरमान सारे.
मेरा संभावित रोज़गार.
भैया-भाभी के सपनों का घर.
बहन का नया फैशन.
वृद्ध माँ-पिता की आखिरी उम्मीद.
— अब काम किया जाएगा फर्जी.

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

दिवा-स्वप्न

एँ! क्या मैं सो रहा था?
जो मैंने देखा, समझा — झूठ था?
इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच नहीं?
अजमल कसाब को फाँसी हो चुकी है!
सीरियल बम-ब्लास्टों के के गुनाहगार — जेल के अन्य कैदियों के द्वारा मार दिए गए!

अजी! मैंने लाइव टेलीकास्ट देखा!
भारत ने जो-जो सबूत पाकिस्तान को दिए
उनके बिनाह पर पाकिस्तान ने दहशतगर्दियों पर मुकम्मल कार्रवाई की.
भारत ने जैसा-जैसा चाहा पाकिस्तान ने वैसा-वैसा ही किया.
ज़रदारी मुशर्रफ शरीफ सब एक साथ
मनमोहन के एक बार बुलाने पर/ दिल्ली में/
पूरे मीडिया के सामने/ आतंक के खिलाफ शुरू हुयी मुहीम में
हाथ से हाथ मिला/ गले से गले लगा/ आकर/ मिलकर खड़े हो गए.
ध्यान रहे — वह ईद का मौक़ा नहीं था
जिस कारण वे इकट्ठा थे.
साल में एक-आद बार ऐसा करना उनके साम्प्रदायिक सौहार्द वाले शेड्यूल में है.


मेरी शहीदों की फेहरिस्त
फिल्मी कलाकारों, क्रिकेटरों की फेहरिस्त से ज़रा छोटी है.
फिल्मी कलाकार, क्रिकेटर्स की फेहरिस्त तो मैं डेली अपडेट करता हूँ.
— मीडिया जो है.
लेकिन शहीदों की फेहरिस्त को मैंने कई सालों से अपडेट नहीं किया.
आजादी से पहले के शहीद ही मुझे याद है.
वह भी पूरे नहीं.
क्या बाद के शहीद तन्ख्वाही थे, इसलिए उन्हें लिस्ट में ना जोडूँ?
— कारगिल में कौन-कौन शहीद हुए?
— मुंबई हमले में किस-किस कमांडो ने जान गँवाई?
— दिल्ली के जामिया नगर में किस पुलिसकर्मी की जान पर बन आई?
— भारत-पाक सीमा पर घुसपैठियों से टक्कर लेते किस-किस जवान ने गोली खायी?
अरे भाई, उन सबके नाम खोजो/ मुझे दो/ मैं लिस्ट अपडेट करूंगा.
मैं भी एक शाम नए शहीदों के नाम करूंगा.
अब शहादत का जज्बा नहीं, जो शहादत का काम करूँ?
नाम ही याद कर लूं/ शहीदों की लिस्ट ही अपडेट कर लूं.
किसी आई-क्यू कम्पटीशन में
भूले-बिसरे कोई पूछ ही बैठे.
— तब/ मुझे यदि याद रहा
— बताकर/ इस कमजोर शरीर के साथ
— जीत लूँ/ एक बड़ी धनराशि.

अँ! क्या मैं सो रहा था!!
जो मैंने देखा/ समझा — झूठ था/ इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच है?
क्या सच है —
संत साधु-समाज की भागीदारी बड़ी है देश की राजनीति में?
रामदेव और मायावती ने खोज लिया है अपना-अपना चन्द्रगुप्त?
विदेशी कम्पनियों का रंगीन पानी बेचकर बने बिगबी और लिटिलटी
बन नए हैं भारत रत्न के दावेदार?

क्या सच है —
भाजपा को मिल गए हैं चुनाव लड़ने को राष्ट्रीय मुद्दे?
कांग्रेस को फिर से सरकार बनाने को गांधी परिवार के मुरदे?

क्या सच है —
हो गयी है देश में शान्ति, सौहार्द, परस्पर भाईचारा?
या झूठ है? सरासर झूठ है?
मैं झूठ ही देखे जा रहा हूँ लगातार?
या मैं लाख कोशिशों के बावजूद जाग नहीं पा रहा हूँ?
जाग नहीं पा रहा हूँ....

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

सविता

पिये! तुम गरमी में ना आओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.

ताप से मैं आकुल-व्याकुल
ह्रदय-खग करता है कुल-कुल
पिकानद साथ रहो मिलजुल
आपका रूप बड़ा मंजुल
उसी को मेरे लिए सजाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.

आपके मौन शब्द मुझसे
न जाने कितने ही अतिशय
बात कह जाते थे रसमय
पिये! फिर से वैसी ही लय
लिए तुम मुझमय गाने गाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.


चली फिर भी तुम इक दो पग
रोकते हैं खग भी जग-जग
सजी आती हो क्यूँ री अब
मना करते हैं फिर से सब
अरी! तुम बात मान जाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

उर द्वंद्व

दो उरों के द्वंद्व में
लुप्त बाण चल रहे
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता।

नयन बाण दोनों के
आजमा वे बल रहे
बाणों की भिडंत में
स्वतः चार हो रहे।

बाणों की वर्षा से
हार जब दोनों गए
मात्र एक बाण छोड़
संधि हेतु बढ़ गए।

नाग पाश बाहों का
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह घाव दोनों के
कपोलों पर बन गए।

दोनों ही हैं शस्त्रविद
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है
दोनों सृष्टि हेतु हैं
न करें तो विनाश है।

दोनों तो हैं संधि-मित्र
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में
मनु पुत्र उत्पन्न हों॥

[एक हलकी कविता, श्रृंगारिक कविता का प्रारंभ १९८९]

रविवार, 11 अप्रैल 2010

राजा आम

एक रसीला पीला आम
दो केलों ने किया सलाम।
तीन संतरे पकड़ के लाये
चार चीकू का गला दबाये
पाँच पपीते मिलकर बोले —
छह लीची के छिलके खोले
सात सेब को चाकू मारा
आठ अनारों का हत्यारा
नौ नारियल पटक के फोड़े
दस तरबूजों पर बम छोड़े
सज़ा दो इनको राजा आम
पिचका, कर दो काम तमाम।

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

करूँ विश्वास कैसे मैं

नवजात बच्चे
लगते अच्छे
निर्विवादित सत्य है यह।
पूछते — 'अंतर'
— दिखाकर
जाति, उनका धर्म क्या है?

नहीं उत्तर पास मेरे
आपकी नज़रों में कट्टर
जातिवादी मैं रहूँगा।
चाहे चूमूँ गाल उनके
या ह्रदय वात्सल्य भर लूँ
नयन पर कुछ चमक लाये।

प्रश्न पूछूँ प्रश्न बदले :
'बीज' से बन 'वृक्ष' जाए
बीज उत्तम खोजते क्यों?

बीज के अन्दर छिपा
इक पेड़ पूरा।
पर, अधूरा —
ज्ञान ये तो।
'कल्प' ही होगा
नहीं 'विष' होने पावेगा
"करूँ विश्वास कैसे मैं?"

[कभी-कभी प्रश्न का उत्तर प्रतिप्रश्न में छिपा होता है.]

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

आखिरी जिद

मेरे ह्रदय में
पुण्य भी है पाप भी
वरदान भी है शाप भी
बिलकुल अवध के एक ढाँचे सा।

सोचता
सब नष्ट कर दूँ।
फिर से बनाऊं 'एक मंदिर'
शुद्ध, सुन्दर, पुण्य-संचित
यही बालक मन की मेरी
आखिरी जिद।

एक राखूँ
एक अर्पित।
हाथ मेरे
है खिलौना
'श्री राम भूमि बाबरी मस्जिद'।

(वैसे तो इस समस्या का हल निकल नहीं पाया है। लेकिन बालक मन तुरत-फुरत फैसला करना जानता है।)

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

पर्दा-पर्दा

बुर्केवाली माताओं बहनों!

पर्दा तब करो जब धूल भरी आंधी चले।

पर्दा तब करो जब सर्द हवा के झोंके चलें।

पर्दा तब करो जब किसी की बुरी नज़र से बचना भर हो।

पर्दा तब करो जब लज्जा शरीर में संभाले न संभले।

पर्दा तब करो जब कुकर्म किया हो कोई।

पर्दा तब करो जब संक्रामक रोग लग गया हो कोई।

पर्दा तब कतई मत करो जब फोटो खिंचवानी हो भई।

पर्दा तब कतई मत करो जब पहचानने आया हो कोई।

पर्दा तब कतई मत करो जब आप ही से बात होती हो।

पर्दा तब कतई मत करो जब लोगों की आँखों पर पर्दा पड़ा हो ।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

पुलिस-पीड़ित

वाह रे आज का प्रजातंत्र / घूमते सब गुंडे स्वतंत्र / हाय, फैला कैसा आतंक / लगे हैं रक्षक-भक्षक अंक / पुलिस पर एक बड़ा है मंत्र / किसी को पीट करें परतंत्र / घोर है उनका अत्याचार / रोयें सब जन-जन हो लाचार / बनाया था जिनको सरताज / वही सर चढ़े हुए हैं आज / लूटते लाज करें दुश्काज / गिरी न अब तक उनपर गाज।

प्रभु ! एक विनती है सुन लो / पुलिस को छोडो या धुन दो / हमें तुम ऐसे रक्षक दो / जो भक्षक के भक्षक हों।

या फिर,

करें ये राज करें ये राज / शीघ्र आयें हरकत से बाज़ / नहीं तो हो जाएगा नाश / हमारा ये सुन्दर समाज।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

भक्तकवियों की कारिस्तानी

कवि हुआ पस्त, संस्कृति मंच पर हिला कमर / कह गयी नग्न नारी, rahne में नहीं कसर/ आज की सभ्यता परम्परा विकृत बर्बर / दिख रही आधुनिक किंचित वसना मुझे निडर।
पर्तिपल परिवर्तित रीधान, हटता दुराव / वस्त्रों से बाहर आने का बढ़ रहा चाव / संकोच शील मर्यादा संयम का विधान / ढीला पड़ता जा रहा माजिक संविधान।
कवि का कौशल ! कामुकतानल रत आठ प्रहर / उद्धत बालक-बालिका सकल हर गाँव शहर / बन रहा अवस्था अनअनुकूल सबका स्वभाव। / मिट रहा उचित-अनुचित का अंतर भी, बहाव / आया है गीतों के द्वारा दो राय नहीं / गंभीर विषय पर भी कर लेते हीं-हीं-हीं।
कामोदगार विस्तार विकल मम अंतस्तल / उत्तेजक गीतों का पीते नर-नारी गरल / दोलन नितम्ब करने वालों की नयी पौध / गीतों पर थिरकाती उरोज, रहता न बोध।
खुल रहा कौन-सा अंग कौन-सा हैं बिम्बित / वस्त्रों में, टांगों को फैंके करके लंबित / वासना केंद्र बन गया मात्र नारी शरीर / है छिपा रही उरुओं की बस छोटी लकीर।
छोटे बालक-बालिका हमारे अब घर पर / अश्लील गीत गाते हैं सुनते मात-पितर / होते हैं कुपित वृद्ध, लेकिन उनपर प्रभाव / पड़ता बिलकुल भी नहीं बना जिद्दी स्वभाव।
कुंठित है यौवन आज तपित मन काम अनल / हर पल चिंता रत जीवन कैसे जियें सरल/ हर विषय मनन से पूर्व करे मस्तिष्क वरण / नारी में बिन वस्त्रों की कल्पना का चित्रण।
उरु कसा पेंट हो विपर्यस्त परिधान वक्ष / अथवा छोटे निक्कर के साथ बनियान, भक्ष / करने की सोचा करता हूँ नारी शरीर / टिक जाते चख क्यों देख हरण द्रोपदी चीर।
टीवी में कनु के द्वारा उत्थित गोपी वसन / नारी को नंगा देखन के अभ्यस्त नयन / हो चुके, चाह कर भी न छूटती है आदत / धर दिया ताक पर धर्म , पुण्य कर दिए विगत।
ले रहे श्वास अंतिम लटके हैं पाँव कबर / फिर भी फिल्मी वृद्धों की जिह्वा लपर-लपर / करती स्ट्रक्चर देख बेटी का उत्तेजक / लाते फिल्मों में दिखलाते उरु-वक्ष तलक।
फिल्मी निर्माता नव कन्या को दिखा सपन / मामला व्यक्तिगत ठहराता कर संग शयन / फैशन परेड में हो ऐय्याशों की जमघट / 'मोडल सुप्रीम' जजमेंट किया करते लम्पट।
है 'प्रतिस्पर्धा' आवश्यकता आधुनिक समय / है सता रहा नारी को भी 'पिछडन' का भय / सो लगा दिया हैं दांव स्वयं का ही शरीर / करवाने को तत्पर रहती खुद हरण-चीर।
क्षुद्रता प्रतिष्ठित करने का अब चला चलन / है स्टिकी चेपी वाली नारी सम्मानित जन / 'उपभोग वस्तु' आवश्यकता होती मौलिक / है भोगवादी कल्चर की नारी सिम्बोलिक।
मैं क्यों न कहूँ कटु उक्ति, देखता हूँ सब कुछ / अब नहीं हुवे संकोच देखने में दो कुच /कर रहे श्रवन हैं आप, स्वयं करता वाचन / आनंद ले रहा स्यात आपका रमता मन।
कटु सुनकर भी 'चिकने बैंगन' प्रतिक्रिया हीन / अपशब्द नहीं कहते, मनोरंजन करें बीन / महिषा समक्ष मैं बजा गाल करता बकबक / उसका होता मन-रंजन मेरा शुष्क हलक।
आदर्श आज बच्चों के फिल्मी कलाकार / जाने-अनजाने डाल रहे दूर संस्कार। अब नहीं फिल्म उद्देश्य मात्र मन का रंजन / शिक्षा प्रसार का व्याज, सभ्यता का भंजन।
फिल्मों में प्राय 'फादर' को महिमामंडित / कर सभ्यशिष्ट दिखलाते पर जोकर 'पंडित'/ दुष्कर्म रोकने के निमित्त दुष्कर्म घटित / दुष्कर्म दिखा दर्शक को करते आमंत्रित।
भड़काते हैं केवल उनकी वासना भूख / दुष्कर्म देख जाता संवेदन सभी सूख / फिर सरेआम ह्त्या पर भी रहता दर्शक / वह खडा वहीँ रहता है इज्जत लुटने तक।
जो जमा हुआ था वर्षों से सत संस्कार / घिस गया रगड़ने में सारा उसका उभार / पड़ गए गले में तब से ही इतने बवाल / अश्लील किसे अब कहें? — यही उठता सवाल।
है ब्रह्मचर्य को तौल रहा फिर फिर संयम / पाता बिलकुल भी नहीं संतुलित अंतर मम। / जो रहा सदा से ही विषयों में अनासक्त / संचारित ह्रदय से होता था जो शुद्ध रक्त।
घुल गए प्रतीची से आकर उसमें विकार / संगीत पोप पर थिरक रहे पग, व्यभिचार / करता रहता भीतर ही भीतर अवचेतन / मस्तिष्क , पटकता हाथ-पाँव करता लेतन।
दे रहा तर्क आज का युवा — "क्या है अनुचित? / है कौन व्यक्ति जो नहीं काम से अब कुंठित? / अब की ही करता बात नहीं देखो अतीत / कितने श्रृंगारिक रच डाले पद, चित्र, गीत।
जिसको कहते भगवान् कृष्ण था महारसिक / सौलह हज़ार रानियाँ धरा करता।" 'धिक्-धिक्' — करता मेरा मन सुनकर अपलापी अलाप / कवियों ने ईश्वर पर खुद का थोंप दिया पाप।
रच रहे तभी से कविगण किस्से मनगणंत / मन के विकार का आरोपण करते तुरंत। / भक्ति के बहाने हुआ बहुत कुछ है अब तक / हो रहा आज भी और ना जाने हो कब तक?
ईश्वर की भक्ति हो अथवा दे...श की भक्ति। / विकृत होती जा रही अर्चना की पद्धति। ....
पण्डे भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने निमित्त / भक्ति में दिखलाते अपने को दत्तचित्त/ घंटा निनाद ओ' थाली करके इधर-उधर / ईश्वर को भोग लगा पर खुद का बढे उदर।
... शेष बाद में ...

उलटबांसी

यहाँ से वहाँ तक

जामा मस्जिद के पास
एक से अधिक मीट की हैं दुकान
मुर्गे जैसे छोटे जीवों के शव-शरीर
टंगते — ललचाते मुल्लाजी।

भैंसों गायों बकरों का सर
सजने के लिए दुकानों पर
अल्लाह मियाँ ने खुद कुरआन में लिखवाया।

अब तो पण्डे भी देवी-देव
पर, पशु-पक्षी की बलि चढ़ा
प्रसाद रूप में बंटवाते / खाते
बतलाते — वेदों में है उल्लेखित यह।

'सिक्ख-पंथ' सरदारों का
प्रिय भोज — 'आमलेट' अंडे का
'गुरु-ग्रन्थ साहिब' में नानक ने
मेथड है दिया —
"मक्के दी रोटी सरसों दा साग साथ"।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

आदर

"भूत के दो पाँव उलटे
हुआ करते हैं।"
सुनी यह बात — नानी से।

समझते हैं लोग
तबसे
मेरी दृष्टि आदर से
सभी को देखती है।
पाँव पर झुक्की
हुई 'रेस्पेक्टी है।

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.