रविवार, 4 अप्रैल 2010

पुलिस-पीड़ित

वाह रे आज का प्रजातंत्र / घूमते सब गुंडे स्वतंत्र / हाय, फैला कैसा आतंक / लगे हैं रक्षक-भक्षक अंक / पुलिस पर एक बड़ा है मंत्र / किसी को पीट करें परतंत्र / घोर है उनका अत्याचार / रोयें सब जन-जन हो लाचार / बनाया था जिनको सरताज / वही सर चढ़े हुए हैं आज / लूटते लाज करें दुश्काज / गिरी न अब तक उनपर गाज।

प्रभु ! एक विनती है सुन लो / पुलिस को छोडो या धुन दो / हमें तुम ऐसे रक्षक दो / जो भक्षक के भक्षक हों।

या फिर,

करें ये राज करें ये राज / शीघ्र आयें हरकत से बाज़ / नहीं तो हो जाएगा नाश / हमारा ये सुन्दर समाज।

1 टिप्पणी:

  1. प्रतुल वशिस्ठजी,
    इतनी धोबी पछाड़ मरने की क्या जरुरत थी महाराज. कोई द्वंदवश थोड़े लखा था मैंने. टाइम काफी कम मिल पा रहा है, आपको जवाब मेल से भेजना चाह रहा था पर, मेल सेंट नहीं हो पा रही थी. आपके ब्लॉग पे बताने गया तो वहा भी एक बार में बात नहीं बनी, इसलिए पोस्ट लिख के निवेदन किया था. पश्न-प्रतिप्रश्न की बात तो दिमाग में आई ही नहीं थी.
    सिर्फ तीनो ज़वाब ही दिलो-दिमाग से ज़ल्दबाजी में लिखा था.
    " तार्किक विद्वान् अमित शर्मा जी!
    @धोबी पछाड़ दे रहे है, या पोदीने के झाड पे चढ़ा रहे है."
    यह तो सिर्फ ठिठोली थी. दोस्त साथ में बैठा था ,उसने इस बात पे मजाक करली,मैंने भी आप से पूछ लिया.गलती हो गयी आगे से ध्यान रखूँगा.

    आपका स्नेहाकांक्षी
    अमित

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नयी दिल्ली, India
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