मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मरी डायना मोटर अन्दर

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[राजकुमारी डायना जी की स्मृति में....]
[कविता में भागती कार की तरह से तीव्रता है, मोड़ हैं, कोशिश की गयी है शब्दों की बुनावट के माध्यम से उस समय को चित्रित करने की]

मरी डायना
मोटर अन्दर
______भाग रही थी
______जान छुड़ाकर
___________फोटोग्राफर 

___________करते पीछा 

_________________चित्र खींचने 

_________________उसके तन का. 

_____________प्रेमी उसका 

________अल फयाद
________डोडी, भी उसके
____________साथ-साथ था 

____________पवन चाल से 

________________दौड़ रही थी 

________________कार, संतुलन 

_____________________संवाहक का 

_____________________बिगड़ गया, पथ 

_________________मोड़, अचानक 

_________________आया, सम्मुख 

_________________अकस्मात् था. 

____________फटी ब्रेस्ट की 

____________नस भीतर ही 

________स्राव रक्त का
________होते-होते
___________होश उड़ा ले 

___________गया तभी ही. 

________खींच रहा था 

________फोटोग्राफर
___________फिर भी उसकी 

___________मरी देह का 

______________चित्र, दीखने 

______________वाला कर्षक 

________एक विशेष 

________एंगल से जो कि 

___________कल को शायद 

_____________खूब बिकेगा 

________________लाख-लाख 

___________डॉलर में — छपने. 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

स्वीट पोइज़न

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उच्छृंखलता की प्रतीक थी 
महिलाओं के लिए ठीक थी 
________'लीक तोड़कर भागो बाहर' 
________उसकी केवल यही सीख थी. 
म्रदु भाषी कहने भर को थी 
स्वीट पोइज़न प्रिंस पीक थी. 
________माँ सासू एलिजाबेथ की 
________दबी-दबी पर तेज़ चीख थी.
उच्छृंखलता की प्रतीक थी 
महिलाओं के लिए ठीक थी.


[देवी डायना को आदर्श मानने वाली महिलाओं को समर्पित]

रविवार, 29 अगस्त 2010

रिआया मानसिकता

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"मदर!
तुम्हारी देह बूढ़ी
और डायना की ज़वान थी"

भक्त और प्रेमीजन
समीप के
बुढ़िया के नहीं
उसके और उसके मिशन के
नाम पर मिली सुविधाओं के आसक्त हैं.

झन झन
बरसते धन की
उनको निरंतर रखती पास है.
उनकी यहीं आजीविका है.
यहीं धर्म-प्रचार है.

ऐसे ही
विश्वजन
डायना के नहीं प्रेमी.
पुरुषगण
उसकी नंगी देह के आकर्षण में
उत्तेजक स्ट्रक्चर से मुग्ध हैं.

नारियाँ
जगत भर की
उसकी उच्छृंखलता की शुरुआत की प्रशंसक हैं.

'राजसी वधु' नाते
स्थापित किया 'आदर्श' जो उसने
रिआया मानसिकता स्वीकारती है उसको.

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

'प्रचारिका' — क्रिश्चेनिटी की

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जन्म शती पर.... [जन्म २६ अगस्त, १९१०]
सुना है मैंने 
आपने अपने 
जवान और बूढ़े 
हाथों से खूब धन लुटाया 
ग़रीबों पर, दुखियों पर, लाचारों पर. 
भोले, भक्त, निरक्षरों को
शिक्षा दी 'ज्ञान'* की 
सेवा की निर्लिप्तता से 
निःस्वार्थ मन की भावना से. 


फिर भी निर्धनता दूर नहीं हुई 
आपके आसपास की. 
दिमागी तौर पर कोई विकसित नहीं हुआ 
मानता रहा फिर भी तुम्हें देवी 
अवतारी व्यक्तित्व एक. 
मिली सेवा जिसको भी 
बन गया तुम्हारा ही 
मतावलंबी. 


मरने पर तुम्हारे 
लुटाये धन से लाख गुना 
खर्च हो गया तुम्हारी ही लाश पर. 


तिरंगे में लपेटे तुम्हें 
रोते सुबकते रहे 
[या मात्र दिखावा ही सही} 
असंख्य जन संसार के. 


— यह कैसा ज्ञान था
जो मोह से न कर पाया अलग 
तुम्हारे ही भक्तों को. 


ज्ञान बंधना नहीं 
ज्ञान तो मुक्ति है. 
खोलना है 'पलकों' का 
टिकाना नहीं फिर भी 
दृष्टि को जड़ता दे. 
खोलना है 'शब्दों' का 
अर्थ तक पहुँचकर  
व्यंजना तक जाना है. 
खोलना है 'ह्रदय' का 
त्याग औ' वियोग आदि 
में ही आनंद को पाना है. 


परन्तु 
मदर तुमने 
विस्मय में डाल दिया है हमको 
संत कहने में संकोच है मुझको 
हमारे लिए तुम थीं 
'माँ' — स्त्री होने के नाते. 
'प्रचारिका' — क्रिश्चेनिटी की. 


* 'ज्ञान'  से मतलब यीशु-संबंधी ज्ञान से है. 
[जिसके जितने अनुयायी या भक्त होंगे, वह उतना ही बड़ा संत और सिद्ध माना जाएगा. वस्तुतः साधक ही सिद्ध को पुजवाते हैं. यदि साधक ही न हों तो सिद्धताई धरी ही रह जायेगी...]

बुधवार, 25 अगस्त 2010

गद्दार



गौरव अपने ..........आखिरकार
बने .....बड़े दिन में ..........H R.
हँसमुख पहले था ...... किरदार
अब ..... वनमानुस का अवतार.


चुप-चुप रहना, छिप-छिप हँसना
हैं सचमुच........ अदभुत सरदार.
सीमा....विप्रा .....पाठ.... पढ़ातीं
"कम बोलो...कम खोलो ....द्वार."


पहले .....पाँव ..... फैला लेते थे
अब .... सिमटा ...उनका संसार.
चैटिंग कोना ...... नहीं चहकता
मोबाइल पर ........ होता प्यार.


विप्रा और सीमा की ..... आँखें
बनी हुई हैं ............... पहरेदार.
दोस्त पुराने ......... बोला करते
प्रेम भरे स्वर में ...... "गद्दार”.





[अपने साथी गौरव वीर सिंह 'गिल' जी पर लिखी गयी कविता, जो अब HR मेनेजर हो गए हैं.] 

सोमवार, 23 अगस्त 2010

ऊर्जा की सार्थकता

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चौराहे के
एक किनारे पर
बैठी कुतिया
चाटती, सहलाती
स्वान-कर्षित अंगों को
अब लगाए है आस
फिर से किसी का उद्दीप्त करने को विकार.

होना नहीं चाहती वह
मातृत्व बोझ से बोझिल
सो नहीं समझती वह
या समझना नहीं चाहती वह
उस विकार से जन्मे सुख को.

हाय!
कुचल डाला
अधो भाग उसका
किसी दैत्य से वाहन ने
पहले ही खून से लथपथ टायरों से.

न अब
किसी विकार को
पनपने देने की इच्छायें हैं शेष
और न बलवती है वह अनवरत प्यास
उस स्वान के प्रेम में अंधी हुई कुतिया की.

पर वह वाहन
निश्चिन्त-सा क्यों है?
समझना नहीं चाहता वह —
'एक को आहत कर
दोष उसी पर मढ़
और अब दूसरे की बारी पर
निश्चिन्त गुज़र कर'
अपनी 'ऊर्जा की सार्थकता'!

शनिवार, 21 अगस्त 2010

पुरानी कविता

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[ये कवितायें कभी मैंने नई कविता के विरोध में लिखी थीं और उसमें अपने बचपन के चित्र डालकर खुश हुआ था. मैंने अपने इस प्रयास को 'पुरानी कविता' नाम दिया था.]
[१]
"उई"

छील सरकंडा
लगा था ब्लेड
ओड़े हाथ में.
'लाल' आया खून
मैंने —
'उई' बोला साथ में.

[२]
टोबा

ले गया 'टोबा'
कलम से
वो मेरी दवात से.
शरारती है
खींचता अब
बस्ता मेरा लात से.

[३]
सुलेख

तख्ती लिखी थी
इसलिए तो
अब हमारा है सुलेख
रोज़ाना गाची मली थी
इसलिए तो
नये लिखकर
जलाता हूँ.
मैं पुराने लेख.

[मेरे बचपन के साथी 'दीपक', 'मुन्नम' और 'चाँद' के साथ बिताये लम्हों को याद करते भाव-चित्र]
ये सभी सौलह वर्ष पुरानी रचनाएँ हैं.

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

आइये और ......"बैठ जाइये"

pratulvasistha71@gmail.com

भारतीय लोकसभा में सबसे अधिक बोला जाने वाला शब्द "बैठ जाइये" है.
कहते हैं सभ्य वह होता है जिसे सभा में बैठने का सलीका आता हो.
'सभ्य' शब्द 'सभा' से निर्मित है. इसका सीधा अर्थ है सभा में बैठने योग्य. 
सभा में वही बैठने योग्य है जिसे 'सभा' में बैठने के तौर-तरीके आते हों. 
देश की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण सभा 'लोकसभा' जहाँ नीति-निर्धारण और बनी-बनायी नीतियों की उपयोगिता और प्रासंगिकता पर समय-समय पर बातचीत होती है, नीतियों के असफल होने पर उसमें सुधार करने के लिए संशोधन भी किये जाते हैं. हम नयी नीतियों के निर्माण के लिए प्रयास भी होता देखते हैं. प्रयास के रूप में .... वही धमाचौकड़ी, वही जूतम-पैजार, वही मारामारी, वही गाली-गलौज, वही आरोप-प्रत्यारोप जिसे शुरू हुए संसद-सत्रों में आम-जनता देश के कर्णधारों के बीच होते देखती है.
एक विचित्र-सी स्थिति देखता हूँ लोकसभा में. ...
हाँ यह सही है कि अपनी बात अपनी बारी पर कही जाए, इससे सभा में अराजकता नहीं फैलती. मुद्दे पर बात भी हो जाती है. 
लेकिन जहाँ बहुमत वाली सरकार जंगली कुत्तों* की तरह विपक्ष पर पिल पड़ी हो तब मन में तमाम तरह के सवालों को लेकर आये विपक्षी सांसद  अपने को बेफकूफ बनता देख बौखला जाते हैं. और समय-असमय असभ्यता कर बैठते है.

हाँ, नेताओं में अधिक धीरज होना चाहिए. बिलकुल सही बात है. यह धीरज कभी-कभी इतना लंबा हो जाता है कि सभा-विसर्जित हो जाती है, और यदि यह धीरज और धैर्यवान हुआ तब तो पूरा सत्र ही समाप्त हो जाता है.

"धैर्य" ....... विपक्षी पार्षद "धैर्य".
"धैर्य" ....... विपक्षी विधायक "धैर्य".
"धैर्य" ....... विपक्षी सांसद "धैर्य".

"बैठ जाइये" और अपनी बारी का इंतज़ार करिए.
अपनी बात शान्ति से कहिये. अभी 'ओनेरेबल मिनिस्टर जी' बोल रहे हैं.......... बैठ जाइये.

"बैठ जाइये" ........ "बैठ जाइये"  ..........."बैठ जाइये"
शोर मत करिए, 'बैठ जाइये" .......... "बैठ जाइये" .
यह देश की सबसे बड़ी सभा है ........ "बैठ जाइये".

* एक शेर का शिकार तो छह जंगली कुत्ते भी मिलकर कर लेते हैं. इस बात के मद्येनज़र ही विपक्षी सांसद को दबाने की बात की है. इन जंगली कुत्तों में ..... 'मंत्री', 'स्पीकर' का पक्षपातपूर्ण-व्यवहार, 'मार्शल' का सतत खौफ, सत्ता-पक्ष का भूतिया माहौल (हौवा), अपनी पद-निरस्तता का डर शामिल हैं.]

हमें इस सभा से ही अपेक्षा रहती है कि सभ्यता बरकरार रहे और वहीं............यह ......... असभ्य..ता.

[लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार को समर्पित]

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

कीचड़

[बारिश में चारों तरफ पानी और कीचड़ ने मुझे अपने अंतरतम में बने कीचड़ की याद करायी. और फिर मैं अपनी नज़रों में शर्म से पानी-पानी हुआ.]

किन शब्दों में स्वीकार करूँ
अपराध भावना मैं मन की
.................."मैं पापी हूँ"
— बस इतने से न बात अलम.

'रो पड़ी'
विवश होकर गुडिया.

आँसू आये
आँसू में घृणा
घृणा मुझसे
.......ना, नहीं
शायद, मेरे दुर्भावों से.

आँसू में
'अपनापन अभाव' की पीड़ा
किसको अपना वह कहे यहाँ
हर वस्तु उसे
..............'मौसी घर' का
..............'शो-पीस' लगे.

हमने अपनेपन का
अन-अर्थ बना डाला खुद ही.

वह नहीं बोलती
............ अथवा
है नहीं ज़रुरत
— सचमुच
उसको किसी वस्तु की.

कैसे मानूँ —
वह खुश है,
— स्वतंत्रमना है.

रवि अस्त
घूमता हस्त
पाप का तम में
छूने को गुड़िया के कपोल
— वात्सल्य किवा अपराध सोच?

रवि उदय अभी होने में बाक़ी
एक प्रहर
कालिमा और घहराती
जाती है सत्वर.

'पापों के मेरे नहीं थाह'
चाहे लिक्खूँ दीवारों पर
— शान्तं पापं —
हर जगह स्वयं के सम्मुख
वह नहीं शांत होते हैं पर
(सीमित कविता तक
वह तो केवल).

स्पर्श कर रहा था मैं
सारे तोड़ बंध
संयम, मर्यादा, लोक-लाज,
बकवास जान पड़ते थे.
— गुड़िया करे शयन —

पड़ गयी पता
'आवश्यकता'
क्या है गुड़िया की.
जो रही छिपा
— लज्जा कारण —

'मुझे छोड़ वहीं आओ (वापस)'
— पीड़ित करते हैं शब्द —

वह तप्त अश्रु
नन्हें हाथों से पोंछ रही.

पर,
पोंछ नहीं पाती
विश्वासों के
नयनों की
'कीचड'

[शायद मैं अपने मन की चिकित्सा करने निमित्त यह भाव सार्वजनिक कर रहा हूँ.]

शनिवार, 14 अगस्त 2010

मातृभाषा : प्रयोग से विकास की आशा

"जब तक मातृभाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जाएगा, तब तक पाठ्य-पुस्तकें कैसे लिखी जायेंगी, नयी शब्दावली कैसे बनेगी? भाषा का विकास उसके प्रयोग से ही होता है."
— विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर

यह हमारे देश का दुर्भाग्य व उसकी विडंबना ही कही जायेगी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पचास साल बाद भी अंग्रेज़ी-प्रेम में कोई कमी नहीं आई है. अंग्रेज़ी-भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने के सम्बन्ध में अंग्रेज़ी भाषा के पक्षधर निम्न तर्क देते हैं —
[१] सभी जातीय भाषाओं में अत्यंत सीमित शब्द-भण्डार हैं जो विभिन्न क्षेत्रों, विषयों आदि का ज्ञान देने में असमर्थ हैं.
[२] भारतीय भाषाओं में ज्ञान, विज्ञान की उपयोगी पुस्तकों का अभाव है जिससे बच्चों का ज्ञान अधूरा रह जाता है.
[३] सच्चे अर्थों में अंग्रेज़ी भाषा विश्वव्यापी है. इसके माध्यम से ज्ञान अर्जन में अधिक सुविधा होती है.

............ इन तर्कों पर यदि ध्यान से विचार किये जाए तो ये सारे तर्क निरर्थक व थोथे सिद्ध होते हैं. यदि किसी भाषा को अनुपयोगी मानकर दूसरी भाषा को महत्व दिया जाए तो उस भाषा का न तो विकास हो सकता है और न उसके शब्द-भण्डार में वृद्धि हो सकती है.                                                            [यह मेरे मौलिक विचार नहीं हैं]

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

मातृभाषा अभाव : ज्ञान का रिसाव

"मातृभाषा द्वारा शिक्षण के अभाव ने भारत को निश्चय ही विश्व के सभ्य देशों में, अत्यंत अज्ञानी बना दिया है. यहाँ उच्च शिक्षा-प्राप्त व्यक्तियों की संख्या काई-भर है जबकि अशिक्षितों की अपार जल-राशि है."
— श्रीमती ऐनी बेसेंट

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

मेरी दो अ-कवितायें

[१]

मेरी 'नमस्ते' का भूखा

जब भी उससे
नयन मिलते हैं
कुछ अपेक्षा से
उसके नयन ठिठक जाते हैं.
चाहते हैं कि
मेरे नयन
पल भर को
पलकों के हाथ खड़े कर
तपाक से 
गिर पड़े
अपने क़दमों में.

ऐसे में
उसके भूखे कान
सुनने को उतावले
रहते हैं कि
मेरा मुख
उसके कमेन्ट बॉक्स में
'नमस्ते' का
ऑडियो मैसेज छोड़ जाए.

[२]

मेरा बड़प्पन

मेरे बाद जन्मे लोग
मेरी बात क्यों नहीं मानते?

मेरे अनुभव
मेरी उपलब्धियों से लाभ क्यों नहीं उठाते?

क्यों नहीं बैठते
आकर मेरे पास?

क्यों बनी रहती है
हमारे बीच
दो पीढ़ियों की दूरी?

मेरे मन में
इन सभी उठते सवालों के बीच
माँ की आवाज़ ने दस्तक दी .....
"बेटा! मंदिर जाना,
पुजारी के पाँव छूकर आशीर्वाद ले लेना.
भगवान् चाहेगा तो इस बार ....."

तपाक से मेरे भीतर
बैठे बड़प्पन ने जवाब फैंका —
"नहीं माँ, अपने मंदिर का पुजारी
मुझसे उम्र में छोटा है."

मातृभाषा प्रयोग मतलब मानसिक स्वतंत्रता

"केवल एक ही भाषा में हमारे भावों की व्यंजना हो सकती है, केवल एक ही भाषा के शब्दों के सूक्ष्म संकेतों को हम सहज और निश्चित रूप में ग्रहण कर सकते हैं. यह भाषा वह होती है जिसे हम अपनी माता के दूध के साथ सीखते हैं, जिसमें हम अपनी प्रारम्भिक प्रार्थनाओं और हर्ष तथा शोक के उदगारों को व्यक्त करते हैं. दूसरी किसी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना - विद्यार्थी के श्रम को अनावश्यक रूप से बढ़ावा देना ही नहीं, बल्कि उसकी मानसिक स्वतंत्रता को भी पंगु बना देना है."
— अंग्रेज़ी साहित्यकार ब्रेल्सफोर्ड

बुधवार, 11 अगस्त 2010

मातृभाषा : माता का दूध

"मनुष्य के विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही आवश्यक है जितना कि बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध. बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढता है, इसीलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं 'मातृभाषा' के विरुद्ध पाप समझता हूँ."
— मोहनदास करमचंद गांधी

शनिवार, 7 अगस्त 2010

जीवन दर्शन

मेरे पिता का आज जन्म दिवस है और मैं उनके जीवन दर्शन को व्यक्त करती उनकी आत्मकथात्मक कविता को आपके सामने रख रहा हूँ. उनके मानस को जहाँ तक मैंने समझा उसे अपने शब्दों में ज्यूँ-का-त्यूँ उकेरने का प्रयास किया है.

 
















आज के ही दिन
मुझे मुक्ति मिली थी
माता के गर्भ से
और आज के ही दिन
मुझे होना है
व्यवसाय से मुक्त.

उस मुक्ति पर
जिसे जन्म कहते हैं.
मुझे ध्यान नहीं
कोई बड़ा कार्यक्रम
हुआ था या नहीं.
हाँ, इकट्ठे हुए होंगे अवश्य
मेरे माता-पिता के
नाते-रिश्तेदार, सगे-संबंधी
पास-पड़ौस के रहने वाले लोग
बँटे होंगे लड्डू
'कि लड़का हुआ है'.


वैसी ही खुशी का
यह दूसरा अवसर है
होते हैं खुश वे भी
जो शत्रु मानते हैं मुझे
कि 'अहा, कट गये हाथ-पाँव
पत्रकारिता-जगत से
कि नहीं होगा करना
लिहाज़ 'पंडितजी' की
'मौजूदगी का'.
किन्तु, खुशी दिखलाते हैं
वे भी जो आत्मीय हैं
उनकी खुशी मुझे प्रसन्न करने को है.
याद करते हैं सभी
मुझ संग बितायी घड़ियाँ
चाहते हैं अभिव्यक्त होना
आँसुओं के साथ शत्रु भी
'कि नहीं रहे, अब हम तुम्हारे बैरी.
स्नेही जन
'हनुमान की भाँति
छाती फाड़कर' दिखलाना चाहते हैं
अपने अमूर्त स्नेह की छवि.
ऐसे समय में जब
मिलने वाली है
एक अपार धन-राशि.
— जो किसी मंत्री द्वारा
किये घोटाले की रकम
के मुक़ाबिल
कुछ भी नहीं - कुछ भी नहीं .


आ रहे हैं पास
मिटा रहे हैं गिले-शिकवे
'क्या कारण है, क्या कारण है'
— ऐसा संदेह करना स्वभाव में
नहीं रहा मेरे.
मै देता हूँ प्राधानता.
हमेशा से आज की मित्रता को.
आज की सच्ची खरी निष्ठा को.
प्रेम-पूर्ण व्यवहार को.
शिष्ट आचार को.
नहीं याद करना चाहता तब
किसी समय रही
अपने मध्य की
'कटुता' को.
समाज के कुछ लोग
आज भी मुझे
अपना प्रतिद्वंद्वी मान
तनाव झेल रहे हैं
चाहते हैं मुझको भी
तनाव में रखना
और मैं
रहता हूँ जैसा वे चाहते हैं

फिर भी
जब मित्रवत बना रहता व्यवहार मेरा
तब वे भी शायद
कटुता भुला चुके होते हैं.


आज मैं
सभी क्षेत्रों में अपनी
अब तक बनी
दूरस्थ मित्रता
और समीपस्थ दुश्मनी
को एकरूप कर लेना चाहता हूँ.
मैं नहीं चाहता
कि कभी भी और किसी भी
व्यक्ति द्वारा डाला जाये
सामाजिक कार्यों में व्यवधान.


मैं हमेशा से विद्वानों की
विद्वता सम्मुख
रहा नतमस्तक
पाया अपने को
उनके सामने
वैसे ही
जैसे दरवाजे पर दस्तक
जो होती है धीरे से
खट-खट खट-खट — जिज्ञासापरक.


पत्रकार दस्तक ही तो है
जो जानना चाहती है
कि बैठा है कौन
बंद दरवाजा किये
कमरे के भीतर.


एक समय
जब मैं था सफल प्रूफरीडर
समाज में नहीं चल सका
वह गुण, वह धर्म
दोषों को ढूँढ़ना, छाँटना
व्याकरणिक त्रुटियों पर चिह्न लगाना
लेख-निबंधों तक ठीक है.


'व्यक्ति गलतियों का पुतला है' —
जैसे पाश्चात्य कथन,
'नकारात्मक सोच लिये
आदर्शविहीन वाक्य' — मैंने नहीं गढ़े.

मैंने तो माना है
व्यक्ति को संबंधों का वृक्ष
जिस पर लगते भाँति-भाँति के फल.
किन्तु उनके फलों की मधुरता
'स्वार्थ, संदेह' जैसे मीतनाशक
भावों से दफा हो जाती है.


बचपन के दोस्तों को
जिनके साथ खेला, खाया, बड़ा हुआ
आज
दौड़ती भागती गाड़ियों के बीच
इस शहरी सभ्यता में भुला चुका हूँ.
कौंध जाती है कभी
मानस पटल पर
उनकी देहाती छवि
जब देखता हूँ सड़क के
बीचों बीच पार करते में
बिदका हुआ देहाती-व्यक्ति
किसी 'मारुती' या 'सूमो' के आगे.


क्षण में तैर जाते हैं चित्र
एक एक कर
मेरे अपने निजी विकास के
उठते स्टेटस के
स्कूल के, कोलिज़ के,
विवाह के, व्यवसाय के,
अभिन्न मित्रों के, सहयोगियों के.


आज ढंग से हर चित्र को
देखने का अवसर है, फुर्सत है.
'मैं पाँचवी दर्जा नहीं पढ़ा
मुझे याद है वह दिन
जब मेरा सीधे चौथे से
छठे दर्जे में दाखिला हुआ था.
देश भर में बँटी थी मिठाइयाँ
यह देश की आजादी का दिन था.
उसी बरस शिक्षा की
अनिवार्य भाषा
'उर्दू' समाप्त हो गई.



किसनचन्द्र मिश्र
पड़ोसी 'जीजी' का लड़का
उम्र में चार बरस छोटा
एक ही साइकिल पर
बैठ, जाते थे —
जब किया इंटर.

हो गया विवाह
जीवन का प्रवाह
सतत गतिशील
संघर्ष क्षेत्र ससुराल बना.

खोला विद्यालय
लिया सहयोग विद्वानों का
बुजुर्गों का, सेठों का.
बाद में
अर्थाभाव का शिकार हुए
मेरे दो बच्चे
सुधा और सुधीर.

पत्नी कहती है उसमें
लापरवाही थी मेरी.
पूरे समाज को परिवार-सा
माना है प्रारम्भ से
वह नहीं समझ पाई
आज तक.


ईमानदारी से जी पाना
कठिन है आज के समाज में — सच है.
शायद पुत्रों को, बहुओं को
शिकायत है आज भी
मुझसे — उनके लिये मैंने अधिक
नहीं किया.

ईमानदारी से स्वाभिमानपूर्वक
जीते हैं आज वे
क्या ये संस्कार पर्याप्त नहीं.



विद्याराम मिश्र
जो मुझे 'दादा' कहते हैं
मेरे पुत्रों द्वारा
'गुरु' रूप में आज भी पूजे जाते हैं.


मुझे अपनी ही दृष्टि में
महत्वपूर्ण बना दिया है
जिन अपनों ने
उनमें महेंद्र शर्मा और सतीश सागर
प्रमुख हैं.
मिला है मुझे वर्षों से
अपने बड़ों का निच्छल प्रेम.
शिवराज जी, लोकेन्द्र जी
ने कमी नहीं खलने दी
बड़े भाई की.

मित्रों में सबसे अधिक
निभायी मित्रता मित्तल जी ने
सहयोगी रूप में वे
सबसे पहले आगे आए रहे हैं.


पुत्रों में प्रिय हैं मुझे सभी
पर सबसे अधिक अपेक्षा
मुझे पाँचवे पुत्र से है
जो जुड़ा है लेखन से
शायद वही
मुझे शताब्दियों तक
जीवित रख सके.

किन्तु उनकी लापरवाही
या कहूँ कवि मष्तिष्क ने
उसको कदम-कदम पर दी है असफलता
मैं कहता हूँ "प्रतिभा अवरोध
बर्दाश्त नहीं करती"
कि उसकी हिम्मत बढे.
आत्म-विश्वास बढे.
पर वह व्यंजना कर
उसकी / मान बैठता है
अपने में अकूत प्रतिभा
करने लगता है मूल्यांकन
छिद्रान्वेषण
— अपनी ही कसौटी पर.
अतः भविष्य ही उसका निर्णायक है
कुछ कह पाना उसके विषय में
कठिन है. जटिल है.


समस्त जीवन के अनुभवों का
निचोड़ लेकर समाज के
बुद्धिजीवी वर्ग से
एक ही अपेक्षा पाले हूँ
कि
"समाज-हित के
कार्यों में सहयोगी बनें
........... प्रतिस्पर्धी नहीं.
धार्मिक कर्मों की व्याख्या करें
.......... अवहेलना नहीं.
नैतिकता का प्रसार करें
........... राजनीतिक छल नहीं.
साहित्य से समाज की सेवा करें
............ संस्कारित कर.
उसे दर्पण न दिखाएँ, बार-बार
कि वह नंगा है
सदियों से
जब से वह जन्मा है. "


भविष्य मुझे धुंधलके
में आ रहा नज़र
......... मित्रों से मिल पाना
......... निरंतर अब कम होगा.
.......... समाज के हित का चिंतन
........... अब हर दम होगा.
.......... आओगे जब भी मिलने मुझसे तुम.
........... मेरा प्रेम न कम होगा, न कम होगा.


[मेरे पिता की षष्ठिपूर्ति (७ अगस्त १९९८) पर के अवसर पर पढ़ी गयी आत्मकथात्मक कविता]
{उनकी जीवन-शैली से मुझे आज भी प्रेरणा मिलती है और मैं उनका पाँचवा पुत्र हूँ. }

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

स्वीकार नहीं

"कुछ बन जाऊँ,
औरों से कुछ मैं अलग दिखूँ"
— स्वीकार नहीं.

"कवि हो जाऊँ,
सृष्टा से थोड़ा अलग दिखूँ"
— स्वीकार नहीं.

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.