दर्द इसी का है दुःखदाई.
आगे क्रोध-कुंड है मेरे
पीछे छल-भावुकता खाई.
एक पंक्ति में खड़े कर दिए
दुश्मन और मुँहबोले भाई.
धूर्त और मक्कार निकलते
है कैसी ये न्याय-तुलाई?
खुद का दुःख है पाँव फैलाता
बन जाता है ताड़ की नाईं.
और हमारा सिमट गया तो
समझ लिया सूखी मृत राई.
जिन पैरों न पड़े बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई.
जो उनके मन का सोचा है
वही सत्य-पथ, शेष खटाई.
कोड़ा अलग ले लिया होता
पी जाते सब तिक्त दवाई.
एक कोड़े से करी पिटाई
दर्द इसी का है दुःखदाई.