सोमवार, 26 अप्रैल 2010

अंत - सूक्ष्मता का

दुष्ट विचारों को
पहचान
उनसे नज़र बचाकर
निकल जाना चाहता हूँ.
पर, कैसे हो संभव
जब जानता हूँ मैं —
"परिचितों से
नज़र चुराना अच्छा नहीं
अच्छा या बुरा भाव
व्यक्त करना ज़रूरी है."

करता हूँ कभी
व्यक्त — 'घृणा' अपनी भी
उन विचारों से, जो हितकर नहीं
लिप्तता का सुख
— 'पल' का
मिथ्या है — सोचता हूँ ऐसा भी.

पर, सच्चा
सच्चा सुख — पाने में
खो गया हूँ मैं
हो गया हूँ मैं
तब से
— प्रतिक्रिया हीन
— प्रयतता से दीन
— एक दो तीन
गिनतियों में लीन.
— पूर्णतया विलीन.

ब्रहमांड में जैसे
मर गया हो कोई
विशाल चमकता 'पिण्ड'
क्रमशः लघु से लघुतर होता
द्युति से द्युतिहीन होता
बचता तो केवल कर्षण
'कृष्ण-गह्वर'
अंत — सूक्ष्मता का.

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.