सोमवार, 25 जुलाई 2011

जान-कलेवा दुःख-देवा

मैंने तो सोचा था 
मेरा 'वोट' करेगा 'जनसेवा'
नहीं पता था 
वोट-वृक्ष के फल खा जायेगी बेवा. 

मैंने तो सोचा था 
बोया 'बीज' बनेगा 'तरु-मेवा'
नहीं पता था 
विषबेलें ही लिपट बनेंगी 'तरु-खेवा'.

मैंने तो सोचा था 
होती 'देश' प्रथम फिर 'स्व' सेवा
नहीं पता था 
लूट करेंगे मुखिया जी ही 'स्वमेवा'.

मैंने तो सोचा था 
'मोहन' अर्थ जगत के हैं देवा.
नहीं पता था 
निकलेंगे ये 'जान-कलेवा दुःख-देवा'.


'जान-कलेवा दुःख-देवा' = एक देशज निराशात्मक संबोधन, ऐसे संबोधन बोलकर 'हाय' या 'बददुआ' दी जाती है.
स्वमेवा = स्वमेव से ही अर्थ है... 

2 टिप्‍पणियां:

  1. सटीक ... वर्तमान सामाजिक अवस्था का चित्र खींच दिया शब्दों द्वारा ... देश प्रथम फिर स्वसेवा तो आम जनता के लिए है ... मुखिया तो स्वयं देश है तो तो स्व्मेवा ही होना है ...

    जवाब देंहटाएं

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.