कलाकार का धर्म
कला में कल की रचना करना.
एक नया आकार बना कर
कल को रंगी करना.
बीते कल को सोच
ध्यान से धीरे-धीरे चलना.
क्षण-भंगुर सपनों में
अपने नेत्र-निमीलन मलना.
कलाकार-प्रतिभा का भूषण
केवल भोग नहीं है.
उसकी भी पाने की इच्छा
प्रशंस-भोज रही है.
कला और कलाकार दोनों का एक दुसरे में समा जाना कला का चरम सोपान है ...आपका आभार इस सार्थक रचना के लिए
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जवाब देंहटाएंअति सुन्दर काव्य रचना ।
केवल-राम जी की टिपण्णी बहुत अच्छी लगी ।
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प्रशंस भोज को आपने सुस्थापित किया!!
जवाब देंहटाएंइस भोज में केवल जी ने लड्डू मिष्ठान धरा है
दिव्या जी नें बासूंदी रखी।
यह झलेबी हमारी और से……
समयानुकूल सार्थक अभिव्यक्ति!!
सुज्ञ जी ,
जवाब देंहटाएंबासूंदी कौन सा मिष्ठान है , कृपया विस्तार से बताएं ? क्या गुझिया को कहते हैं ? यूँ ही मन ललचा गया।
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जवाब देंहटाएंदिव्या जी
जवाब देंहटाएंबासूंदी के लिये यह लिंक देखिये…।
http://www.tarladalal.com/Basundi-633r
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जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ,
आपके द्वारा दिए गए लिंक पर जाकर तरला जी से बासूंदी सीखी । ये भी जाना की उत्तर भारत में इसे 'रबड़ी' कहते हैं ।
Many thanks.
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आभार दिव्या जी,
जवाब देंहटाएंआपने बासूंदी को मन बसाया!!
सही प्रतीक है न……
केवल जी नें कला और कलाकार को बांधने की बात की तो : लड्डू
आपने अतिसुन्दर की बात की तो : रबड़ी (बासूंदी)
और मैने आडी-टेडी बात की तो : झलेबी :)
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जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी ,
लड्डू और बसूंदी तो ठीक उपमा दी , लेकिन आपके ऊपर जलेबी कुछ जंची नहीं। न तो आपकी बातें आदि-टेढ़ी होती हैं , न ही जलेबी की तरह लच्छेदार। मेरे विचार से आपके लिए शाही (Royal)- 'काजू-कतली' ( काजू की बर्फी) अधिक उपयुक्त है।
Smiles..
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जवाब देंहटाएंपुनः आंकलन, झलेबी ही ठीक है।
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