मंगलवार, 29 मार्च 2011

प्रशंस-भोज


कलाकार का धर्म 
कला में कल की रचना करना. 
एक नया आकार बना कर 
कल को रंगी करना. 
बीते कल को सोच 
ध्यान से धीरे-धीरे चलना. 
क्षण-भंगुर सपनों में 
अपने नेत्र-निमीलन मलना. 
कलाकार-प्रतिभा का भूषण 
केवल भोग नहीं है. 
उसकी भी पाने की इच्छा 
प्रशंस-भोज रही है.

11 टिप्‍पणियां:

  1. कला और कलाकार दोनों का एक दुसरे में समा जाना कला का चरम सोपान है ...आपका आभार इस सार्थक रचना के लिए

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  2. .

    अति सुन्दर काव्य रचना ।

    केवल-राम जी की टिपण्णी बहुत अच्छी लगी ।

    .

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  3. प्रशंस भोज को आपने सुस्थापित किया!!

    इस भोज में केवल जी ने लड्डू मिष्ठान धरा है
    दिव्या जी नें बासूंदी रखी।
    यह झलेबी हमारी और से……

    समयानुकूल सार्थक अभिव्यक्ति!!

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  4. सुज्ञ जी ,
    बासूंदी कौन सा मिष्ठान है , कृपया विस्तार से बताएं ? क्या गुझिया को कहते हैं ? यूँ ही मन ललचा गया।

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  6. दिव्या जी

    बासूंदी के लिये यह लिंक देखिये…।
    http://www.tarladalal.com/Basundi-633r

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  7. .

    सुज्ञ जी ,

    आपके द्वारा दिए गए लिंक पर जाकर तरला जी से बासूंदी सीखी । ये भी जाना की उत्तर भारत में इसे 'रबड़ी' कहते हैं ।

    Many thanks.

    .

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  8. आभार दिव्या जी,

    आपने बासूंदी को मन बसाया!!

    सही प्रतीक है न……

    केवल जी नें कला और कलाकार को बांधने की बात की तो : लड्डू
    आपने अतिसुन्दर की बात की तो : रबड़ी (बासूंदी)

    और मैने आडी-टेडी बात की तो : झलेबी :)

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  9. .

    सुज्ञ जी ,

    लड्डू और बसूंदी तो ठीक उपमा दी , लेकिन आपके ऊपर जलेबी कुछ जंची नहीं। न तो आपकी बातें आदि-टेढ़ी होती हैं , न ही जलेबी की तरह लच्छेदार। मेरे विचार से आपके लिए शाही (Royal)- 'काजू-कतली' ( काजू की बर्फी) अधिक उपयुक्त है।

    Smiles..

    .

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.