आज गुप्पा हो गया
................ मैं फूलकर इतना
............................लगने लगा भय
.......................................नोक से.
आसमान में उठा
................ मैं ऊलकर इतना
.......................... भगने लगा हय*
.................................... शोक से.
साथ तेरे थक गया
................ मैं झूलकर इतना
........................... जगने लगा मैं
................................... झोंक से.
उर को सभी कुछ दे दिया
.................. है मूल-कर इतना
.......................... ठगने लगी वय*
..................................... थोक से.
आप आते हो नहीं
................... मुँह खोलकर अपना
............................... पगने लगी लय
......................................... कोक* से.
हय — घोड़ा;
वय — आयु;
कोक — काम-वासना.
बुधवार, 12 मई 2010
मंगलवार, 11 मई 2010
धनिया माँगते हैं
तीज त्योहारों पर ........................ जमादार.
शादी-ब्याह
और बच्चा होने पर ....................... हिंजड़े.
ज़रा-सा
कंस्ट्रक्शन शुरू करने पर ................. ठुल्ले.
.......................हक़, न्योत, चाय-पानी माँगते हैं.
पब्लिक स्कूल में
एडमिशन पर ............................. प्रिंसिपल.
परीक्षा से पहले
कमज़ोर बच्चों से ......................... ट्यूटर.
फेल को
पास में बदलने पर ...................... मास्टर.
...................... डोनेशन, फीस, बच्चों की मिठाई के लिए पैसा माँगते हैं.
तीर्थ स्थलों पर
शंख बजाकर .......................... मोटे साधू.
सरकारी दफ्तरों में
फाइलों के पास बैठे ......................... बाबू.
नौकरी के लिए
इंटरव्यू देने के बाद ................... निर्णायक.
....................... दान, पान-बीढ़ी, जेब गरम करने को लक्ष्मी माँगते हैं.
होटल में
खाना खिलाने के बाद ...................... बैरा.
प्लेट-फॉर्म पर
बोझा ढोने के बाद .......................... कुली.
सब्जीमंडी में
शाक खरीदने के बाद ................ ग्राहक.
........................ टिप, बक्शीश, धनिया माँगते हैं.
शादी-ब्याह
और बच्चा होने पर ....................... हिंजड़े.
ज़रा-सा
कंस्ट्रक्शन शुरू करने पर ................. ठुल्ले.
.......................हक़, न्योत, चाय-पानी माँगते हैं.
पब्लिक स्कूल में
एडमिशन पर ............................. प्रिंसिपल.
परीक्षा से पहले
कमज़ोर बच्चों से ......................... ट्यूटर.
फेल को
पास में बदलने पर ...................... मास्टर.
...................... डोनेशन, फीस, बच्चों की मिठाई के लिए पैसा माँगते हैं.
तीर्थ स्थलों पर
शंख बजाकर .......................... मोटे साधू.
सरकारी दफ्तरों में
फाइलों के पास बैठे ......................... बाबू.
नौकरी के लिए
इंटरव्यू देने के बाद ................... निर्णायक.
....................... दान, पान-बीढ़ी, जेब गरम करने को लक्ष्मी माँगते हैं.
होटल में
खाना खिलाने के बाद ...................... बैरा.
प्लेट-फॉर्म पर
बोझा ढोने के बाद .......................... कुली.
सब्जीमंडी में
शाक खरीदने के बाद ................ ग्राहक.
........................ टिप, बक्शीश, धनिया माँगते हैं.
रविवार, 9 मई 2010
बौनी पीढ़ी
उग आये हैं
नीम बेल अनार इमली के पेड़.
गमलों में
पेड़ों को उगा देख
बसे-बसाए 'फूल से'
किराएदारों को मैंने विदा किया.
माँ ने समझाया
गमलों में पेड़ नहीं लगते.
पेड़ों को चाहिए होती है ज़मीन
अधिक क्षेत्रफल/ खुलापन
बेटा, पौधों को गमलों से मत निकालो
मत बसाओ पेड़ों को गमलों में.
मैंने कहा —
माँ! ये गमलों में बौने ही रहेंगे
मैं इन्हें खाद पानी दे ज़िंदा रखूँगा.
ये पेड़ उगाने का बौन्साई फार्मूला है – कम स्पेस में.
आजकल इसी का फैशन है
घर-घर उगाये जा रहे हैं इसी नीति से पेड़.
कुछ सालों बाद ये फल देने लगते हैं.
पिता ने कहा —
"बेटा! इनके फलों में स्वाद नहीं होगा
असली जैसा"
कमरे के भीतर से आता 'बच्चों का शोर' सुन
पिता की बात को अनसुना करने का
मुझे कल्चर्ड बहाना भी मिल गया.
— पापा सर्कस जाना है.
— पापा 'पा' देखने चलो.
पत्नी का दोनों बच्चों को पूरा सपोर्ट था
सो, पहले सर्कस
फिर फिल्म/ बारी-बारी से जाना हुआ.
पहला 'शो' सर्कस
जहाँ
बच्चों के कद में
समाहित थे पूरे के पूरे आदमी/
उनका चलना, उनका घूमना/
उनका उठना-बैठना, झूमना
बच्चों की हँसी को कंटीन्यू किये था.
समाज में जब हम देखते हैं किसी को
उम्र से घट-बढ़ हरकतें करते देखते
– हँसी छूट जाती है.
पर यहाँ तो उम्र अपनी सही जगह लिए है
कद ही नहीं है अपने ठिकाने पर.
"बौना"
परमात्मा का 'अनफेयर' 'अमेच्योर सृजन
फिर भी उसको देख
हँसी आ जाती है क्यों?
दूसरा 'शो'
३ से ६ "पा"
"ओरो"
प्रोगेरिया का शिकार
परमात्मा का अनजस्टिस/
इकतरफा प्रोग्रेस
जिसमें शरीर तेज़ी से महीने-दर-महीने उम्र की दहलीज़ें लांघता है.
पर पिछड़ जाती है अक्ल, उम्र के मुताबिक़.
'पा' के बाद से ही समाज में सुन्दर महिलाओं के नज़रिए में दिखने लगा था बदलाव.
जो कभी किसी वृद्ध व्यक्ति के घूरने पर बिदक जाया करती थीं घरेलू औरतें/
अब वही खोजने लगीं हैं हर बूढी घूरती नज़रों में छिपा हुआ 'बच्चा' प्यार से.
सच में 'पा' का क्रांतिकारी असर है.
सर्कस और फिल्म देखने के बाद
घर लौट आया मैं खयालों में
'मनोरंजन' एक खाद है
जो थोड़ी मात्रा में दी जाये तो
थके मस्तिष्क को रिलेक्स देती है.
नयी ऊर्जा से पुनः भर देती है.'
पर मनोरंजन की हवस
किस तरफ ले जाती है
समझ नहीं आता.
क्योंकि तब तक दिमाग सोचने लायक नहीं रहता.
मनोरंजन में बहते जाना बहते जाना
जरूरत सी लगने लगती है.
क्रिकेट मैच देखने से छूट जाए
तो उसके हाईलाइट्स देखने बेहद ज़रूरी हैं.
चाहे दिनभर ऑफिस में आँखें
कम्पूटर के आगे थकाई हों.
देश की कौन-सी विधान-सभा में
हंगामा हुआ/ जूतम-पैजार हुआ/
किस नेता की जोकरी का कारनामा
आज पूरे दिन चैनल्स पर छाया रहा.
किस छोटे कद के नेता ने बड़े बोल बोले.
किस गुदड़ी में छिपे संत के
उसके भक्त ने सारे राज़ खोले.
खबर मालूम पड़ने पर भी
बार-बार फिर-फिर
मर्डर-मिस्ट्रीयों में
मनोरंजन खोजते रहना.
-- कहाँ करें मनोरंजन का अंत.
कैसे दें आखों को आराम/
दिमाग को दो क्षण सुकून के. ...
सोचता-सोचता कब मैं
घर के टी वी के सामने
आ बैठा पता ना चला.
टी वी पर चल रहा था
'डांस-इंडिया-डांस' के जूनियर्स शो ऑडिशंस.
सभी माता-पिता अपने-अपने बच्चों से
युवक-युवतियों के शारीरिक भावों की
उलटी करवा देना चाहते थे.
खैर, मैंने
सुबह से शाम तक
और रात को भी
हर कहीं होते देखी
बौन्साई खेती.
घर की बालकोनी और छतों से लेकर
घर के अन्दर माँ की गोद तक में.
जब मैं नहीं छोड़ पा रहा हूँ
पेड़ों को गमलों में लगाने के शौक को.
तो क्यों उम्मीद करूँ
छोड़ देंगे बाक़ी भी
बोनसाई फार्मूले से
बच्चों को पोसना.
शनिवार, 8 मई 2010
बचत
जेब में
मेरे
'अठन्नी '
हाथ फैलाता
...........................................................................भिखारी
दूर दिखता.
काटता हूँ
मैं
इधर
चुपचाप कन्नी.
मेरे
'अठन्नी '
हाथ फैलाता
...........................................................................भिखारी
दूर दिखता.
काटता हूँ
मैं
इधर
चुपचाप कन्नी.
शुक्रवार, 7 मई 2010
असल बिहारी
हर शब्द का होता है
अपना एक इतिहास.
भाषा वैज्ञानिक खोद निकालता है
शब्द का आदिम रूप
प्रयोग में लिए जा रहे
प्रचलित शब्दों के आस-पास.
इस खुदाई में 'मूल शब्द'
किस समय – कितना गला, कितना चला
कितना घिसा, कितना पिसा.
किस शब्द ने कितनी साँसें लीं.
किस शब्द ने कब दम तोड़ा.
कौन कब हुआ लापता.
किसने अपने असल अर्थ को छोड़
पराये अर्थ की शरण ली.
कौन धर्मात्मा से बन गया डॉन.
कौन हो गया अपनी उपेक्षा से मौन.
— सभी पहलुओं पर होती है भाषा इतिहासकार की नज़र.
लोक परम्पराओं के खंडहर में
भूले-भटके टहलता हुआ
दीख पड़ता है जब कोई
शब्द का साया.
भाषा वैज्ञानिक
कान खड़े कर
उसके पदचापों को सुनने
वहाँ की ज़मीन तक खोद डालते हैं कि
मिल जाए उन्हें उस शब्द का डीएनए चित्र.
प्राप्त हो जाए उसका असल चेहरा.
.
.
.
आज मैं 'बिहारी'
के असल चेहरे को ढूँढने निकला हूँ.
जो बिहारी शब्द अपने रंग-बिरंगे अर्थों में
आज अपना असल अर्थ खो चुका है.
यदि घृणा से उच्चार दूँ — 'बिहारी'
तो संबोधित व्यक्ति लाल-पीला हुए बिना न रहे.
यदि भक्ति-भाव से बोलूँ 'माखनचोर' अर्थ में
तो लग जाए जयकारा.
किन्तु असल बिहारी का चेहरा तो खुदाई में निकला है.
.
.
अरे! 'बिहारी' का चेहरा तो 'बीहाड़ी' से निर्मित है.
बीहड़ों में बसता था जो आदिम शब्द
वह वहाँ उच्चरित होता था 'ड़' के अभाव में.
बीहड़ में रहता था जो बीहाड़ी.
वह बताया जाने लगा 'बिहारी'.
.
.
.
.
.
इतनी मशक्कत
इतनी खुदाई के बाद
मिल गया है मुझे बिहारी का असल आदिम रूप.
लेकिन इस थकान में
'बीहड़' शब्द की खुदाई करने का अब दम नहीं.
[मेरे कई साथी बिहार प्रांत से हैं, उनसे हिंदी-संस्कृत शब्दों पर माथापच्ची होती रहती है. यह केवल मनो-विनोद निमित्त लिखा गया है.]
अपना एक इतिहास.
भाषा वैज्ञानिक खोद निकालता है
शब्द का आदिम रूप
प्रयोग में लिए जा रहे
प्रचलित शब्दों के आस-पास.
इस खुदाई में 'मूल शब्द'
किस समय – कितना गला, कितना चला
कितना घिसा, कितना पिसा.
किस शब्द ने कितनी साँसें लीं.
किस शब्द ने कब दम तोड़ा.
कौन कब हुआ लापता.
किसने अपने असल अर्थ को छोड़
पराये अर्थ की शरण ली.
कौन धर्मात्मा से बन गया डॉन.
कौन हो गया अपनी उपेक्षा से मौन.
— सभी पहलुओं पर होती है भाषा इतिहासकार की नज़र.
लोक परम्पराओं के खंडहर में
भूले-भटके टहलता हुआ
दीख पड़ता है जब कोई
शब्द का साया.
भाषा वैज्ञानिक
कान खड़े कर
उसके पदचापों को सुनने
वहाँ की ज़मीन तक खोद डालते हैं कि
मिल जाए उन्हें उस शब्द का डीएनए चित्र.
प्राप्त हो जाए उसका असल चेहरा.
.
.
.
आज मैं 'बिहारी'
के असल चेहरे को ढूँढने निकला हूँ.
जो बिहारी शब्द अपने रंग-बिरंगे अर्थों में
आज अपना असल अर्थ खो चुका है.
यदि घृणा से उच्चार दूँ — 'बिहारी'
तो संबोधित व्यक्ति लाल-पीला हुए बिना न रहे.
यदि भक्ति-भाव से बोलूँ 'माखनचोर' अर्थ में
तो लग जाए जयकारा.
किन्तु असल बिहारी का चेहरा तो खुदाई में निकला है.
.
.
अरे! 'बिहारी' का चेहरा तो 'बीहाड़ी' से निर्मित है.
बीहड़ों में बसता था जो आदिम शब्द
वह वहाँ उच्चरित होता था 'ड़' के अभाव में.
बीहड़ में रहता था जो बीहाड़ी.
वह बताया जाने लगा 'बिहारी'.
.
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.
.
.
इतनी मशक्कत
इतनी खुदाई के बाद
मिल गया है मुझे बिहारी का असल आदिम रूप.
लेकिन इस थकान में
'बीहड़' शब्द की खुदाई करने का अब दम नहीं.
[मेरे कई साथी बिहार प्रांत से हैं, उनसे हिंदी-संस्कृत शब्दों पर माथापच्ची होती रहती है. यह केवल मनो-विनोद निमित्त लिखा गया है.]
रविवार, 2 मई 2010
आतंक को पहचानो
मैंने देखा है
आतंकियों को
हुआ हूँ गद्दारों से रू-ब-रू.
मैंने थाली में छेद करने वाले देखे हैं
देखी हैं हरकतें देश-विरोधी.
मैंने देखे हैं
देश के शहीदों के प्रति घृणित भाव.
मैंने उन सरकारी दामादों को देखा है
जिनकी आवभगत हर इलेक्शन में होती है
जो ज़हर उगलते हैं, दूध पीकर भी डसते हैं.
अल्पसंख्यक होने का पूरा फायदा उठाते हैं
पड़ोसी मुल्क से दोस्ती बढ़ाने के बहाने
बसें ट्रेनें चलवाते हैं.
अपनी पसंदीदा, रोज़मर्रा जरूरत की चीज़
बारूद लेकर आते हैं.
मैं देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने वाले
जाली नोट छापने वाले
चेहरों को पहचानता हूँ.
मैं जानता हूँ
कहाँ मिलती है ट्रेनिंग आतंक की.
मैं ही नहीं आप भी जानते हैं
कहाँ पैदा होती है फसल — देशद्रोह की.
हम सब जानते हैं
पर बोलते नहीं
हम सब देखते हैं
पर अनजान बने रहने का
नाटक किये जा रहे हैं
बरसों से – लगातार.
हमें बचपन से ही
कुछ नारे रटा दिए गए हैं
— हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई.
— हमें हिंसा नहीं फैलानी, हमें घृणा को रोकना है.
— साम्प्रदायिकता से बचो सब धर्मों का सम्मान करो.
तब से ही भाईचारे की भावना लपेटे हुए
मैं जिए जा रहा हूँ.
साम्प्रदायिकता समझी जाने वाली ताकतों से भी बचा हूँ.
मन में हिंसा के भाव नहीं आने देता.
घृणा चाहते हुए भी नहीं करता.
जबकि गली में मीट के पकोड़े तलता है
रोजाना गोल टोपी धारी.
नाक-मुँह बंद कर लेता हूँ.
लेकिन कुछ नहीं बोलता
किसी से शिकायत नहीं
क्योंकि ये सबका देश हो चुका है.
क्या मैं अपनी इस ज़िन्दगी को
अगले बम-विस्फोट तक बचाए हुए हूँ.
क्या मैं हमेशा की तरह इस बार भी
अपने भावों पर ज़ब्त करूँ.
कुछ ना बोलूँ.
शांत रहने का,
शांत दिखने का एक और नाटक करूँ.
मीडिया की फिर वही बकवास सुनूँ —
"बम विस्फोटों के बाद भी
आतंकियों से नहीं डरी दिल्ली
बाज़ार फिर खुले,
लोगों ने रोजमर्रा का सामान खरीदा.
छिद्र टोपीधारी
भारतमाता के दामन में
छिद्र कर चुके हैं न जाने कितने ही.
अब भरोसा नहीं होता
कि पड़ोस के शाहरुख, सलमान, आमिर को
अपने घर बुलाऊँ या उनके घर जाकर ईद-मुबारक करूँ.
......
जामिया के कुलपति
जो आज पैरवी कर रहे हैं
उन मुजरिमों की जो प्रमाणतः आतंकी हैं.
एक घटना पोल खोल देगी
जामिया यूनिवर्सिटी की
देश के प्रति वफादारी की
कारगिल के समय
शोक में था जामिया
गुजर गए थे उस दौरान उनके क्षेत्र के कोई मियाँ.
शोक प्रकट किया गया.
उसी समय हिंदी विभाग के प्रमुख
अशोक चक्रधर जी ने कहा
अब कारगिल के उन शहीदों के प्रति भी
दो मिनट का मौन रखें जिन्होंने देश के लिए जान गँवायी.
पर उर्दू अरबी विभाग के प्रोफेसरों को
बात हज़म नहीं आयी.
मजबूरी में मौन रखने के बाद
बोले — "अब गली में फिरने वाले
उन कुत्तों के लिए भी मौन रखवाइये.
जो अभी-अभी मारे गए हैं."
क्या कहती हैं ये घटना
क्या इस टिपण्णी से
सब प्रकट नहीं हो जाता.
कि कहाँ कैसी शिक्षा दी जा रही है.
कहाँ तैयार हो रही है
देशद्रोह करने वालों की पौध.
मैं जान गया हूँ.
आप जान गए.
क्या सरकार में बैठे हमारे नुमायिंदे नहीं जानते
पुलिस प्रशासन नेता सब जानते हैं.
लेकिन चुनाव सर पर बने रहते हैं.
उन्हें सेंकनी होती हैं रोटियाँ 'वोटों की'
उन्हें हमारे वोटों से ज़्यादा
टुकड़ों पर बिकने वालों के वोटों की परवाह रहती हैं.
तभी तो आज भी
लालू, मायावती, मुलायम
राहुल, सोनिया इस आतंक की लड़ाई में
सख्त बयानबाजी से ही काम चला रहे हैं.
विस्फोटों में स्वाहा हुए परिवारों को
खुले दिल से नोट मदद बाँट रहे हैं,
मदद बाँट रहे हैं. ...
[अपने मित्रों के चाहने पर प्रकाशित]
आतंकियों को
हुआ हूँ गद्दारों से रू-ब-रू.
मैंने थाली में छेद करने वाले देखे हैं
देखी हैं हरकतें देश-विरोधी.
मैंने देखे हैं
देश के शहीदों के प्रति घृणित भाव.
मैंने उन सरकारी दामादों को देखा है
जिनकी आवभगत हर इलेक्शन में होती है
जो ज़हर उगलते हैं, दूध पीकर भी डसते हैं.
अल्पसंख्यक होने का पूरा फायदा उठाते हैं
पड़ोसी मुल्क से दोस्ती बढ़ाने के बहाने
बसें ट्रेनें चलवाते हैं.
अपनी पसंदीदा, रोज़मर्रा जरूरत की चीज़
बारूद लेकर आते हैं.
मैं देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने वाले
जाली नोट छापने वाले
चेहरों को पहचानता हूँ.
मैं जानता हूँ
कहाँ मिलती है ट्रेनिंग आतंक की.
मैं ही नहीं आप भी जानते हैं
कहाँ पैदा होती है फसल — देशद्रोह की.
हम सब जानते हैं
पर बोलते नहीं
हम सब देखते हैं
पर अनजान बने रहने का
नाटक किये जा रहे हैं
बरसों से – लगातार.
हमें बचपन से ही
कुछ नारे रटा दिए गए हैं
— हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई.
— हमें हिंसा नहीं फैलानी, हमें घृणा को रोकना है.
— साम्प्रदायिकता से बचो सब धर्मों का सम्मान करो.
तब से ही भाईचारे की भावना लपेटे हुए
मैं जिए जा रहा हूँ.
साम्प्रदायिकता समझी जाने वाली ताकतों से भी बचा हूँ.
मन में हिंसा के भाव नहीं आने देता.
घृणा चाहते हुए भी नहीं करता.
जबकि गली में मीट के पकोड़े तलता है
रोजाना गोल टोपी धारी.
नाक-मुँह बंद कर लेता हूँ.
लेकिन कुछ नहीं बोलता
किसी से शिकायत नहीं
क्योंकि ये सबका देश हो चुका है.
क्या मैं अपनी इस ज़िन्दगी को
अगले बम-विस्फोट तक बचाए हुए हूँ.
क्या मैं हमेशा की तरह इस बार भी
अपने भावों पर ज़ब्त करूँ.
कुछ ना बोलूँ.
शांत रहने का,
शांत दिखने का एक और नाटक करूँ.
मीडिया की फिर वही बकवास सुनूँ —
"बम विस्फोटों के बाद भी
आतंकियों से नहीं डरी दिल्ली
बाज़ार फिर खुले,
लोगों ने रोजमर्रा का सामान खरीदा.
छिद्र टोपीधारी
भारतमाता के दामन में
छिद्र कर चुके हैं न जाने कितने ही.
अब भरोसा नहीं होता
कि पड़ोस के शाहरुख, सलमान, आमिर को
अपने घर बुलाऊँ या उनके घर जाकर ईद-मुबारक करूँ.
......
जामिया के कुलपति
जो आज पैरवी कर रहे हैं
उन मुजरिमों की जो प्रमाणतः आतंकी हैं.
एक घटना पोल खोल देगी
जामिया यूनिवर्सिटी की
देश के प्रति वफादारी की
कारगिल के समय
शोक में था जामिया
गुजर गए थे उस दौरान उनके क्षेत्र के कोई मियाँ.
शोक प्रकट किया गया.
उसी समय हिंदी विभाग के प्रमुख
अशोक चक्रधर जी ने कहा
अब कारगिल के उन शहीदों के प्रति भी
दो मिनट का मौन रखें जिन्होंने देश के लिए जान गँवायी.
पर उर्दू अरबी विभाग के प्रोफेसरों को
बात हज़म नहीं आयी.
मजबूरी में मौन रखने के बाद
बोले — "अब गली में फिरने वाले
उन कुत्तों के लिए भी मौन रखवाइये.
जो अभी-अभी मारे गए हैं."
क्या कहती हैं ये घटना
क्या इस टिपण्णी से
सब प्रकट नहीं हो जाता.
कि कहाँ कैसी शिक्षा दी जा रही है.
कहाँ तैयार हो रही है
देशद्रोह करने वालों की पौध.
मैं जान गया हूँ.
आप जान गए.
क्या सरकार में बैठे हमारे नुमायिंदे नहीं जानते
पुलिस प्रशासन नेता सब जानते हैं.
लेकिन चुनाव सर पर बने रहते हैं.
उन्हें सेंकनी होती हैं रोटियाँ 'वोटों की'
उन्हें हमारे वोटों से ज़्यादा
टुकड़ों पर बिकने वालों के वोटों की परवाह रहती हैं.
तभी तो आज भी
लालू, मायावती, मुलायम
राहुल, सोनिया इस आतंक की लड़ाई में
सख्त बयानबाजी से ही काम चला रहे हैं.
विस्फोटों में स्वाहा हुए परिवारों को
खुले दिल से नोट मदद बाँट रहे हैं,
मदद बाँट रहे हैं. ...
[अपने मित्रों के चाहने पर प्रकाशित]
प्रचारतंत्र की जय [आज के नेता का स्वगत कथन]
मुझमें ना है कोई योग्यता
फिर भी मैं हीरो हूँ.
ना ही मुझमें रंग-रूप का
कोई आकर्षण है.
प्रबुद्ध जनों को शीघ्र
प्रभावित कर लूँ — असंभव है.
जिज्ञासु बालक की
जिज्ञासा को शमन करन का
मुझपर नहीं मंत्र-वंत्र है
ना ही कुछ अध्ययन है.
मैं केवल छपता रहता हूँ
पत्र-पत्रिकाओं में.
करूँ अटपटे काम
मैं रोचक न्यूज़ बना करता हूँ.
सर के बल जब चलूँ
तो भी फ्रंट पेज़ छपता हूँ.
मोटी रकम / न्यूज़ पेपर को / दूँ जैसा छाप जाऊँ.
बार-बार न्यूज़ चैनल को / मोटी रकम पहुँचाऊँ.
खुद को मनचाहा फिल्माऊँ.
पत्रकार पर जाँच कमेटी नहीं बैठती भाई.
चाहे कितना भ्रष्ट पतित हो दूर रहे सीबीआई.
ऐसे में मन कहता मेरा "प्रचारतंत्र की जय!"
[आज के नेता का स्वगत कथन]
फिर भी मैं हीरो हूँ.
ना ही मुझमें रंग-रूप का
कोई आकर्षण है.
प्रबुद्ध जनों को शीघ्र
प्रभावित कर लूँ — असंभव है.
जिज्ञासु बालक की
जिज्ञासा को शमन करन का
मुझपर नहीं मंत्र-वंत्र है
ना ही कुछ अध्ययन है.
मैं केवल छपता रहता हूँ
पत्र-पत्रिकाओं में.
करूँ अटपटे काम
मैं रोचक न्यूज़ बना करता हूँ.
सर के बल जब चलूँ
तो भी फ्रंट पेज़ छपता हूँ.
मोटी रकम / न्यूज़ पेपर को / दूँ जैसा छाप जाऊँ.
बार-बार न्यूज़ चैनल को / मोटी रकम पहुँचाऊँ.
खुद को मनचाहा फिल्माऊँ.
पत्रकार पर जाँच कमेटी नहीं बैठती भाई.
चाहे कितना भ्रष्ट पतित हो दूर रहे सीबीआई.
ऐसे में मन कहता मेरा "प्रचारतंत्र की जय!"
[आज के नेता का स्वगत कथन]
शनिवार, 1 मई 2010
बंधुआ मजदूरी नए ज़माने की [मज़दूर दिवस पर विशेष]
आज का
प्रत्येक व्यक्ति
हो चुका है जागरूक
शिक्षा ने उसमें चेतना घुसाई है.
प्रशासन भी दे रहा है
भरपूर सहयोग शिक्षा को.
— आँखें खोलने के लिए अंधी रूढ़ियों की —
कर रहा है स्थापित विश्वविद्यालय.
व्यक्ति पा सके रोजगार
ऐसे-ऐसे पाठ्यक्रमों को
चलाता है जनता के बीच.
कि पानवाला, तांगेवाला, रिक्शावाला, दिहाड़ी मज़दूर
कर सके अपने बिजनिस को नवीन, और नवीन.
'बंधुआ मज़दूरी' 'बाल मज़दूरी' कानूनन है जुर्म.
जागरूकता अभियान ज़ारी है शासन का.
एनजीओज़ भी चिल्लाते हैं
न्यूज़ चैनल के सामने
'बंद करो बंद करो...'
लेट जाते हैं सड़कों पर — भावावेश में.
लेकिन इन सब क्रियाकलापों के बावजूद
चले जा रही 'बंधुआ मज़दूरी'
— अपने नए रूप में.
"कोंट्रेक्ट सर्विसेज़" — एक बढिया-सा नाम
पॉलिश किया सा लगता है.
जिसे क़ानून भी शोषक की सुविधानुसार तोड़-मरोड़ देता है.
अब शोषण करने का तरीका बदल गया है
बदल गए हैं — सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति
आ रहे हैं निश्चित अवधि के
कोन्ट्रेक्ट-क्वार्डीनेटर, प्रोजेक्ट मेनेजर.
आज
बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं
पढ़े-लिखों की ज़मात — काम करने को.
बंधुआ मज़दूरी के लिए आज
बाध्य नहीं किया जाता
बाध्य हो जाता है खुद-बा-खुद
रोज़गार पाने को भटकता हुआ ग्रेजुएट.
परिस्थितियाँ उससे भरवाती हैं – पानी,
नए ज़माने और बीते ज़माने के बीच
तब वह भेद नहीं कर पाता.
उसको अपनी स्थिति एक बंधुआ मज़दूर-सी लगती है.
एक नौकरी के बाद दूसरी नौकरी की तलाश में
या उसी नौकरी को स्थिर रखने के प्रयास में
सहता है सब कुछ
और रहता है
पहले की ही तरह तनाव में.
ज़माना कहाँ बदला है?
बदले हैं तरीके — शोषण के.
अब इन तरीकों के तहत ही
होगा उन व्यापारियों का भी शोषण
जिनकी दुकानें सील हो चुकी हैं
कोर्ट के आदेश पर.
आना होगा उनको भी अपने साजो सामान के साथ
मॉल में, मल्टीनेशनल बिजनिस कॉम्लेक्स में
एक नए कोन्ट्रेक्ट के साथ
"माल बेचो, कमीशन दो."
यही नियम तो रहा है पहले भी
चौथ वसूलने का.
अधिक से अधिक वसूली को खड़े हैं
हमारे रहम दिल सरमायेदार
टैक्स देना तो है ठीक
लेकिन जड़ें उखाड़कर पेड़ की
दूसरी जगह रोंपने में सूख नहीं जायेंगी
उसकी डालें, उसकी टहनियाँ, पत्ते
शायद मर ही जाये पूरा पेड़.
.
.
.
प्रकृति सँवारती रही है हमारे परिवेश को
बसंत में सज उठती है पूरी की पूरी
पतझड़ भी पीले पत्तों को हटा
नयों को आने का अवसर देता है.
.
.
.
— "दिल्ली को बेहतर करने का है प्रयास"
बेहतर करने के प्रयास में
दिल्ली को दी जा रही आर्टिफिशियल चकाचौंध
गाँवों से निकल शहर आई संस्कृति
कहीं पूरी की पूरी अपनी पहचान ना खो दे.
बहरहाल एक बात साफ़ है
होने वाली है शुरुआत
बंधुआ मज़दूरी की
वह भी नए ज़माने की
अब नयी चकाचौंध के साथ. ....
[मज़दूर दिवस पर विशेष]
प्रत्येक व्यक्ति
हो चुका है जागरूक
शिक्षा ने उसमें चेतना घुसाई है.
प्रशासन भी दे रहा है
भरपूर सहयोग शिक्षा को.
— आँखें खोलने के लिए अंधी रूढ़ियों की —
कर रहा है स्थापित विश्वविद्यालय.
व्यक्ति पा सके रोजगार
ऐसे-ऐसे पाठ्यक्रमों को
चलाता है जनता के बीच.
कि पानवाला, तांगेवाला, रिक्शावाला, दिहाड़ी मज़दूर
कर सके अपने बिजनिस को नवीन, और नवीन.
'बंधुआ मज़दूरी' 'बाल मज़दूरी' कानूनन है जुर्म.
जागरूकता अभियान ज़ारी है शासन का.
एनजीओज़ भी चिल्लाते हैं
न्यूज़ चैनल के सामने
'बंद करो बंद करो...'
लेट जाते हैं सड़कों पर — भावावेश में.
लेकिन इन सब क्रियाकलापों के बावजूद
चले जा रही 'बंधुआ मज़दूरी'
— अपने नए रूप में.
"कोंट्रेक्ट सर्विसेज़" — एक बढिया-सा नाम
पॉलिश किया सा लगता है.
जिसे क़ानून भी शोषक की सुविधानुसार तोड़-मरोड़ देता है.
अब शोषण करने का तरीका बदल गया है
बदल गए हैं — सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति
आ रहे हैं निश्चित अवधि के
कोन्ट्रेक्ट-क्वार्डीनेटर, प्रोजेक्ट मेनेजर.
आज
बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं
पढ़े-लिखों की ज़मात — काम करने को.
बंधुआ मज़दूरी के लिए आज
बाध्य नहीं किया जाता
बाध्य हो जाता है खुद-बा-खुद
रोज़गार पाने को भटकता हुआ ग्रेजुएट.
परिस्थितियाँ उससे भरवाती हैं – पानी,
नए ज़माने और बीते ज़माने के बीच
तब वह भेद नहीं कर पाता.
उसको अपनी स्थिति एक बंधुआ मज़दूर-सी लगती है.
एक नौकरी के बाद दूसरी नौकरी की तलाश में
या उसी नौकरी को स्थिर रखने के प्रयास में
सहता है सब कुछ
और रहता है
पहले की ही तरह तनाव में.
ज़माना कहाँ बदला है?
बदले हैं तरीके — शोषण के.
अब इन तरीकों के तहत ही
होगा उन व्यापारियों का भी शोषण
जिनकी दुकानें सील हो चुकी हैं
कोर्ट के आदेश पर.
आना होगा उनको भी अपने साजो सामान के साथ
मॉल में, मल्टीनेशनल बिजनिस कॉम्लेक्स में
एक नए कोन्ट्रेक्ट के साथ
"माल बेचो, कमीशन दो."
यही नियम तो रहा है पहले भी
चौथ वसूलने का.
अधिक से अधिक वसूली को खड़े हैं
हमारे रहम दिल सरमायेदार
टैक्स देना तो है ठीक
लेकिन जड़ें उखाड़कर पेड़ की
दूसरी जगह रोंपने में सूख नहीं जायेंगी
उसकी डालें, उसकी टहनियाँ, पत्ते
शायद मर ही जाये पूरा पेड़.
.
.
.
प्रकृति सँवारती रही है हमारे परिवेश को
बसंत में सज उठती है पूरी की पूरी
पतझड़ भी पीले पत्तों को हटा
नयों को आने का अवसर देता है.
.
.
.
— "दिल्ली को बेहतर करने का है प्रयास"
बेहतर करने के प्रयास में
दिल्ली को दी जा रही आर्टिफिशियल चकाचौंध
गाँवों से निकल शहर आई संस्कृति
कहीं पूरी की पूरी अपनी पहचान ना खो दे.
बहरहाल एक बात साफ़ है
होने वाली है शुरुआत
बंधुआ मज़दूरी की
वह भी नए ज़माने की
अब नयी चकाचौंध के साथ. ....
[मज़दूर दिवस पर विशेष]
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
उधार-गाथा
कुछ समय के वास्ते
चाहिए मुझको तुम्हारी
'जमा पूँजी'
जो तुम्हे देती रही
नेपथ्य से —
संकल्प दृढ़ता.
मन में उठी एक चाह को
'पक्का इरादा में बदलने
की सनक.
प्राप्त करके
जमा राशि तुम्हारी
मिल ना पाती
मन को तुम्हारी भाँति 'दृढ़ता'.
ज़रुरत भी
एक होती पूर्ण
दिखती दूसरी तब
इस तरह तो
बोझ मेरा कम ना होगा!
तुम उसी धन की बदौलत
उधार में मुझको दिया जो
बन चुके 'उदार' अब हो.
क्यों विषमता इस तरह की
सोचता हूँ मैं कभी ये
उसी धन से तुममें सदगुण
उसी धन से मुझमें अवगुण.
किन्तु मेरे मन में पैदा
हो रही कुछ और बातें
— घर बदल लूँ बिन बताये
— सामने बिलकुल ना आऊँ.
आ भी जाऊँ, भूल जाऊँ–धन लिया जो
— चेहरे का गेटअप बदल लूँ.
पर कुछ ना होगा –
पत्नी बच्चों को वह पहचानता है
ये बदल तो नहीं सकते
कृपा को वापस न दूँगा.
या कहूँ
ओ मित्र मेरे!
भागता भई मैं कहाँ हूँ!
– दे ही दूँगा, सामने हूँ!
– मैं अभी मरा नहीं हूँ!
– तुम भी कैसे दोस्त मेरे!
मेरे पीछे ही पड़े हो!
नौकरी में करके नागा!
– फाके तो तुम नहीं करते!
– जी रहे हो ठाट से तुम!
पूछते हो अब मुझी से –
'मैंने तुमको क्या दिया?
कौन-सी दोस्ती निभायी?'
– सैकड़ों ही बार सुबह
तुम हमारे घर पर आकर
चायनाश्ता कर चुके हो.
– और दसियों बार दिन में
– पेटभर भोजन किया है.
— ले ही लेना अगले सप्ताह!
अगले सप्ताह भी कहूंगा –
कल या परसों तक मिलेगा.
शर्म होगी, आयेगा ना
बेशरम हो आयेगा भी
— रात १० बजे का टाइम दूँगा.
— इतने चक्कर कटा दूँगा.
भूल जाएगा यही कि
'किसलिए आता यहाँ हूँ."
रात १० बजे को इज्जत दार
ना किसी के घर जाते.
इस तरह ही उधार देकर
सदगुणी उदार व्यक्ति
अंततः हैं बदल जाते.
चाहिए मुझको तुम्हारी
'जमा पूँजी'
जो तुम्हे देती रही
नेपथ्य से —
संकल्प दृढ़ता.
मन में उठी एक चाह को
'पक्का इरादा में बदलने
की सनक.
प्राप्त करके
जमा राशि तुम्हारी
मिल ना पाती
मन को तुम्हारी भाँति 'दृढ़ता'.
ज़रुरत भी
एक होती पूर्ण
दिखती दूसरी तब
इस तरह तो
बोझ मेरा कम ना होगा!
तुम उसी धन की बदौलत
उधार में मुझको दिया जो
बन चुके 'उदार' अब हो.
क्यों विषमता इस तरह की
सोचता हूँ मैं कभी ये
उसी धन से तुममें सदगुण
उसी धन से मुझमें अवगुण.
किन्तु मेरे मन में पैदा
हो रही कुछ और बातें
— घर बदल लूँ बिन बताये
— सामने बिलकुल ना आऊँ.
आ भी जाऊँ, भूल जाऊँ–धन लिया जो
— चेहरे का गेटअप बदल लूँ.
पर कुछ ना होगा –
पत्नी बच्चों को वह पहचानता है
ये बदल तो नहीं सकते
कृपा को वापस न दूँगा.
या कहूँ
ओ मित्र मेरे!
भागता भई मैं कहाँ हूँ!
– दे ही दूँगा, सामने हूँ!
– मैं अभी मरा नहीं हूँ!
– तुम भी कैसे दोस्त मेरे!
मेरे पीछे ही पड़े हो!
नौकरी में करके नागा!
– फाके तो तुम नहीं करते!
– जी रहे हो ठाट से तुम!
पूछते हो अब मुझी से –
'मैंने तुमको क्या दिया?
कौन-सी दोस्ती निभायी?'
– सैकड़ों ही बार सुबह
तुम हमारे घर पर आकर
चायनाश्ता कर चुके हो.
– और दसियों बार दिन में
– पेटभर भोजन किया है.
— ले ही लेना अगले सप्ताह!
अगले सप्ताह भी कहूंगा –
कल या परसों तक मिलेगा.
शर्म होगी, आयेगा ना
बेशरम हो आयेगा भी
— रात १० बजे का टाइम दूँगा.
— इतने चक्कर कटा दूँगा.
भूल जाएगा यही कि
'किसलिए आता यहाँ हूँ."
रात १० बजे को इज्जत दार
ना किसी के घर जाते.
इस तरह ही उधार देकर
सदगुणी उदार व्यक्ति
अंततः हैं बदल जाते.
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
अंत की सीमा
अंत की सीमा
निर्धारित नहीं.
आरम्भ का उदगम
किस बिंदु को स्वीकार लें.
अभिव्यक्ति का आरम्भ
मेरे मौन का है अंत.
व्यक्त का अलम
मेरे मौन का प्रारम्भ.
निर्धारित नहीं.
आरम्भ का उदगम
किस बिंदु को स्वीकार लें.
अभिव्यक्ति का आरम्भ
मेरे मौन का है अंत.
व्यक्त का अलम
मेरे मौन का प्रारम्भ.
सोमवार, 26 अप्रैल 2010
अंत - सूक्ष्मता का
दुष्ट विचारों को
पहचान
उनसे नज़र बचाकर
निकल जाना चाहता हूँ.
पर, कैसे हो संभव
जब जानता हूँ मैं —
"परिचितों से
नज़र चुराना अच्छा नहीं
अच्छा या बुरा भाव
व्यक्त करना ज़रूरी है."
करता हूँ कभी
व्यक्त — 'घृणा' अपनी भी
उन विचारों से, जो हितकर नहीं
लिप्तता का सुख
— 'पल' का
मिथ्या है — सोचता हूँ ऐसा भी.
पर, सच्चा
सच्चा सुख — पाने में
खो गया हूँ मैं
हो गया हूँ मैं
तब से
— प्रतिक्रिया हीन
— प्रयतता से दीन
— एक दो तीन
गिनतियों में लीन.
— पूर्णतया विलीन.
ब्रहमांड में जैसे
मर गया हो कोई
विशाल चमकता 'पिण्ड'
क्रमशः लघु से लघुतर होता
द्युति से द्युतिहीन होता
बचता तो केवल कर्षण
'कृष्ण-गह्वर'
अंत — सूक्ष्मता का.
पहचान
उनसे नज़र बचाकर
निकल जाना चाहता हूँ.
पर, कैसे हो संभव
जब जानता हूँ मैं —
"परिचितों से
नज़र चुराना अच्छा नहीं
अच्छा या बुरा भाव
व्यक्त करना ज़रूरी है."
करता हूँ कभी
व्यक्त — 'घृणा' अपनी भी
उन विचारों से, जो हितकर नहीं
लिप्तता का सुख
— 'पल' का
मिथ्या है — सोचता हूँ ऐसा भी.
पर, सच्चा
सच्चा सुख — पाने में
खो गया हूँ मैं
हो गया हूँ मैं
तब से
— प्रतिक्रिया हीन
— प्रयतता से दीन
— एक दो तीन
गिनतियों में लीन.
— पूर्णतया विलीन.
ब्रहमांड में जैसे
मर गया हो कोई
विशाल चमकता 'पिण्ड'
क्रमशः लघु से लघुतर होता
द्युति से द्युतिहीन होता
बचता तो केवल कर्षण
'कृष्ण-गह्वर'
अंत — सूक्ष्मता का.
शनिवार, 24 अप्रैल 2010
चुपचाप देखो मेरा दूसरा जन्म
जब अमित जी ने प्रकृति के एक नज़ारे को मेरी नज़र से जानना चाहा ...
उनका लिंक है: http://27amit.blogspot.com/2010/04/blog-post_23.html
"आज आपके पास
आश्चर्य करने के अलावा कुछ नहीं."
देखो! शुरू हो गया है मेरा
— स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढना.
— मज़बूत चट्टान से कंकणों में बदलना.
— कंकणों से रेत में तब्दील होना.
'कंकणों का एकजुट हो जाना'
लम्बे समय बाद चट्टान रूप में पहचाना जाता है.
यह तो मेरी नियति है.
प्रकृति की निरंतर चलायमान
बहुत ही धीमी गति है.
यदि यह गति धीमी ही हो
तो मुझे कष्ट नहीं होता.
जैसे शिशु 'अकाल वृद्धावस्था' को प्राप्त नहीं होता.
बीच में जी लेता है 'चंचल बचपन''
जीता है 'प्रशिक्षु किशोरावस्था'
भोगता है 'उर्जावान यौवन'
उतारता है अनुभवपरक प्रौढ़ता
और अंत में,
बिछा जाता है अपने समाज में
अपनी क्षमताओं के साथ
अलग-अलग अनुपात में
नैतिक मूल्यों की,
रीति-रिवाजों के धागों से बुनी,
रंगीन छापों से संस्कारित
'विरासत की चादर'.
अब मेरे भीतर तक नहीं है
एक भी जलकण.
जो मेरे प्रत्येक कण को
परस्पर थामे रखने का कारण था
मेरा आकर्षण था
मैं उसके पास जब भी जाता
वह अपनी अलग पहचान खो देता
मुझसे तादात्म्य कर मुझमें विलीन हो जाता.
'यह प्रक्रिया' मेरे लिए 'प्रेम' थी.
मेरे प्रेम को मुझसे किसने छीना?
कौन उसका हरण कर गया?
किसने मेरी अन्तर्निहित
जलीय भावनाओं को वाष्पित कर दिया?
— क्या मानवीय कृत्यों ने?
या फिर विधाता की इच्छा ने?
— अरे कहीं सचमुच तो मेरा स्वाभाविक क्षरण नहीं हुआ?
अथवा नए रूप पाने को हो रहा है मेरा गमन.
करो आश्चर्य, क्योंकि मैं बहने लगा हूँ.
करो आश्चर्य, क्योंकि मैं स्थिर नहीं.
करो आश्चर्य, क्योंकि आपने अभी जाना है.
अंश और अंशी के सम्बन्ध को पहचाना है.
आत्मा का विलय परमात्मा में होता है.
क्या मैं अपने चट्टान रूप को बिना रेत किये विलीन हो सकता हूँ?
यदि नहीं, तो आश्चर्य किस बात का
मुझे भी तो सद्गति चाहिए, मोक्ष चाहिए.
नए रूप पाने को इस प्रक्रिया से निकलना ही होगा.
मुझे शान्ति से नया आकार पाने दो
हो-हल्ला न करो
इस हो हल्ले से शांत ठहरा समीर गदला हो जाएगा.
नयी सोच का बुद्धूजीवी [बुद्धिजीवी]
ग्लोबल-वार्मिंग, ग्लोबल-वार्मिग चिल्लाएगा.
इसलिए
चुप! ... शांत!!
चुपचाप देखो मेरा दूसरा जन्म.
उनका लिंक है: http://27amit.blogspot.com/2010/04/blog-post_23.html
"आज आपके पास
आश्चर्य करने के अलावा कुछ नहीं."
देखो! शुरू हो गया है मेरा
— स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढना.
— मज़बूत चट्टान से कंकणों में बदलना.
— कंकणों से रेत में तब्दील होना.
'कंकणों का एकजुट हो जाना'
लम्बे समय बाद चट्टान रूप में पहचाना जाता है.
यह तो मेरी नियति है.
प्रकृति की निरंतर चलायमान
बहुत ही धीमी गति है.
यदि यह गति धीमी ही हो
तो मुझे कष्ट नहीं होता.
जैसे शिशु 'अकाल वृद्धावस्था' को प्राप्त नहीं होता.
बीच में जी लेता है 'चंचल बचपन''
जीता है 'प्रशिक्षु किशोरावस्था'
भोगता है 'उर्जावान यौवन'
उतारता है अनुभवपरक प्रौढ़ता
और अंत में,
बिछा जाता है अपने समाज में
अपनी क्षमताओं के साथ
अलग-अलग अनुपात में
नैतिक मूल्यों की,
रीति-रिवाजों के धागों से बुनी,
रंगीन छापों से संस्कारित
'विरासत की चादर'.
अब मेरे भीतर तक नहीं है
एक भी जलकण.
जो मेरे प्रत्येक कण को
परस्पर थामे रखने का कारण था
मेरा आकर्षण था
मैं उसके पास जब भी जाता
वह अपनी अलग पहचान खो देता
मुझसे तादात्म्य कर मुझमें विलीन हो जाता.
'यह प्रक्रिया' मेरे लिए 'प्रेम' थी.
मेरे प्रेम को मुझसे किसने छीना?
कौन उसका हरण कर गया?
किसने मेरी अन्तर्निहित
जलीय भावनाओं को वाष्पित कर दिया?
— क्या मानवीय कृत्यों ने?
या फिर विधाता की इच्छा ने?
— अरे कहीं सचमुच तो मेरा स्वाभाविक क्षरण नहीं हुआ?
अथवा नए रूप पाने को हो रहा है मेरा गमन.
करो आश्चर्य, क्योंकि मैं बहने लगा हूँ.
करो आश्चर्य, क्योंकि मैं स्थिर नहीं.
करो आश्चर्य, क्योंकि आपने अभी जाना है.
अंश और अंशी के सम्बन्ध को पहचाना है.
आत्मा का विलय परमात्मा में होता है.
क्या मैं अपने चट्टान रूप को बिना रेत किये विलीन हो सकता हूँ?
यदि नहीं, तो आश्चर्य किस बात का
मुझे भी तो सद्गति चाहिए, मोक्ष चाहिए.
नए रूप पाने को इस प्रक्रिया से निकलना ही होगा.
मुझे शान्ति से नया आकार पाने दो
हो-हल्ला न करो
इस हो हल्ले से शांत ठहरा समीर गदला हो जाएगा.
नयी सोच का बुद्धूजीवी [बुद्धिजीवी]
ग्लोबल-वार्मिंग, ग्लोबल-वार्मिग चिल्लाएगा.
इसलिए
चुप! ... शांत!!
चुपचाप देखो मेरा दूसरा जन्म.
गुरुवार, 22 अप्रैल 2010
गोबर का कमाल
आधा गाँव
— आधा शहर
घूमें ढोर
— आठों पहर.
डाले बाँह
— हो निडर.
बाँहों में
— बेखबर.
सुबह शाम
— सड़कों पर.
घूमें हैं
— वधु-वर.
निकला बाजू
— ट्रक होकर.
उछला "छप्प्प"
— से गोबर.
[उड़न तश्तरी पर सवार श्रीमान समीर लाल जी को समर्पित]
समीर सर से एक प्रश्न: यदि कहीं कुछ लिखा जाता है तो बिना प्रभाव पड़े क्या रहा जा सकता है? यदि गोबर "उछाल पद्धति" से खुद पर आ गिरे तो कोई प्रतिक्रिया क्या आप नहीं देंगे?
— आधा शहर
घूमें ढोर
— आठों पहर.
डाले बाँह
— हो निडर.
बाँहों में
— बेखबर.
सुबह शाम
— सड़कों पर.
घूमें हैं
— वधु-वर.
निकला बाजू
— ट्रक होकर.
उछला "छप्प्प"
— से गोबर.
[उड़न तश्तरी पर सवार श्रीमान समीर लाल जी को समर्पित]
समीर सर से एक प्रश्न: यदि कहीं कुछ लिखा जाता है तो बिना प्रभाव पड़े क्या रहा जा सकता है? यदि गोबर "उछाल पद्धति" से खुद पर आ गिरे तो कोई प्रतिक्रिया क्या आप नहीं देंगे?
शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010
मिस्टर पेटूराम की चिकित्सा
मिले एक दिन बाबा राम
बोले — कर लो प्राणायाम
पूरे दिन में बस दो बारी
खाना खाओ शाकाहारी
तीन समय लो प्रभु का नाम
सुबह, दोपहर और शाम
जागो चार बजे तुम रोज
आलस छोडो, भर लो ओज
पाँच जगह की करो सफाई
नोज़, इयर, टंग, स्किन, आई
लंच और डिनर के बीच
छह घंटे का अंतर खींच
सप्ताह में जो दिन हैं सात
करो किसी दिन व्रत की बात
ऑफिस के घंटे हैं आठ
मेहनत कर लो खोल कपाट
रात नौ बजे तक सो जाओ
टीवी प्रोग्राम नहीं चलाओ
पिचकेगा दस दिन में पेट
छोटा नहीं लगेगा गेट.
[इस बार बच्चों के लिए गिनती वाक्यों के बीच में है]
बोले — कर लो प्राणायाम
पूरे दिन में बस दो बारी
खाना खाओ शाकाहारी
तीन समय लो प्रभु का नाम
सुबह, दोपहर और शाम
जागो चार बजे तुम रोज
आलस छोडो, भर लो ओज
पाँच जगह की करो सफाई
नोज़, इयर, टंग, स्किन, आई
लंच और डिनर के बीच
छह घंटे का अंतर खींच
सप्ताह में जो दिन हैं सात
करो किसी दिन व्रत की बात
ऑफिस के घंटे हैं आठ
मेहनत कर लो खोल कपाट
रात नौ बजे तक सो जाओ
टीवी प्रोग्राम नहीं चलाओ
पिचकेगा दस दिन में पेट
छोटा नहीं लगेगा गेट.
[इस बार बच्चों के लिए गिनती वाक्यों के बीच में है]
गुरुवार, 15 अप्रैल 2010
मिस्टर पेटूराम
एक थे मिस्टर पेटूराम
उनका पेट भरा गोदाम
दो थे उनके मोटे हाथ
घूम नहीं पाते एक साथ
तीन बार ना खाते थे
हर दम चरते रहते थे
चार बार खाते थे चाट
बर्गर, भल्ले, टिक्की हाट
पाँच बार पीते थे चाय
दरवाजे पर रोती गाय
छह बार तम्बाकू पान
इधर-उधर हर तरफ निशान
सात बार करते स्मोक
खाँसा करते खुल-खुल खौंक
आठ बार पीते कोल्ड-ड्रिंक
हेल्थ से छूटा पूरा लिंक
नौ पैकेट खाते थे चिप्स
सूखे-सूखे रहते लिप्स
दस घंटे करते आराम
गिर जाते थे जहाँ धडाम.
उनका पेट भरा गोदाम
दो थे उनके मोटे हाथ
घूम नहीं पाते एक साथ
तीन बार ना खाते थे
हर दम चरते रहते थे
चार बार खाते थे चाट
बर्गर, भल्ले, टिक्की हाट
पाँच बार पीते थे चाय
दरवाजे पर रोती गाय
छह बार तम्बाकू पान
इधर-उधर हर तरफ निशान
सात बार करते स्मोक
खाँसा करते खुल-खुल खौंक
आठ बार पीते कोल्ड-ड्रिंक
हेल्थ से छूटा पूरा लिंक
नौ पैकेट खाते थे चिप्स
सूखे-सूखे रहते लिप्स
दस घंटे करते आराम
गिर जाते थे जहाँ धडाम.
कबाड़ीवाला
घर के एक कोने में
कर दी हैं इकट्ठी
घर के सभी सदस्यों ने
— अपनी-अपनी रद्दी.
माँ
महीनों से
जोड़ रही थी जिस कबाड़े को
वह कबाड़ा बिक गया
— पिता की बिना मर्जी.
लास्ट सन्डे
न्यूज़पेपर में छपा जो
एडवरटायिज़ — "फ्लेट एमआईजी बनेंगे".
— खोजते हैं अब उसी को भैया-भाभी.
पिछले हफ्ते ही खरीदा —
"रोज़गार"
वैकेंसी थी — किसी कम्पनी को
चाहिए था 10 वीं पास 'चौकीदार'.
घर में तो मैं
चौकीदारी कर न पाया.
ले गया सब — कबाड़ीवाला.
बहन ने जो सिलने दिए थे सूट
उसकी पर्ची नहीं मिलती.
संदेह रद्दी पर उसे है.
— अब, लौटाएगा न सूट दर्जी.
पिता झल्लाते ढूँढ़ते हैं
'योग की पुस्तक'
वृद्धावस्था पेंशन की
— उसमें रखी थी अर्जी.
माँ थी सचमुच परेशान
शाम तक उसे करना था
— 'इंतजाम'.
इसलिए तो बेची थी रद्दी
मिलेगा पैसा
तो बनेगी शाम की सब्जी.
कबाड़ीवाला
ले गया अरमान सारे.
मेरा संभावित रोज़गार.
भैया-भाभी के सपनों का घर.
बहन का नया फैशन.
वृद्ध माँ-पिता की आखिरी उम्मीद.
— अब काम किया जाएगा फर्जी.
कर दी हैं इकट्ठी
घर के सभी सदस्यों ने
— अपनी-अपनी रद्दी.
माँ
महीनों से
जोड़ रही थी जिस कबाड़े को
वह कबाड़ा बिक गया
— पिता की बिना मर्जी.
लास्ट सन्डे
न्यूज़पेपर में छपा जो
एडवरटायिज़ — "फ्लेट एमआईजी बनेंगे".
— खोजते हैं अब उसी को भैया-भाभी.
पिछले हफ्ते ही खरीदा —
"रोज़गार"
वैकेंसी थी — किसी कम्पनी को
चाहिए था 10 वीं पास 'चौकीदार'.
घर में तो मैं
चौकीदारी कर न पाया.
ले गया सब — कबाड़ीवाला.
बहन ने जो सिलने दिए थे सूट
उसकी पर्ची नहीं मिलती.
संदेह रद्दी पर उसे है.
— अब, लौटाएगा न सूट दर्जी.
पिता झल्लाते ढूँढ़ते हैं
'योग की पुस्तक'
वृद्धावस्था पेंशन की
— उसमें रखी थी अर्जी.
माँ थी सचमुच परेशान
शाम तक उसे करना था
— 'इंतजाम'.
इसलिए तो बेची थी रद्दी
मिलेगा पैसा
तो बनेगी शाम की सब्जी.
कबाड़ीवाला
ले गया अरमान सारे.
मेरा संभावित रोज़गार.
भैया-भाभी के सपनों का घर.
बहन का नया फैशन.
वृद्ध माँ-पिता की आखिरी उम्मीद.
— अब काम किया जाएगा फर्जी.
बुधवार, 14 अप्रैल 2010
दिवा-स्वप्न
एँ! क्या मैं सो रहा था?
जो मैंने देखा, समझा — झूठ था?
इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच नहीं?
अजमल कसाब को फाँसी हो चुकी है!
सीरियल बम-ब्लास्टों के के गुनाहगार — जेल के अन्य कैदियों के द्वारा मार दिए गए!
अजी! मैंने लाइव टेलीकास्ट देखा!
भारत ने जो-जो सबूत पाकिस्तान को दिए
उनके बिनाह पर पाकिस्तान ने दहशतगर्दियों पर मुकम्मल कार्रवाई की.
भारत ने जैसा-जैसा चाहा पाकिस्तान ने वैसा-वैसा ही किया.
ज़रदारी मुशर्रफ शरीफ सब एक साथ
मनमोहन के एक बार बुलाने पर/ दिल्ली में/
पूरे मीडिया के सामने/ आतंक के खिलाफ शुरू हुयी मुहीम में
हाथ से हाथ मिला/ गले से गले लगा/ आकर/ मिलकर खड़े हो गए.
ध्यान रहे — वह ईद का मौक़ा नहीं था
जिस कारण वे इकट्ठा थे.
साल में एक-आद बार ऐसा करना उनके साम्प्रदायिक सौहार्द वाले शेड्यूल में है.
मेरी शहीदों की फेहरिस्त
फिल्मी कलाकारों, क्रिकेटरों की फेहरिस्त से ज़रा छोटी है.
फिल्मी कलाकार, क्रिकेटर्स की फेहरिस्त तो मैं डेली अपडेट करता हूँ.
— मीडिया जो है.
लेकिन शहीदों की फेहरिस्त को मैंने कई सालों से अपडेट नहीं किया.
आजादी से पहले के शहीद ही मुझे याद है.
वह भी पूरे नहीं.
क्या बाद के शहीद तन्ख्वाही थे, इसलिए उन्हें लिस्ट में ना जोडूँ?
— कारगिल में कौन-कौन शहीद हुए?
— मुंबई हमले में किस-किस कमांडो ने जान गँवाई?
— दिल्ली के जामिया नगर में किस पुलिसकर्मी की जान पर बन आई?
— भारत-पाक सीमा पर घुसपैठियों से टक्कर लेते किस-किस जवान ने गोली खायी?
अरे भाई, उन सबके नाम खोजो/ मुझे दो/ मैं लिस्ट अपडेट करूंगा.
मैं भी एक शाम नए शहीदों के नाम करूंगा.
अब शहादत का जज्बा नहीं, जो शहादत का काम करूँ?
नाम ही याद कर लूं/ शहीदों की लिस्ट ही अपडेट कर लूं.
किसी आई-क्यू कम्पटीशन में
भूले-बिसरे कोई पूछ ही बैठे.
— तब/ मुझे यदि याद रहा
— बताकर/ इस कमजोर शरीर के साथ
— जीत लूँ/ एक बड़ी धनराशि.
अँ! क्या मैं सो रहा था!!
जो मैंने देखा/ समझा — झूठ था/ इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच है?
क्या सच है —
संत साधु-समाज की भागीदारी बड़ी है देश की राजनीति में?
रामदेव और मायावती ने खोज लिया है अपना-अपना चन्द्रगुप्त?
विदेशी कम्पनियों का रंगीन पानी बेचकर बने बिगबी और लिटिलटी
बन नए हैं भारत रत्न के दावेदार?
क्या सच है —
भाजपा को मिल गए हैं चुनाव लड़ने को राष्ट्रीय मुद्दे?
कांग्रेस को फिर से सरकार बनाने को गांधी परिवार के मुरदे?
क्या सच है —
हो गयी है देश में शान्ति, सौहार्द, परस्पर भाईचारा?
या झूठ है? सरासर झूठ है?
मैं झूठ ही देखे जा रहा हूँ लगातार?
या मैं लाख कोशिशों के बावजूद जाग नहीं पा रहा हूँ?
जाग नहीं पा रहा हूँ....
जो मैंने देखा, समझा — झूठ था?
इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच नहीं?
अजमल कसाब को फाँसी हो चुकी है!
सीरियल बम-ब्लास्टों के के गुनाहगार — जेल के अन्य कैदियों के द्वारा मार दिए गए!
अजी! मैंने लाइव टेलीकास्ट देखा!
भारत ने जो-जो सबूत पाकिस्तान को दिए
उनके बिनाह पर पाकिस्तान ने दहशतगर्दियों पर मुकम्मल कार्रवाई की.
भारत ने जैसा-जैसा चाहा पाकिस्तान ने वैसा-वैसा ही किया.
ज़रदारी मुशर्रफ शरीफ सब एक साथ
मनमोहन के एक बार बुलाने पर/ दिल्ली में/
पूरे मीडिया के सामने/ आतंक के खिलाफ शुरू हुयी मुहीम में
हाथ से हाथ मिला/ गले से गले लगा/ आकर/ मिलकर खड़े हो गए.
ध्यान रहे — वह ईद का मौक़ा नहीं था
जिस कारण वे इकट्ठा थे.
साल में एक-आद बार ऐसा करना उनके साम्प्रदायिक सौहार्द वाले शेड्यूल में है.
मेरी शहीदों की फेहरिस्त
फिल्मी कलाकारों, क्रिकेटरों की फेहरिस्त से ज़रा छोटी है.
फिल्मी कलाकार, क्रिकेटर्स की फेहरिस्त तो मैं डेली अपडेट करता हूँ.
— मीडिया जो है.
लेकिन शहीदों की फेहरिस्त को मैंने कई सालों से अपडेट नहीं किया.
आजादी से पहले के शहीद ही मुझे याद है.
वह भी पूरे नहीं.
क्या बाद के शहीद तन्ख्वाही थे, इसलिए उन्हें लिस्ट में ना जोडूँ?
— कारगिल में कौन-कौन शहीद हुए?
— मुंबई हमले में किस-किस कमांडो ने जान गँवाई?
— दिल्ली के जामिया नगर में किस पुलिसकर्मी की जान पर बन आई?
— भारत-पाक सीमा पर घुसपैठियों से टक्कर लेते किस-किस जवान ने गोली खायी?
अरे भाई, उन सबके नाम खोजो/ मुझे दो/ मैं लिस्ट अपडेट करूंगा.
मैं भी एक शाम नए शहीदों के नाम करूंगा.
अब शहादत का जज्बा नहीं, जो शहादत का काम करूँ?
नाम ही याद कर लूं/ शहीदों की लिस्ट ही अपडेट कर लूं.
किसी आई-क्यू कम्पटीशन में
भूले-बिसरे कोई पूछ ही बैठे.
— तब/ मुझे यदि याद रहा
— बताकर/ इस कमजोर शरीर के साथ
— जीत लूँ/ एक बड़ी धनराशि.
अँ! क्या मैं सो रहा था!!
जो मैंने देखा/ समझा — झूठ था/ इंडिया टीवी की खबर था?
क्या सच है?
क्या सच है —
संत साधु-समाज की भागीदारी बड़ी है देश की राजनीति में?
रामदेव और मायावती ने खोज लिया है अपना-अपना चन्द्रगुप्त?
विदेशी कम्पनियों का रंगीन पानी बेचकर बने बिगबी और लिटिलटी
बन नए हैं भारत रत्न के दावेदार?
क्या सच है —
भाजपा को मिल गए हैं चुनाव लड़ने को राष्ट्रीय मुद्दे?
कांग्रेस को फिर से सरकार बनाने को गांधी परिवार के मुरदे?
क्या सच है —
हो गयी है देश में शान्ति, सौहार्द, परस्पर भाईचारा?
या झूठ है? सरासर झूठ है?
मैं झूठ ही देखे जा रहा हूँ लगातार?
या मैं लाख कोशिशों के बावजूद जाग नहीं पा रहा हूँ?
जाग नहीं पा रहा हूँ....
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
सविता
पिये! तुम गरमी में ना आओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
ताप से मैं आकुल-व्याकुल
ह्रदय-खग करता है कुल-कुल
पिकानद साथ रहो मिलजुल
आपका रूप बड़ा मंजुल
उसी को मेरे लिए सजाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
आपके मौन शब्द मुझसे
न जाने कितने ही अतिशय
बात कह जाते थे रसमय
पिये! फिर से वैसी ही लय
लिए तुम मुझमय गाने गाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
चली फिर भी तुम इक दो पग
रोकते हैं खग भी जग-जग
सजी आती हो क्यूँ री अब
मना करते हैं फिर से सब
अरी! तुम बात मान जाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
ताप से मैं आकुल-व्याकुल
ह्रदय-खग करता है कुल-कुल
पिकानद साथ रहो मिलजुल
आपका रूप बड़ा मंजुल
उसी को मेरे लिए सजाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
आपके मौन शब्द मुझसे
न जाने कितने ही अतिशय
बात कह जाते थे रसमय
पिये! फिर से वैसी ही लय
लिए तुम मुझमय गाने गाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
चली फिर भी तुम इक दो पग
रोकते हैं खग भी जग-जग
सजी आती हो क्यूँ री अब
मना करते हैं फिर से सब
अरी! तुम बात मान जाओ.
जहाँ पर रहती हो, रह जाओ.
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
उर द्वंद्व
दो उरों के द्वंद्व में
लुप्त बाण चल रहे
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता।
नयन बाण दोनों के
आजमा वे बल रहे
बाणों की भिडंत में
स्वतः चार हो रहे।
बाणों की वर्षा से
हार जब दोनों गए
मात्र एक बाण छोड़
संधि हेतु बढ़ गए।
नाग पाश बाहों का
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह घाव दोनों के
कपोलों पर बन गए।
दोनों ही हैं शस्त्रविद
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है
दोनों सृष्टि हेतु हैं
न करें तो विनाश है।
दोनों तो हैं संधि-मित्र
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में
मनु पुत्र उत्पन्न हों॥
[एक हलकी कविता, श्रृंगारिक कविता का प्रारंभ १९८९]
लुप्त बाण चल रहे
स्नेह-रक्त बह रहा
घाव भी हैं लापता।
नयन बाण दोनों के
आजमा वे बल रहे
बाणों की भिडंत में
स्वतः चार हो रहे।
बाणों की वर्षा से
हार जब दोनों गए
मात्र एक बाण छोड़
संधि हेतु बढ़ गए।
नाग पाश बाहों का
छोड़ दिया दोनों ने
स्नेह घाव दोनों के
कपोलों पर बन गए।
दोनों ही हैं शस्त्रविद
दोनों पर ब्रह्मास्त्र है
दोनों सृष्टि हेतु हैं
न करें तो विनाश है।
दोनों तो हैं संधि-मित्र
प्रलय काल जब भी हो
जल-प्लावन काल में
मनु पुत्र उत्पन्न हों॥
[एक हलकी कविता, श्रृंगारिक कविता का प्रारंभ १९८९]
रविवार, 11 अप्रैल 2010
राजा आम
एक रसीला पीला आम
दो केलों ने किया सलाम।
तीन संतरे पकड़ के लाये
चार चीकू का गला दबाये
पाँच पपीते मिलकर बोले —
छह लीची के छिलके खोले
सात सेब को चाकू मारा
आठ अनारों का हत्यारा
नौ नारियल पटक के फोड़े
दस तरबूजों पर बम छोड़े
सज़ा दो इनको राजा आम
पिचका, कर दो काम तमाम।
दो केलों ने किया सलाम।
तीन संतरे पकड़ के लाये
चार चीकू का गला दबाये
पाँच पपीते मिलकर बोले —
छह लीची के छिलके खोले
सात सेब को चाकू मारा
आठ अनारों का हत्यारा
नौ नारियल पटक के फोड़े
दस तरबूजों पर बम छोड़े
सज़ा दो इनको राजा आम
पिचका, कर दो काम तमाम।
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