आज का
प्रत्येक व्यक्ति
हो चुका है जागरूक
शिक्षा ने उसमें चेतना घुसाई है.
प्रशासन भी दे रहा है
भरपूर सहयोग शिक्षा को.
— आँखें खोलने के लिए अंधी रूढ़ियों की —
कर रहा है स्थापित विश्वविद्यालय.
व्यक्ति पा सके रोजगार
ऐसे-ऐसे पाठ्यक्रमों को
चलाता है जनता के बीच.
कि पानवाला, तांगेवाला, रिक्शावाला, दिहाड़ी मज़दूर
कर सके अपने बिजनिस को नवीन, और नवीन.
'बंधुआ मज़दूरी' 'बाल मज़दूरी' कानूनन है जुर्म.
जागरूकता अभियान ज़ारी है शासन का.
एनजीओज़ भी चिल्लाते हैं
न्यूज़ चैनल के सामने
'बंद करो बंद करो...'
लेट जाते हैं सड़कों पर — भावावेश में.
लेकिन इन सब क्रियाकलापों के बावजूद
चले जा रही 'बंधुआ मज़दूरी'
— अपने नए रूप में.
"कोंट्रेक्ट सर्विसेज़" — एक बढिया-सा नाम
पॉलिश किया सा लगता है.
जिसे क़ानून भी शोषक की सुविधानुसार तोड़-मरोड़ देता है.
अब शोषण करने का तरीका बदल गया है
बदल गए हैं — सामंत, ज़मींदार, पूँजीपति
आ रहे हैं निश्चित अवधि के
कोन्ट्रेक्ट-क्वार्डीनेटर, प्रोजेक्ट मेनेजर.
आज
बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं
पढ़े-लिखों की ज़मात — काम करने को.
बंधुआ मज़दूरी के लिए आज
बाध्य नहीं किया जाता
बाध्य हो जाता है खुद-बा-खुद
रोज़गार पाने को भटकता हुआ ग्रेजुएट.
परिस्थितियाँ उससे भरवाती हैं – पानी,
नए ज़माने और बीते ज़माने के बीच
तब वह भेद नहीं कर पाता.
उसको अपनी स्थिति एक बंधुआ मज़दूर-सी लगती है.
एक नौकरी के बाद दूसरी नौकरी की तलाश में
या उसी नौकरी को स्थिर रखने के प्रयास में
सहता है सब कुछ
और रहता है
पहले की ही तरह तनाव में.
ज़माना कहाँ बदला है?
बदले हैं तरीके — शोषण के.
अब इन तरीकों के तहत ही
होगा उन व्यापारियों का भी शोषण
जिनकी दुकानें सील हो चुकी हैं
कोर्ट के आदेश पर.
आना होगा उनको भी अपने साजो सामान के साथ
मॉल में, मल्टीनेशनल बिजनिस कॉम्लेक्स में
एक नए कोन्ट्रेक्ट के साथ
"माल बेचो, कमीशन दो."
यही नियम तो रहा है पहले भी
चौथ वसूलने का.
अधिक से अधिक वसूली को खड़े हैं
हमारे रहम दिल सरमायेदार
टैक्स देना तो है ठीक
लेकिन जड़ें उखाड़कर पेड़ की
दूसरी जगह रोंपने में सूख नहीं जायेंगी
उसकी डालें, उसकी टहनियाँ, पत्ते
शायद मर ही जाये पूरा पेड़.
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प्रकृति सँवारती रही है हमारे परिवेश को
बसंत में सज उठती है पूरी की पूरी
पतझड़ भी पीले पत्तों को हटा
नयों को आने का अवसर देता है.
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— "दिल्ली को बेहतर करने का है प्रयास"
बेहतर करने के प्रयास में
दिल्ली को दी जा रही आर्टिफिशियल चकाचौंध
गाँवों से निकल शहर आई संस्कृति
कहीं पूरी की पूरी अपनी पहचान ना खो दे.
बहरहाल एक बात साफ़ है
होने वाली है शुरुआत
बंधुआ मज़दूरी की
वह भी नए ज़माने की
अब नयी चकाचौंध के साथ. ....
[मज़दूर दिवस पर विशेष]
यथार्थ का चित्रण करती और मजदूरों की दयनीय स्थिति को पेश करती और मानवता के पतन की कहानी कहती हुई रचना के लिए धन्यवाद /
जवाब देंहटाएंजय कुमार जी धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कह दिया आपने अपने लेख में आज की शिक्षा मजदूरी ही सिखा रही है , बाकि जितने भी स्वालंबी उद्योगपति है अधिकतर कम शिक्षित लोग ही अधिक विस्तार दे पाए है . फिर चाहे उनकी संतानों ने उसे संभाला है ,पर प्रशाशन विधा सीखकर प्रशाशन को अधिक बेगार किस प्रकार ली जाये कर्मचारियों से इसी दिशा में मोड़ा है .
जवाब देंहटाएंlagaa ki kuchh padhaa hamne
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