मंगलवार, 2 नवंबर 2010

उस खुदा से कोई बेहतर नहीं

[यह रचना एक प्रतिक्रिया मात्र है]


जो अमुक तारीख को 
भरी थी फीस
लाया था 

नयी चप्पलें और कमीज़.
एक कम दाम वाली 

साइकिल और
छठी जमात के 

दाखिले का परचा 
वह भी कई स्कूलों में से 
किसी एक बेहतर का.

"मदरसे तो सब एक से होते हैं
वहाँ नहीं होती ऎसी समस्या ढूँढने की"
ऐसा — बड़े अब्बा ने बोला था.

फिर भी ना जाने किस ताकत ने
मुझे सही-सही कदम उठाने को हमेशा उकसाया

लम्बे चौड़े रास्तों पर 

चलने की बजाय
मैंने उस पतली गली में 

चलना बेहतर पाया
जो बेशक बदबूदार 

मीट की दुकानों से पटी थी
फिर भी मुझे 

वहाँ से एक झोला भर
रात के खाने का 

बंदोबस्त करने की पड़ी थी.
बारूदी पटाखों का शौक मुझे भी था
और मेरे बेटे को भी है.

बहरहाल, बेटा !
जितनी अच्छी बातों का फैसला है
वह मेरा खुदा ही मुझे बक्शता है.
और जितनी मेरी ऐन्द्रीय इच्छाएँ हैं
खाने-पीने और शौक पूरे करने की
उसमें मेरे खुदा का कोई रोल नहीं.

समझे ना बेटा.
उस खुदा से कोई बेहतर नहीं
और मैं भी नहीं.



मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.