शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

भक्तकवियों की कारिस्तानी

कवि हुआ पस्त, संस्कृति मंच पर हिला कमर / कह गयी नग्न नारी, rahne में नहीं कसर/ आज की सभ्यता परम्परा विकृत बर्बर / दिख रही आधुनिक किंचित वसना मुझे निडर।
पर्तिपल परिवर्तित रीधान, हटता दुराव / वस्त्रों से बाहर आने का बढ़ रहा चाव / संकोच शील मर्यादा संयम का विधान / ढीला पड़ता जा रहा माजिक संविधान।
कवि का कौशल ! कामुकतानल रत आठ प्रहर / उद्धत बालक-बालिका सकल हर गाँव शहर / बन रहा अवस्था अनअनुकूल सबका स्वभाव। / मिट रहा उचित-अनुचित का अंतर भी, बहाव / आया है गीतों के द्वारा दो राय नहीं / गंभीर विषय पर भी कर लेते हीं-हीं-हीं।
कामोदगार विस्तार विकल मम अंतस्तल / उत्तेजक गीतों का पीते नर-नारी गरल / दोलन नितम्ब करने वालों की नयी पौध / गीतों पर थिरकाती उरोज, रहता न बोध।
खुल रहा कौन-सा अंग कौन-सा हैं बिम्बित / वस्त्रों में, टांगों को फैंके करके लंबित / वासना केंद्र बन गया मात्र नारी शरीर / है छिपा रही उरुओं की बस छोटी लकीर।
छोटे बालक-बालिका हमारे अब घर पर / अश्लील गीत गाते हैं सुनते मात-पितर / होते हैं कुपित वृद्ध, लेकिन उनपर प्रभाव / पड़ता बिलकुल भी नहीं बना जिद्दी स्वभाव।
कुंठित है यौवन आज तपित मन काम अनल / हर पल चिंता रत जीवन कैसे जियें सरल/ हर विषय मनन से पूर्व करे मस्तिष्क वरण / नारी में बिन वस्त्रों की कल्पना का चित्रण।
उरु कसा पेंट हो विपर्यस्त परिधान वक्ष / अथवा छोटे निक्कर के साथ बनियान, भक्ष / करने की सोचा करता हूँ नारी शरीर / टिक जाते चख क्यों देख हरण द्रोपदी चीर।
टीवी में कनु के द्वारा उत्थित गोपी वसन / नारी को नंगा देखन के अभ्यस्त नयन / हो चुके, चाह कर भी न छूटती है आदत / धर दिया ताक पर धर्म , पुण्य कर दिए विगत।
ले रहे श्वास अंतिम लटके हैं पाँव कबर / फिर भी फिल्मी वृद्धों की जिह्वा लपर-लपर / करती स्ट्रक्चर देख बेटी का उत्तेजक / लाते फिल्मों में दिखलाते उरु-वक्ष तलक।
फिल्मी निर्माता नव कन्या को दिखा सपन / मामला व्यक्तिगत ठहराता कर संग शयन / फैशन परेड में हो ऐय्याशों की जमघट / 'मोडल सुप्रीम' जजमेंट किया करते लम्पट।
है 'प्रतिस्पर्धा' आवश्यकता आधुनिक समय / है सता रहा नारी को भी 'पिछडन' का भय / सो लगा दिया हैं दांव स्वयं का ही शरीर / करवाने को तत्पर रहती खुद हरण-चीर।
क्षुद्रता प्रतिष्ठित करने का अब चला चलन / है स्टिकी चेपी वाली नारी सम्मानित जन / 'उपभोग वस्तु' आवश्यकता होती मौलिक / है भोगवादी कल्चर की नारी सिम्बोलिक।
मैं क्यों न कहूँ कटु उक्ति, देखता हूँ सब कुछ / अब नहीं हुवे संकोच देखने में दो कुच /कर रहे श्रवन हैं आप, स्वयं करता वाचन / आनंद ले रहा स्यात आपका रमता मन।
कटु सुनकर भी 'चिकने बैंगन' प्रतिक्रिया हीन / अपशब्द नहीं कहते, मनोरंजन करें बीन / महिषा समक्ष मैं बजा गाल करता बकबक / उसका होता मन-रंजन मेरा शुष्क हलक।
आदर्श आज बच्चों के फिल्मी कलाकार / जाने-अनजाने डाल रहे दूर संस्कार। अब नहीं फिल्म उद्देश्य मात्र मन का रंजन / शिक्षा प्रसार का व्याज, सभ्यता का भंजन।
फिल्मों में प्राय 'फादर' को महिमामंडित / कर सभ्यशिष्ट दिखलाते पर जोकर 'पंडित'/ दुष्कर्म रोकने के निमित्त दुष्कर्म घटित / दुष्कर्म दिखा दर्शक को करते आमंत्रित।
भड़काते हैं केवल उनकी वासना भूख / दुष्कर्म देख जाता संवेदन सभी सूख / फिर सरेआम ह्त्या पर भी रहता दर्शक / वह खडा वहीँ रहता है इज्जत लुटने तक।
जो जमा हुआ था वर्षों से सत संस्कार / घिस गया रगड़ने में सारा उसका उभार / पड़ गए गले में तब से ही इतने बवाल / अश्लील किसे अब कहें? — यही उठता सवाल।
है ब्रह्मचर्य को तौल रहा फिर फिर संयम / पाता बिलकुल भी नहीं संतुलित अंतर मम। / जो रहा सदा से ही विषयों में अनासक्त / संचारित ह्रदय से होता था जो शुद्ध रक्त।
घुल गए प्रतीची से आकर उसमें विकार / संगीत पोप पर थिरक रहे पग, व्यभिचार / करता रहता भीतर ही भीतर अवचेतन / मस्तिष्क , पटकता हाथ-पाँव करता लेतन।
दे रहा तर्क आज का युवा — "क्या है अनुचित? / है कौन व्यक्ति जो नहीं काम से अब कुंठित? / अब की ही करता बात नहीं देखो अतीत / कितने श्रृंगारिक रच डाले पद, चित्र, गीत।
जिसको कहते भगवान् कृष्ण था महारसिक / सौलह हज़ार रानियाँ धरा करता।" 'धिक्-धिक्' — करता मेरा मन सुनकर अपलापी अलाप / कवियों ने ईश्वर पर खुद का थोंप दिया पाप।
रच रहे तभी से कविगण किस्से मनगणंत / मन के विकार का आरोपण करते तुरंत। / भक्ति के बहाने हुआ बहुत कुछ है अब तक / हो रहा आज भी और ना जाने हो कब तक?
ईश्वर की भक्ति हो अथवा दे...श की भक्ति। / विकृत होती जा रही अर्चना की पद्धति। ....
पण्डे भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने निमित्त / भक्ति में दिखलाते अपने को दत्तचित्त/ घंटा निनाद ओ' थाली करके इधर-उधर / ईश्वर को भोग लगा पर खुद का बढे उदर।
... शेष बाद में ...

उलटबांसी

यहाँ से वहाँ तक

जामा मस्जिद के पास
एक से अधिक मीट की हैं दुकान
मुर्गे जैसे छोटे जीवों के शव-शरीर
टंगते — ललचाते मुल्लाजी।

भैंसों गायों बकरों का सर
सजने के लिए दुकानों पर
अल्लाह मियाँ ने खुद कुरआन में लिखवाया।

अब तो पण्डे भी देवी-देव
पर, पशु-पक्षी की बलि चढ़ा
प्रसाद रूप में बंटवाते / खाते
बतलाते — वेदों में है उल्लेखित यह।

'सिक्ख-पंथ' सरदारों का
प्रिय भोज — 'आमलेट' अंडे का
'गुरु-ग्रन्थ साहिब' में नानक ने
मेथड है दिया —
"मक्के दी रोटी सरसों दा साग साथ"।

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