गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

नया साल आया

विप्रा ने .... गौरव से ...
इन्टरनल जोब्स के ज़रिये 
पिछड़ी जातियों के लिये
प्रमोशन का द्वार खुलवाया. 
............ नया साल आया. 

गज़न्फर ने आशीष के ...
........ कान में ..... धीरे से
..... जल्दी सफलता का
....... प्रेरक प्रसंग सुनाया
............ नया साल आया.

देवब्रत ने 
विप्रा के सामने 
पर्सनल इमोशन का ....
....... मेघ-मल्हार गाया 
............ नया साल आया.

योगिता और नेहा ने ...
....... जाटों की स्टडी में
'अरुण कुमार' को
'किंग ऑफ़ क्वेरी' बताया. 
............ नया साल आया.

सीनियर सुधीर ने ...
जूनियर सुधीर से ...
..... टॉयलेट रजिस्टर में 
ओरिजनल नेम बदलवाया 
............ नया साल आया.

रियाज़ ने 
नरेश के हाथ में 
फिक्स डिपोजिट हो जाने पर 
करेंसी ज़मा न कर पाने का 
कम्यूनी- 'कोशन' पेपर थमाया 
............ नया साल आया.

अर्चना ने सुब्रातो को ....
सुबह की शिफ्ट का 
हेल्थ-फायदा बताया 
............ नया साल आया.

पवन ने 
बर्थ-डे कलेक्शन पर 
कोटेश को खुश करने को 
५०% इनकम-टेक्स लगाया 
............ नया साल आया.

हरप्रीत ने चनदीप से 
गठिया दर्द वाली स्टडी के समय 
ऑफिस आने से पहले 
एक्सेस कार्ड एक्सेस करवाया 
............ नया साल आया. 

एक ही समय में 
दो दफ्तरों में 
इकलौता मुर्गा 
जोर से चिल्लाया. 
............ नया साल आया. 

दीपा ने 
पुराने डीओज को 
उनकी भावी टीमलीड का 
................ दर्शन कराया. 
............ नया साल आया.

हरीश ने 
बॉस की बात को 
समझ में आने से पहले 
'हाँमी' में गर्दन को 
ऊपर से नीचे हिलाया 
............ नया साल आया. 

संतोष के ऊपर 
शाम सात बजे 
विनीता मेडम के 
बिहारी भूत ने 
अपना कब्जा जमाया 
............ नया साल आया. 

कुलदीप ने 
प्रमोशन के आशा-दीपक में 
अपना पूरा तेल गिराया 
............ नया साल आया.

चंदर ने 
झल्लाहट में 
कुर्सी पर बैठकर 
लंबा पाँव फैलाया 
............ नया साल आया.

विजय कुमार ने 
अपना डेज़ीग्नेशन 
'CRF डिज़ाइनर' बताया 
खुद की नज़रों में 
अपना महत्व बढाया. 
............ नया साल आया.

विजयालक्ष्मी मेडम ने 
अपने ऑफीशियल टाइम को 
रबड़-बेन्ड बनाया. 
............ नया साल आया. 

और मैंने 
अपने कनवेंस फॉर्म में 
महीने दर महीने 
होम और ऑफिस के बीच 
किलोमीटर डिस्टेंस बढाया 
............ नया साल आया.

[भाग-1]

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

ईश्वर सबके कष्ट हरो

ईश्वर सबके कष्ट हरो. 
मुझमें सारे कष्ट भरो. 
यदि कान हैं तेरे पास 
उनको मेरी ओर करो. 
ईश्वर सबके कष्ट हरो. 
नहीं चाहिए मुझको कुछ भी 
तुम अपना आराम करो. 
लेकिन सबके कष्ट हरो. 
तुम पर है विश्वास हमारा 
बेशक तुम संदेह करो. 
ईश्वर सबके कष्ट हरो. 

रविवार, 12 दिसंबर 2010

श्वेतिमा-सौंदर्य

सुन ली है मैंने
आपकी धड़कन
ह्रदय की.

भीड़ इतनी थी
कि बस में
कान मेरा
(सीट बैठे ) छू रहा था
वक्ष तेरा
आप ठाड़े पास में थे.

बोलते थे आप शायद
"सीट आरक्षित हमारी"
गाड़ियों का शोर
'पौं- पौं'
हो रहा था
नहीं पडता था सुनाई.

मैं विफलता शौक में था
शून्यता के लोक में था
सोचता था –
'भाग्य मेरा
साथ देता क्यों नहीं है'

"नहीं आती शर्म तुझको
बेशरम, बन ढीठ बैठा." –
खड़ा कर देने का 'दम'
उस कर्कशा आवाज़ में था.

हलक सूखा
लग रहा था
मीन मुख में
फँस पड़ा हो कोई 'काँटा'.

हाथ दोनों में से मैंने
एक टाँगा
हेंगर की भाँति ऊपर
और टेका दूसरा
सीट के डंडे के ऊपर
जहाँ पहले से धरे
दो हाथ चिकने
और उनपर केश बिखरे
लालिमा ले बाल काले.
झाँकता था श्वेत सुन्दर
बाल उनसे चमचमाता.
और मुझको था कराता
ज्ञान उसकी अवस्था का.

मेरे उठते सीट से ही
हो गई थी सीट के ही
गिर्द हलचल.
किन्तु मेरा ध्यान उसके
श्वेत कच की ओर ही था.
पा रहा था स्वयं को मैं
श्वेत कच की भाँति
छूटा  -- बिन पुता.

हो गए हैं शेष काले
बाल वो भी लालिमा ले.
देख उनको याद आते क्लास वाले.
मेरी दृष्टि खोजती उनकी सफेदी.
और खुद की श्वेतिमा पर
करती अश्रुपात जमकर.

जड़ हुआ मस्तिष्क, लेकिन
प्रश्न अब भी कर रहा है :
"कौन कब आकर करेगा,
श्वेतिमा-सौन्दर्य को
मौलिक कसौटी पर कसेगा?"


मंगलवार, 30 नवंबर 2010

नवोदित शिक्षाविदों की घबराहट बेवजह है

किसी भी दूसरे के विचारों से अथवा पहले की सूचनाओं से लाभ लेने के लिये प्रायः दो माध्यमों का प्रयोग करते रहे हैं. एक श्रुति परम्परा वाला और दूसरा पाठ पद्धति वाला. 

मनुष्य अपने बाल समय से ही जिज्ञासु रहा हि. उसे श्रुति परम्परावाला मेथड शुरू से अच्छा लगता रहा है. दादा-दादी, नाना-नानी या कभी-कबाह माँ-पिताजी से भी ... काफी पुराने समय से 'वह' किस्से-कहानियों के लोभ में चिपकता रहा है. घर के बड़े-बूढों का लाड़ला कहानियाँ सुन-सुनकर आत्मीयतावश उनका इतना बड़ा हिमायती और आज्ञाकारी हो जाता है कि वह दो पीढ़ियों के विवादों में बुजुर्गों के टोल में शामिल मिलता है. 

प्रारम्भ में चित्रों वाली पुस्तकें आदि के प्रति वह खिंचता है. चित्र उसे समझ में आते हैं क्योंकि उन्हें वह देखता है महसूस करता है. लेकिन पढ़ने के प्रति बच्चे का रुझान नहीं होता क्योंकि वह पढ़ना जानता ही नहीं उसे वह मेहनत से सीखता है. चित्रों की भाषा तीन-चार सालों में उसकी विकसित हो चुकी होती है क्योंकि माता के स्तनों का पान करते-करते वह भाव-भंगिमाओं का पंडित बन गया होता है. बच्चा बहुत अच्छे से माँ और गोदी में उठानेवाले परिवार के अन्य सदस्यों के ... अच्छे-बुरे, डांट के, प्यार के, ममता के, हँसी के, रोने के भावों को समझने लग जाता है. और इसी कारण भावों से जुड़े चित्रों को वह भली-भाँति समझता है. देखा गया है कि कई बच्चे तो चित्रों को देख-देखकर अपनी कहानी भी बनाने लगते हैं. 

जहाँ तक 'रटंत विद्या' की बात है वह दोहरावट पद्धति पर आधारित है. इसका अलग माहात्म्य है. वह किसी के चाहने से समाप्त होने वाली नहीं है. रुचि और अरुचि वाले विषयों को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से पढ़ने की विवशता को परीक्षा के दिनों में 'रटंत विद्या' या दोहरावट पद्धति ही परीक्षा-सागर से पार लगाती रही है. 

आज बाल शिक्षाविदों द्वारा 'पहचान शिक्षा पद्धति' की ओर प्रारम्भिक शिक्षा माध्यम से बालकों को ले चलने का प्रयास बेशक नया नहीं है. लेकिन वर्तमान में सराहनीय अवश्य है. पहचान वाली वस्तुओं और भावों से जोड़कर यदि अक्षरमाला और अन्य बातों को समझाया जाएगा तो बच्चा सहजता से बातें ग्रहण करेगा. बच्चे की जिज्ञासा पहचान के अलावा चीज़ों के प्रति भी हो सकती है जैसे परीकथाओं में. इसमें वह दो चीज़ों को जोड़कर कल्पना कर सकता है — बहन, माँ या आंटी के साथ उड़ते पक्षी को जोड़कर एक परी की कल्पना. 

दूसरे, 'क' से कबूतर या कमल सिखाना ग़लत नहीं कहा जा सकता. ना ही ए फॉर एप्पल बताना ग़लत है. बच्चा इस तरीके से 'क' अक्षर को कबूतर के 'क' के रूप में जानेगा — यह कहना पूरी तरह सही नहीं. इस तरह के बच्चों का अनुपात काफी कम है. यदि मान भी लिया जाये बच्चा 'क' अक्षर को कमल या कबूतर के 'क' रूप में पहचान रहा है तो इससे बछा कौन-सी ग़लत दिशा पकड़ रहा है? यह बच्चे की प्रारम्भिक स्टेज है इसमें बेसिक चीज़ों को बच्चे में भरना पहली जरूरत है न कि सही-ग़लत में पड़ना. यदि ग़लत चीज़ों को नकारना ही है तो निरर्थक शब्दों को भी सिरे से नकारा जाये. जैसे बाल कविताओं में निरर्थक शब्दों की भरमार देखी जाती है फिर भी वे पसंद की जाती रही है. उदाहरण कुछ कविताओं में बेतुके किन्तु गीतिमय शब्द भरे पड़े हैं — सन पकैया, सन पकैया ....., ईलम डीलम ..., आदि आदि ... अन्य उदाहरणों की खोज करनी है तो प्रसिद्ध कवि एवं बाल गीतकार दीनदयाल शर्मा जी के साहित्य में की जा सकती है. 

मतलब यह है कि बच्चा अक्षरमाला जैसे भी सीखे लेकिन वह धीरे-धीरे इस काबिल स्वयं हो जाएगा कि अक्षरमाला के अक्षरों को आदि, मध्य और अंत की स्थिति में आने पर पहचान लेगा और उनका उच्चारण विधान समझ पायेगा. इस सन्दर्भ में शिक्षाविदों की घबराहट बेवजह है. 

[उत्प्रेरक - प्रवीण त्रिवेदी जी, http://primarykamaster.blogspot.com/]




बुधवार, 24 नवंबर 2010

माइन है तो ..............फाइन है

[मेरा है तो अच्छा है]

एक विचारक थे ठीक अमित शर्मा जी की ही तरह. पर वे वर्तमान अमित जी से दो कदम आगे की सोच के थे.   वे मांसाहार करना बुरा नहीं मानते थे. वे केवल बलात्कार को बुरा समझते थे. 
इसलिये उन्होंने इस दुष्कर्म पर प्रतिबंध लगाने को पुरजोर कोशिशें कीं. बलात्कार समर्थकों से बड़ी तार्किक बहस भी की. लेकिन वे उन्हें किसी भी तरह से समझा नहीं पाए. 
बलात्कार समर्थक उसे अपने-अपने धर्मों का आधार कहते थे. वे सभी उस कृत्य को अपनी इच्छा न कहकर परमसत्ता की आज्ञा बताया करते थे. उन्होंने अपने-अपने सुन्दर तर्कों से कुरूप-सी परिभाषायें भी गढ़ लीं.   अमित से दो कदम आगे चलने वाले उन सज्जन ने  अपनी अंतिम कोशिश में अपने ब्लॉग पर दो वीडिओ लगाए. 

पहला वीडिओ ...... 

स्त्री के साथ एकाकी दुष्कर्म का. और 



दूसरा वीडिओ ..... 

अबोध कन्या के साथ सामूहिक दुष्कर्म का. 


______________________________________________________
विरोधियों और समर्थकों ने टिप्पणियाँ दीं : 

१ ] प्रो. बाल की खाल —
आप सौहार्द भंग करने की कोशिश करते हैं जनाब. अपने शास्त्रों में देखिये कितने ही महापुरुषों ने यह सात्विक कार्य किया है 
— रावण ने सीता का हरण किसलिये किया था. जबकि रावण एक वेद-विद्वान् और महापंडित था. [देखें : पंडित खर और दूषण द्वारा रचित 'रावायण', सात्विक बलात  काण्ड, पृष्ठ ३-१३]
— द्रोपदी का चीर हरण करने वाले कौरव राजवंश के लोग थे जिनकी शक्ति के समक्ष पांडव भी अपना मुँह नहीं खोल पाए. [देखें : शिखंडी रचित महाभारत, चीर-हरण पर्व, पृष्ठ ९-२-११] 
अतः आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप इस तरह इस परमसत्ता 'अगाओ' के नेक कर्म के प्रति बदनीयत भावनाएँ न भड़काएँ. यह आपके लिये भी अच्छा होगा. आप इस नेक राह पर चलेंगे तो जन्नत में हूरें आपका इंतज़ार करेंगी. ऐय्याशी को बुरा न ठहराएँ. आप जानते नहीं हैं कि ऐश्वर्य से ही ऐय्याशी बना है. थोड़ा समझदारी पूर्ण परिचय दें. 
________
अगाओ — 'अ' से अल्लाह; 'गा' से GOD, 'ओ' से ओउम 

Time: 2:00AM, 24 November, 2010 Wednesday

२] महाशय मासूम —
आपने इंसानियत से जुदा हरकत की है. आपको कोई हक़ नहीं कि सृष्टि चलाने वाले नियामक कर्म को ही बदनीयत करार दिया जाये. हम तो इस प्रक्रिया से अभ्यास करते हैं प्रजनन सबंधी क्रियाओं का. 

Time: 2:40AM, 24 November, 2010 Wednesday

३] बेनाम भाईजान —
आप खुद तो नामर्द हो कोई दूसरा मर्दानगी का परिचय देता है तो आपके गले नहीं उतरता. 

Time: 4:30AM, 24 November, 2010 Wednesday

४] भाई खूब कही —
आपने एकदम सही कहा. 

Time: 5:31AM, 24 November, 2010 Wednesday

५] मनोभाव-शून्य —
मुझे समझ नहीं आता कि आप इस तरह के मसलों को क्यों उठाते हैं. अरे यह तो व्यक्तिगत इच्छाएँ हैं. आपको गूगल में पोर्न साइट्स नहीं दिखायी देतीं वहाँ तो इस तरह के तमाम वीडिओ भरे पड़े हैं. आप इन दो वीडिओ पर ही हाय-तौबा मचाये हुए हो. 

Time: 6:43AM, 24 November, 2010 Wednesday

६] मौसम ठीक है — 
मैं इस पर कुछ नहीं कहूँगा. 

Time: 7:13AM, 24 November, 2010 Wednesday

७] बिस्तर लगा है — 
मुझे आपने सोचने पर मजबूर कर दिया है. 

Time: 8:32AM, 24 November, 2010 Wednesday

८] डॉ. मीनमेख 
जब भी इस तरह की पोस्ट कोई मेरी नज़र से होकर गुजरती है. मैं उसे पसंद नहीं करता. आप ध्यान दें तो पायेंगे कि हर कहीं तो चीर खींचने में लगे हैं लोग. 
एक शायर ने क्या खूब कहा है : 
जब भी वे मिलने आते हैं मुझसे. 
मेरा अंदरूनी मन उन्हें दबोच लेना चाहता है. 
............ 
आपने मेरी टिप्पणी पिछली बार मोडरेट कर दी थी. 
आपसे टिप्पणी मोडरेट करने की उम्मीद अभी भी बरकरार है. 


Time: 9:55AM, 24 November, 2010 Wednesday

९] टीन-कनस्तर 
अच्छी प्रस्तुति. 
मेरे ब्लॉग पर पधारें. लिंक : teenkanastar.blogspot.com/


Time: 11:32AM, 24 November, 2010 Wednesday

१०] डॉ. उत्तमौत्तम 'बिना-अंकुश' 
मुझे आपसे कोई लेना-देना नहीं. आप जो कर रहे हैं मानव हित में है. इसलिये आप मेरे संगठन के आजीवन सदस्य बनें. आपमें जज्बा है इस जज्बे को ख़त्म न होने दें. 
तुरंत कदम उठायें. 

डॉ. उत्तमौत्तम 'बिना-अंकुश' 
दलित-मोचन सेना 
राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारत 
फोन : 000-00000000; फेक्स : 000-00000000
मोब: 00-0000000000


Time: 12:23PM, 24 November, 2010 Wednesday






बुधवार, 17 नवंबर 2010

रहम करो परवरदिगार

मुझे बचाओ ..... मुझे बचाओ 
............ चीखें आती कानों में 
लेकिन उन चीखों की .. ऊँची 
........... कीमत है दुकानों में.


अल्लाह किस पर मेहरबान है 
........ समझ नहीं है खानों में. 
ईद मुबारक ..... ईद मुबारक 
.......... बेजुबान की जानों में.


रहम करो ...... परवरदिगार 
पशु कत्लगाह - ठिकानों में. 


क़त्लो-ग़ारत ख़ुद करे , मज़हब का ले' नाम !

ज़ुल्म-सितम का कब दिया अल्लाह ने पैग़ाम ?!

अल्लाह तो करते नहीं कभी ख़ून से स्नान !


करे दरिंदे-जानवर ,या शैतान-हैवान !! 



— राजेन्द्र स्वर्णकार 


रविवार, 7 नवंबर 2010

मेरे यहाँ एक रिक्ति है जूते पोलिश करने की

ओबामा !
आपका
भारत में सु-आगत है.
हम जानते हैं कि
आपने काफी हथियार
पाकिस्तान को बेचे
मदद की हमेशा
उसके बुरे वक्त में
अब क्या बुरे वक्त में वह तुम्हारा साथ नहीं देगा?
आतंकी शिविरों में जिहादियों की हमेशा उसे ज़रुरत रहती है.
आप अपनी बची-खुची पूँजी को वहाँ इन्वेस्ट कर सकते हो.
अभी सुनहरा अवसर है, वह जोह रहा है रास्ता किसी बड़े स्पोंसर का.
अभी भी आप उसकी नज़रों में बड़े का ओहदा रखते हैं.

खैर, आपके बड़प्पन का कद भारत में भी छोटा नहीं हुआ है.
आप अगर अपने निवेशकों के लिए सम्मान की नौकरी चाहते हैं तो
मेरे यहाँ एक रिक्ति है जूते पोलिश करने की. मासिक वेतन १००० रुपये होगा.
यहाँ नये छोटे कर्मचारी को यह भी बड़ी मुश्किल से मयस्सर है.
इस विचार को आप मेरी रहम ना समझना
यह विचार तो
'श्रीराम सेतु में योगदान देने वाली
गिलहरी की प्रेरणा से आया है.
हमारी संस्कृति में अतिथि को खाली हाथ लौटाना
असभ्यता मानी जाती है.
अतः हम पिछली सभी कटुताओं को भुलाकर
फिर से नये रिश्ते बनाने की भूल करते हैं.
आपकी धरती की गंध हमारी मिट्टी की गंध में इस कदर मिल चुकी है कि
कोई नहीं जान पायेगा आपके उन मंसूबों को जो घोर स्वार्थ की सड़ी गंध से
हमारी सांस्कृतिक शिष्टताओं को नाक-मुँह सिकौड़े भगाने को विवश किये है.
चाहता हूँ कि सभी सामर्थ्यवान
कम-से-कम सहयोग की भाषा तो बोलें.
क्या मैंने जूते पोलिश का ऑफर देकर बुरा किया ?
क्या ताउम्र भारतीय ही दूसरे देशों में जाकर छोटे समझे जाने वाले जॉब करता रहेगा ?
क्या होटल मेनेजर के लिए गोरी चमड़ी और बर्तन माजने के लिए काली चमड़ी फिक्स है ?
क्या उनके प्रतिबंधों को हम तो आदर दें और
अपनी ही ज़मीन पर उनकी सुरक्षा-व्यवस्था को प्रतिबंधित कर पाने की हिम्मत भी न कर पायें?
मैं क्या करूँ ?
मैं क्यों नहीं पचा पा रहा हूँ ओबामा के आने को ?
हे ईश्वर! मेरे मन में सभी के लिए प्रेम क्यों नहीं भरता ?

बुधवार, 3 नवंबर 2010

स्मृति-झलक



मैं ब्लॉग जगत के उन सभी कैदियों की बारी-बारी स्मृति-झलक दिखाये देता हूँ जिनसे मेरी आत्मीयता है. 
जब मैंने अपनी पहली रचना डाली तो मुझे पता नहीं था कि 
— पोस्ट वाली जगह के नीचे कमेन्ट बॉक्स का क्या रोल है.
— इसे लोग पढेंगे भी या नहीं.
ऑफिस के साथी इन्दर कुमार जी ने मेरा ब्लॉग बनाने में सहयोग किया. 
ऑफिस में लंच के समय चोरी से ब्लॉग बनाया गया. "काव्य थेरपी" 
जब भी समय मिलता तो कुछ-न-कुछ ब्लॉग पर डालने लगा. 
लेकिन एक दिन क्या हुआ कि प्रशंसा से सनी एक टिप्पणी आ गयी और मैं बुरी तरह घबरा गया. 
मैंने पूरी पोस्ट ही डिलिट कर दी. कई दिन परेशान रहा.
तब ब्लॉगजगत और चिट्ठाजगत को चोरी-छिपे जानने और समझने में लगाए. 

खैर धीरे-धीरे कई बातें जान गया और आज भी मुझे इसकी कई सुविधाओं की जानकारी अमित शर्मा, दीपचंद पाण्डेय और अब कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ श्री सतीश सक्सेना जी देते रहते हैं. 
प्रारम्भ में राज भाटिया और समीर लाल जी ने मुझे प्रोत्साहित किया और मैंने उन्हें जाना लेकिन उनके ब्लॉग पर नहीं गया. बाद में जाना जो टिप्पणी करते हैं उनके अपने-अपने ब्लॉग भी होते हैं. 

इन सभी स्व-अनुभवों से पहले मेरे नाम वाले ब्लॉग को कोन्स्टेबल सुमित प्रताप सिंह ने बनाकर मुझे बताया था और उसके फायदे बताये थे लेकिन "जब तक स्वयं धारा में नहीं कूदते तैरना नहीं आता". सो धीरे-धीरे मित्रों की मदद से मैं ब्लॉगजगत में बढ़ता गया. 
अब मुझे महसूस ही नहीं होता कि मेरा दायरा एक अंकीय ही है. मेरा परिचय दो अंक तक बढ़ गया है और शायद भविष्य में तीन-चार अंक भी छू ले. 

मैं नाम लेकर अपने कुछ परिचितों को मंगल कामनाएँ देना चाहता हूँ. 
— महामूर्खराज नाम से लिखने वाले, सभी के लिये प्रेम रखने वाले मुकुल अग्रवाल जी 
— खयालों के कूप में रहने वाले हरदीप सिंह राणा 'कुँवर' जी 
— ब्लॉग लेखन में निरंतरता की मेरी प्रथम प्रेरणा दिलीप सिंह जी 
— बिंदास भावेन सम्पूर्ण समीक्षात्मक वार्ता करने वाले रोहित जी 
— खासतोर पर नवजात ब्लोगरों को सामान्यतः सभी को ऊर्जा देने वाले समीर लाल जी 
— अपनी कविताई से माँ सरस्वती और माँ भारती की सेवा में लगे संजय भास्कर जी, 
— अपने बडप्पन की छाया देने वाले श्री अरविन्द जी 
— व्याकरणिक त्रुटियों पर ध्यान दिलाने वाली हरकीरत जी 
— अपनी रचनाओं से मंत्रमुग्ध करने वाले अविनाश चन्द्र जी 
— संस्कृत पठन-पाठन का संकल्प लिये ब्लॉग जगत में बढ़ने वाले श्री आनंद पाण्डेय जी 
— स्वयं को कुटिल खल कामी कहकर दूसरों के लिये कहने को कुछ न छोड़ने वाले संजय जी  
— कभी ना खाली होने वाले अपने तरकश से कविता के पैने तीर चलाने वाले स्वर्णकार राजेन्द्र जी 
— प्रायः सही आकलन कर अंक देने वाले अनचाही बहसबाजी में नाराज हुए उस्ताद जी 
— 'मुझे भी खिलाओं नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे' वाली तर्ज पर आये अंग्रेजी के अध्यापक डॉ. जितेन्द्र जौहर जी.... [मजाक किया है बुरा ना मानियेगा जितेन्द्र जी] 
— बहुत अनुनय-विनय वाली कविताओं के बाद दर्शन देने वाले और अपनी बुद्धिमत्ता से प्रभावित करने वाले मेरे नवल प्रेरणा स्रोत +
— स्वसा दिव्या जी 
— धर्मध्वजा लेकर बढ़ने वाले और मुझे भी अपनी टोली में शामिल कर लेने वाले श्री अमित शर्मा जी 
— अपने विविध और आधुनिकतम विचारों से भिगोने वाले मेरे बचपन के साथी श्री दीपचंद पाण्डेय जी, 
— मेरी पाठशाला के फाउंडर मेंबर और मोनिटर हंसराज सुज्ञ जी 
— पाठशाला में प्री-नर्सरी के संजय जी और आउटर स्टुडेंट नरेश जी 
— विचारों को तर्क से ग्रहण करने के हिमायती शेखर सुमन जी 
— घर को मन में बसाए नगर में दिन बिता रहे देव कुमार झा जी 
................. और वे सभी जिनसे अभी जुड़ना शेष है इस दीपावली को मैं उनके नाम से अपनी स्मृति में प्रेम के दीप जला रहा हूँ.  

वैसे तो कई अन्य भी हैं जो मेरी स्मृति में ऊँचे आसन पर बैठे हैं वे इतने ऊँचे बैठे हैं कि वे प्रायः उनको मुझसे संवाद करना याद नहीं रहता. त्यौहार वाले दिन भी नहीं. उन्हें मेरा चरण स्पर्श. क्योंकि उनके चरण ही दिखायी दे रहे हैं. 

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

उस खुदा से कोई बेहतर नहीं

[यह रचना एक प्रतिक्रिया मात्र है]


जो अमुक तारीख को 
भरी थी फीस
लाया था 

नयी चप्पलें और कमीज़.
एक कम दाम वाली 

साइकिल और
छठी जमात के 

दाखिले का परचा 
वह भी कई स्कूलों में से 
किसी एक बेहतर का.

"मदरसे तो सब एक से होते हैं
वहाँ नहीं होती ऎसी समस्या ढूँढने की"
ऐसा — बड़े अब्बा ने बोला था.

फिर भी ना जाने किस ताकत ने
मुझे सही-सही कदम उठाने को हमेशा उकसाया

लम्बे चौड़े रास्तों पर 

चलने की बजाय
मैंने उस पतली गली में 

चलना बेहतर पाया
जो बेशक बदबूदार 

मीट की दुकानों से पटी थी
फिर भी मुझे 

वहाँ से एक झोला भर
रात के खाने का 

बंदोबस्त करने की पड़ी थी.
बारूदी पटाखों का शौक मुझे भी था
और मेरे बेटे को भी है.

बहरहाल, बेटा !
जितनी अच्छी बातों का फैसला है
वह मेरा खुदा ही मुझे बक्शता है.
और जितनी मेरी ऐन्द्रीय इच्छाएँ हैं
खाने-पीने और शौक पूरे करने की
उसमें मेरे खुदा का कोई रोल नहीं.

समझे ना बेटा.
उस खुदा से कोई बेहतर नहीं
और मैं भी नहीं.



शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

नहीं किये हमने समझौते


[अपनी स्मृति के लिए : यह उस दौरान की कविता है जब अमित जी ने अपनी एक पोस्ट में मरू भूमि का एक ऐसा चित्र हमें दिखाया था जिसमें 'रेत' जल की भाँति बहती दिख रही थी, उसे देख मन रोमांचित हो गया था, यह तब ही की रचना है. इस कविता में दो पंक्तियों के बाद मरू ने ही अमित जी को संबोधित किया है.]

सूख चुके पानी के सोते 
मन लगाता फिर भी गोते. 
दादा जी के प्यारे पोते ! 
पालो संस्कार के तोते. 

जो हममें हैं प्रेम पिरोते 
उसके ही हम प्रेमी होते 
पहला संस्कार यही है  
नहीं परायों सम्मुख रोते. 

चाहे जितने प्यासे होते 
रहमों के आते हों न्योते 
हम उधार का पानी लेकर 
अपने अन्दर नहीं समोते. 

धर्म बीज को बोते-बोते 
खाली सारे हुए हैं पोथे 
फिर भी खरपतवार उगे तो 
'नहीं किये हमने समझौते.'



शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है

हे देवी! छंद के नियम बनाये क्योंकर? 
वेदों की छंदों में ही रचना क्योंकर? 
किसलिये प्रतीकों में ही सब कुछ बोला? 
किसलिये श्लोक रचकर रहस्य ना खोला? 

क्या मुक्त छंद में कहना कुछ वर्जित था? 
सीधी-सपाट बातें करना वर्जित था? 
या बुद्धि नहीं तुमने ऋषियों को दी थी? 
अथवा लिखने की उनको ही जल्दी थी? 

'कवि' हुए वाल्मिक देख क्रौंच-मैथुन को. 
आहत पक्षी कर गया था भावुक उनको. 
पहला-पहला तब श्लोक छंद में फूटा. 
रामायण को लिख गया था जिसने लूटा. 

माँ सरस्वती की कृपा मिली क्यूँ वाकू? 
जो रहा था लगभग आधे जीवन डाकू? 
या रामायण के लिए भी डाका डाला? 
अथवा तुमने ही उसको कवि कर डाला? 

हे सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो !
क्या अब भी ऐसा हो सकता है? बोलो !!

अब तो कविता में भी हैं कई विधायें. 
अच्छी जो लागे राह उसी से आयें. 
अब नहीं छंद का बंध न कोई अड़चन. 
कविता वो भी, जो है भावों की खुरचन. 

कविता का सरलीकरण नहीं है क्या ये? 
प्रतिभा का उलटा क्षरण नहीं है क्या ये? 

छाया रहस्य प्रगति प्रयोग और हाला. 
वादों ने कविता को वैश्या कर डाला. 
मिल गयी छूट सबको बलात करने की. 
कवि को कविता से खुरापात करने की. 

यदि होता कविता का शरीर नारी सम. 
हर कवि स्वयं को कहता उसका प्रियतम. 

छायावादी छाया में उसको लाता. 
धीरे-धीरे उसकी काया सहलाता. 
उसको अपने आलिंगन में लाने को 
शब्दों का मोहक सुन्दर जाल बिछाता. 

लेकिन रहस्यवादी करता सब मन का. 
कविता से करता प्रश्न उसी के तन का. 
अनजान बना उसके करीब कुछ जाता. 
तब पीन उरोजों का रहस्य खुलवाता. 

पर, प्रगती...वादी, भोग लगा ठुकराता. 
कविता के बदले न..यी कवी..ता लाता. 
साहित्य जगत में निष्कलंक होने को 
बेचारी कविता को वन्ध्या ठहराता. 

और ... प्रयोगवादी करता छेड़खानी. 
कविता की कमर पकड़कर कहता "ज़ानी! 
करना इंग्लिश अब डांस आपको होगा. 
वरना मेरे कोठे पर आना होगा."

अब तो कविता परिभाषा बड़ी विकट है. 
खुल्लम-खुल्ला कविता के साथ कपट है. 
कविता कवि की कल्पना नहीं न लत है. 
कविता वादों का नहीं कोई सम्पुट है. 

ना ही कविता मद्यप का कोई नशा है. 
कविता तो रसना-हृत की मध्य दशा है. 
जिसकी निह्सृति कवि को वैसे ही होती. 
जैसे गर्भस्थ शिशु प्रसव पर होती. 

जिसकी पीड़ा जच्चा को लगे सुखद है. 
कविता भी ऐसी दशा बिना सरहद है. 





रविवार, 26 सितंबर 2010

नित्य प्रार्थना


विद्या विलास में हो तत्पर 
मन, शील हमारा हो सुन्दर 
तम, भाष हमारा सत्य सहित 
मन, मान मलिनता से हटकर. 

यम नियम आदि का हो पालन 
वैदिक कर्मों से भला इतर. 
जग जन-जन के दुःख दूर करे 
ऐसी विद्या देना हितकर. 

[एक परित्यक्त अर्चना, जो चिकित्सा के लिए 'काव्य थेरपी' औषधालय आ गयी.]

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

जो तय नहीं था

pratulvasistha71@gmail.com

उनको
अपने अनुरूप
कर पाना सरल था.
उससे भी पहले
उनको पा लेना सरल था.
पाकर
प्यार करना सरल था.
प्यार के विभिन्न पड़ावों से होते हुए
भोग तक पहुँच पाना सरल था.
फिर भी
रोकता था मुझको मेरा 'ज़मीर'
अथवा 'समाज का भय' था
किन्तु, इतना तय था ....
वे तोड़ कर सारे बंधन
मिलेंगे मुझको ज़रूर
कहाँ? कब? कैसे?
............. सब कुछ तय था.

लेकिन
राज-घराने की आबरू को बचाने में
राजा, मंत्री, राजपुरोहित
की तन्मयता......... तोडती थी
हमारे आपसी जुड़ाव को.

उनकी याद
दो महीने बाद
बनाकर फरियादी
खींच लायी मुझे राज-दरबार में.

वहाँ की नाटकीयता
करती है मुझको उनसे रू-ब-रू.
जब भी करता हूँ याद —

फरियादी की फ़रियाद :
________"बस एक बार मिलने के बाद चला जाऊँगा"
_____________________ "दूर ........... बहूत दूर."

राजा की चिंता :
________"बेटी का राग
___________घराने के उजले दामन पे दाग
__________________कहाँ मुँह दिखाऊँगा."

मंत्री की दलील :
________ "इस गंदी मछली ने
___________करी है मैली घराने की झील.
_________________ फाँसी दिलाऊँगा."

और
राजपुरोहित ने
मुझको सुनाकर
बोला _________ "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली."

किन्तु अकेले में
राजपुरोहित का राजा से कहना
"वैसे भी राजन! एक तरफ़ा नहीं है
प्रेम इन्हों का.
ये बेटी हमारी, वो बेटा किसी का.
दोनों ही व्याकुल हैं.
मिलने को आतुर हैं.
जुटा लिए हैं मैंने सारे प्रमाण."

पर मेरी गरदन
झुकी है न आगे किसी के.
प्रेम अतिशय था
इसीलिए तय था/ मुझ फरियादी का
राजा के सम्मुख, नतमस्तक होना.
लेकिन
लगायी जो शर्त उन्होंने
"जमाता रहेगा तो तू यहीं का"

कैसे मैं मानूँ?
_______________ जो तय नहीं था.


शनिवार, 11 सितंबर 2010

शेरा का बसेरा

बहुत दिनों से इंतज़ार है 
खेलों का हो जाए सवेरा.
दिनभर बादल छाये रहते 
रातों का तो फिक्स अंधेरा. 


दिनरात ट्रकों ने भर-भर पैसा 
दिल्ली की सड़कों पर गेरा.
कोमनवेल्थ गेम गाँव में 
शेरा का बन गया बसेरा. 

शीला के घर का शेरू ही  
खेलों का मैनेजर शेरा. 
कोमनवेल्थ गेम गुफा में 
घपले घोटालों का डेरा. 

पैसा पानी तरह बहा तो 
पानी भी आ गया भतेरा.
आधे अनपूरे कामों पर 
हथिनी कुंड ने पानी फेरा. 

शेरा .. तेरा शेरा .. मेरा   
शेरा को .. पानी ने घेरा. 
ऊपर गरजें काले बादल 
पीछे हथिनी का जल-घेरा. 

डूब रही है झोपड़-पट्टी 
डूब रहा उम्मीद बसेरा. 
लेकिन अपनी यही कामना 
खेलों का हो जाए सवेरा. 

रविवार, 5 सितंबर 2010

सूखी वृद्ध-गंध

pratulvasistha71@gmail.com

आदमी 
जब अनुभवों से 
पक जाता है, 
शरीर से 
सूख जाता है. 
फिर वह 
समाज के लिए 
अधिक उपयोगी हो जाता है.
सफेदे की पत्तियों की तरह. 

पर आज 
युवाओं को क्या हुआ है 
वह अपनी हथेलियों पर 
नहीं मसलता अनुभव की पत्तियाँ. 

अपनी ऊर्जावान मांसपेशियों को देखकर 
वृद्धों के जर्जर शरीर से तुलना करने लगता है. 
सूँघ नहीं पाता वह 
तब, चहुँ ओर व्याप्त 
सूखी वृद्ध-गंध*. 


*सूखी वृद्ध-गंध — अनुभव [जीवनानुभव]
[यह टिप्पणी रूप में विकसित हुई थी और इसका श्रेय शेखर सुमन जी को है, जिनका लिंक है : 
http://i555.blogspot.com/2010/08/blog-post_29.html ]

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

मुग्धावस्था का आत्मदाह

pratulvasistha71@gmail.com

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब मैं अनुरागी हो जाता हूँ.
तब मैं आपकी नहीं सुनता
बस अपनी ही कहता हूँ.
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह महत्व बनाने की कोशिश है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर प्रेमातिशयता का वाचिक प्रवाह?

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब आपके मुझसे बोले कथन
'शब्दों में'
खालिस शब्द ही रह जाते हैं
उनके भीतर का 'अर्थ' निकालना
मुझे याद नहीं रहता.
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह आपके प्रति घोर उपेक्षित भाव है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर मेरी मुग्धावस्था का आत्मदाह?

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब मैं आपको बुला लेना चाहता हूँ
'समीप'
जबकि यह 'उपलब्धता' हमेशा आपकी तरफ से होती है
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह मात्र 'शिष्टाचार-निमंत्रण' है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर मेरी आत्मीयता का ताकना अदृश्य राह?

[प्रिय अमित शर्मा जी के लिए मेरे मनोभाव]

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मरी डायना मोटर अन्दर

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[राजकुमारी डायना जी की स्मृति में....]
[कविता में भागती कार की तरह से तीव्रता है, मोड़ हैं, कोशिश की गयी है शब्दों की बुनावट के माध्यम से उस समय को चित्रित करने की]

मरी डायना
मोटर अन्दर
______भाग रही थी
______जान छुड़ाकर
___________फोटोग्राफर 

___________करते पीछा 

_________________चित्र खींचने 

_________________उसके तन का. 

_____________प्रेमी उसका 

________अल फयाद
________डोडी, भी उसके
____________साथ-साथ था 

____________पवन चाल से 

________________दौड़ रही थी 

________________कार, संतुलन 

_____________________संवाहक का 

_____________________बिगड़ गया, पथ 

_________________मोड़, अचानक 

_________________आया, सम्मुख 

_________________अकस्मात् था. 

____________फटी ब्रेस्ट की 

____________नस भीतर ही 

________स्राव रक्त का
________होते-होते
___________होश उड़ा ले 

___________गया तभी ही. 

________खींच रहा था 

________फोटोग्राफर
___________फिर भी उसकी 

___________मरी देह का 

______________चित्र, दीखने 

______________वाला कर्षक 

________एक विशेष 

________एंगल से जो कि 

___________कल को शायद 

_____________खूब बिकेगा 

________________लाख-लाख 

___________डॉलर में — छपने. 

सोमवार, 30 अगस्त 2010

स्वीट पोइज़न

pratulvasistha71@gmail.com

 
उच्छृंखलता की प्रतीक थी 
महिलाओं के लिए ठीक थी 
________'लीक तोड़कर भागो बाहर' 
________उसकी केवल यही सीख थी. 
म्रदु भाषी कहने भर को थी 
स्वीट पोइज़न प्रिंस पीक थी. 
________माँ सासू एलिजाबेथ की 
________दबी-दबी पर तेज़ चीख थी.
उच्छृंखलता की प्रतीक थी 
महिलाओं के लिए ठीक थी.


[देवी डायना को आदर्श मानने वाली महिलाओं को समर्पित]

रविवार, 29 अगस्त 2010

रिआया मानसिकता

pratulvasistha71@gmail.com



"मदर!
तुम्हारी देह बूढ़ी
और डायना की ज़वान थी"

भक्त और प्रेमीजन
समीप के
बुढ़िया के नहीं
उसके और उसके मिशन के
नाम पर मिली सुविधाओं के आसक्त हैं.

झन झन
बरसते धन की
उनको निरंतर रखती पास है.
उनकी यहीं आजीविका है.
यहीं धर्म-प्रचार है.

ऐसे ही
विश्वजन
डायना के नहीं प्रेमी.
पुरुषगण
उसकी नंगी देह के आकर्षण में
उत्तेजक स्ट्रक्चर से मुग्ध हैं.

नारियाँ
जगत भर की
उसकी उच्छृंखलता की शुरुआत की प्रशंसक हैं.

'राजसी वधु' नाते
स्थापित किया 'आदर्श' जो उसने
रिआया मानसिकता स्वीकारती है उसको.

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.