आदमी
जब अनुभवों से
पक जाता है,
शरीर से
सूख जाता है.
फिर वह
समाज के लिए
अधिक उपयोगी हो जाता है.
सफेदे की पत्तियों की तरह.
सफेदे की पत्तियों की तरह.
पर आज
युवाओं को क्या हुआ है
वह अपनी हथेलियों पर
नहीं मसलता अनुभव की पत्तियाँ.
अपनी ऊर्जावान मांसपेशियों को देखकर
वृद्धों के जर्जर शरीर से तुलना करने लगता है.
सूँघ नहीं पाता वह
तब, चहुँ ओर व्याप्त
सूखी वृद्ध-गंध*.
*सूखी वृद्ध-गंध — अनुभव [जीवनानुभव]
[यह टिप्पणी रूप में विकसित हुई थी और इसका श्रेय शेखर सुमन जी को है, जिनका लिंक है :
http://i555.blogspot.com/2010/08/blog-post_29.html ]
संवेदनशील हॄदय है आपके पास, तभी तो कविता रच लेते हैं।
जवाब देंहटाएंयुवा ये नहीं जानते कि जो तन आज जर्जर हैं, कभी वे भी बल-सौष्ठव से शोभायमान थे।
आभार प्रतुल जी, राह दिखाने के लिये।
प्रतुल जी आज का युवा तो सिर्फ अपनी हथेलियों पर भांग की कोमल पत्तियों को मसल कर गंजा बनाने में विश्वास रखता है.
जवाब देंहटाएंआप हमेशा से यथार्थ के दर्शन कराते हैं. क्या भांग की पत्तियाँ कोमल होती हैं? क्या उससे ही गांजा बनता है? आपकी टिप्पणी ने ज्ञान में इजाफा किया.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसंजय जी,
जवाब देंहटाएंइस रचना का श्रेय शेखर सुमन जी को है, उनकी एक कविता पढ़ी और उत्तर देने में यह टिप्पणी हो गयी.
उनकी कविता में संवेदनशीलता का पैमाना कुछ ऐसा था कि उसने मेरे चिंतन को माप लिया. राह तो सुमन ने दिखायी. मैं तो उस सुख का भोक्ता हूँ.