गुरुवार, 19 अगस्त 2010

कीचड़

[बारिश में चारों तरफ पानी और कीचड़ ने मुझे अपने अंतरतम में बने कीचड़ की याद करायी. और फिर मैं अपनी नज़रों में शर्म से पानी-पानी हुआ.]

किन शब्दों में स्वीकार करूँ
अपराध भावना मैं मन की
.................."मैं पापी हूँ"
— बस इतने से न बात अलम.

'रो पड़ी'
विवश होकर गुडिया.

आँसू आये
आँसू में घृणा
घृणा मुझसे
.......ना, नहीं
शायद, मेरे दुर्भावों से.

आँसू में
'अपनापन अभाव' की पीड़ा
किसको अपना वह कहे यहाँ
हर वस्तु उसे
..............'मौसी घर' का
..............'शो-पीस' लगे.

हमने अपनेपन का
अन-अर्थ बना डाला खुद ही.

वह नहीं बोलती
............ अथवा
है नहीं ज़रुरत
— सचमुच
उसको किसी वस्तु की.

कैसे मानूँ —
वह खुश है,
— स्वतंत्रमना है.

रवि अस्त
घूमता हस्त
पाप का तम में
छूने को गुड़िया के कपोल
— वात्सल्य किवा अपराध सोच?

रवि उदय अभी होने में बाक़ी
एक प्रहर
कालिमा और घहराती
जाती है सत्वर.

'पापों के मेरे नहीं थाह'
चाहे लिक्खूँ दीवारों पर
— शान्तं पापं —
हर जगह स्वयं के सम्मुख
वह नहीं शांत होते हैं पर
(सीमित कविता तक
वह तो केवल).

स्पर्श कर रहा था मैं
सारे तोड़ बंध
संयम, मर्यादा, लोक-लाज,
बकवास जान पड़ते थे.
— गुड़िया करे शयन —

पड़ गयी पता
'आवश्यकता'
क्या है गुड़िया की.
जो रही छिपा
— लज्जा कारण —

'मुझे छोड़ वहीं आओ (वापस)'
— पीड़ित करते हैं शब्द —

वह तप्त अश्रु
नन्हें हाथों से पोंछ रही.

पर,
पोंछ नहीं पाती
विश्वासों के
नयनों की
'कीचड'

[शायद मैं अपने मन की चिकित्सा करने निमित्त यह भाव सार्वजनिक कर रहा हूँ.]

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.