शुक्रवार, 7 मई 2010

असल बिहारी

हर शब्द का होता है
अपना एक इतिहास.
भाषा वैज्ञानिक खोद निकालता है
शब्द का आदिम रूप
प्रयोग में लिए जा रहे
प्रचलित शब्दों के आस-पास.

इस खुदाई में 'मूल शब्द'
किस समय – कितना गला, कितना चला
कितना घिसा, कितना पिसा.
किस शब्द ने कितनी साँसें लीं.
किस शब्द ने कब दम तोड़ा.
कौन कब हुआ लापता.
किसने अपने असल अर्थ को छोड़
पराये अर्थ की शरण ली.
कौन धर्मात्मा से बन गया डॉन.
कौन हो गया अपनी उपेक्षा से मौन.
— सभी पहलुओं पर होती है भाषा इतिहासकार की नज़र.

लोक परम्पराओं के खंडहर में
भूले-भटके टहलता हुआ
दीख पड़ता है जब कोई
शब्द का साया.
भाषा वैज्ञानिक
कान खड़े कर
उसके पदचापों को सुनने
वहाँ की ज़मीन तक खोद डालते हैं कि
मिल जाए उन्हें उस शब्द का डीएनए चित्र.
प्राप्त हो जाए उसका असल चेहरा.
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आज मैं 'बिहारी'
के असल चेहरे को ढूँढने निकला हूँ.
जो बिहारी शब्द अपने रंग-बिरंगे अर्थों में
आज अपना असल अर्थ खो चुका है.
यदि घृणा से उच्चार दूँ — 'बिहारी'
तो संबोधित व्यक्ति लाल-पीला हुए बिना न रहे.
यदि भक्ति-भाव से बोलूँ 'माखनचोर' अर्थ में
तो लग जाए जयकारा.
किन्तु  असल बिहारी का चेहरा तो खुदाई में निकला है.
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अरे! 'बिहारी' का चेहरा तो 'बीहाड़ी' से निर्मित है.
बीहड़ों में  बसता था जो आदिम शब्द
वह वहाँ उच्चरित होता था  'ड़' के अभाव में.
बीहड़ में रहता था जो बीहाड़ी.
वह बताया जाने लगा 'बिहारी'.
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इतनी मशक्कत
इतनी खुदाई के बाद
मिल गया है मुझे बिहारी का असल आदिम रूप.
लेकिन इस थकान में
'बीहड़' शब्द की खुदाई करने का अब दम नहीं.

[मेरे कई साथी बिहार प्रांत से हैं, उनसे हिंदी-संस्कृत शब्दों पर माथापच्ची होती रहती है. यह केवल मनो-विनोद निमित्त लिखा गया है.]

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