रविवार, 30 जनवरी 2011

प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे


मुझे पता है नहीं मिलेगा 
मुझको कोई पुरस्कार.  
इसीलिए मन के दर्पण का 
करता हूँ ना तिरस्कार. 

जैसा लगता कह देता हूँ 
कटु तिक्त मीठा उदगार.
मित्रों को भी नहीं चूकता 
तुला-तर्क वाला व्यवहार.  

मुझको बंधन वही प्रिय है 
जो भार होकर आभार. 
प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे  
मिले यदि, 'जूते' स्वीकार. 


मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अपशब्द युद्ध कैसे लडूँ?


कोई कर दे तर्क से मुझको पराजित. 
साक्ष्य संचित कर मुझे नीचा दिखाये. 
फिर भी अपने गुरुजनों के पास जाकर 
पक्ष-स्व मज़बूत करना सोचता हूँ. 

कोई भद्दे भाव की करके बुनावट. 
बहस करने को मुझे घर पर बुलाये. 
मौन रहता कायरों की भाँति तब तक 
गालियों की बिछी चादर हट न जाये. 

आज़ अपने ही मुझे कहते कुपोषित. 
मानते हैं वे मुझे शय्या-पसंदी. 
फटकार पर भी मैं उन्हें बेअसर दिखता 
सुधरती है नहीं आदत मेरी गंदी. 

विद्वता के सामने मैं झुक भी जाऊँ. 
कुतर्कियों से हाथ दो-दो आजमाऊँ. 
पर हमेशा भाग जाता पीठ दिखला  
जहाँ भाषा भील बनकर नाच करती. 

शनिवार, 22 जनवरी 2011

आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है


एक समय था जब राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन का अर्थ हुआ करता था 'राष्ट्रीय-जगराता'. उस रात कविगण रसिक श्रोताओं को राष्ट्र-रेम, राष्ट्र-भक्ति, सद्भावना, समानता, कर्मठता, नारी के प्रति सम्मान भावना का पाठ पढ़ाते थे. एक क्षण को भी श्रोता ऊँघने या अंगडाई लेने लगता था तो कार्यक्रम की असफलता समझी जाती थी. कवि-सम्मेलन के दो दौर चलना अनिवार्य था. दूसरे दौर का अंत अगले दिन के प्रारम्भ से होता था. दूसरा दौर तब तक चलता था जब तक श्रोता भोर में गाये जाने वाले पक्षियों का समूहगान [कलरव] न सुन लें. 

कवि-सम्मेलनों का पूरी-पूरी रात चलना और श्रोताओं का प्रत्येक कवि की बारी का इंतज़ार करते हुए उस कवि द्वारा परोसे जाने वाली साहित्यिक रचनाओं को जानने की जिज्ञासा अंत तक मंच से बाँधे रखती थी. यूँ तो गोष्ठियों में निराला जी की 'राम की शक्ति पूजा' लम्बी कविताओं को सुनने के लिये आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे धैर्यवान श्रोता ही अंत तक साथ देते हैं, पर ऎसी लम्बी कवितायें प्रारम्भ से ही मंच पर सफल नहीं रहीं, चाहे (निःसंदेह) उनका स्तर कालिदासीय गरिमा [उच्चस्थ कवियों] से ही मंडित ही क्यों न रहा हो. ऐसे में एक समय अंतराल के बाद श्रोताओं की प्रतिक्रियाओं से लगने लगता है कि वे ऊब रहे हैं; उठकर चहलकदमी करने लगना, परस्पर विषयेतर बातें करने लगना, आदि-आदि. हल्की-फुल्की गुदगुदाने वाली रचनाओं पर दिल खोलकर ठहाके लगाना. 

अधिकांश श्रोताओं की रुचिओं और उनकी बदली मानसिकता को ध्यान रखते हुए अब वैसे कवियों की माँग बढ़ गयी है जो वनमानुष-सी शकल बनाकर फूहड़ हास से श्रोता नहीं तमाशबीनों को हँसाने का दम रखते हों. श्रोता इसलिये नहीं कहा क्योंकि 'श्रोता' संज्ञा की भी कुछ गरिमा होती है. श्रोता होने के लिये भी कुछ स्वयं निर्धारित व मर्यादित शर्तों का पालन किया जाना चाहिए. इन सबके चलते आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है, जिनसे हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत मजमा शैली और चुटकुला शैली दो नवीन शैलियों का प्रादुर्भाव देखने को मिल रहा है और साथ ही दूसरी रस की रचनाओं के अंतर्गत गीति और ग़ज़ल शैली प्रचान हो गयी है. 

मंचीय कविता के अंतर्गत मजमा और चुटकुला शैलियाँ नयी हैं. अन्यथा ये दोनों शैलियाँ भी काफी पुरानी हैं. दरबारी संस्कृति में दरबार के या कभी-कभी बड़े स्तर के कार्यक्रमों में प्रजा के मनोरंजनार्थ नट, बाजीगर, मदारी आदि तमाशा दिखाया करते थे. उसके अलावा कभी-कभी दरबार के ही बुद्धिमान लोग [तेनालीराम, वीरभद्र (बीरबल) जैसे] और आश्रित कविगण मनोविनोद निमित्त बड़े पदाधिकारियों से चुटकी लिया करते थे जिसे हम उस समय के चुटकुले कह सकते हैं. बातचीत के दौरान किसी को नीचा दिखा देना या किसी की अभिशंसा करना इस चुटकुला शैली की विशेषताएँ थीं जो आज भी बरकरार हैं. 

राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्तजी के विषय में 'थैली की शरण में गुप्त भावेन स्वीकारोक्ति' तत्कालीन विरोधी मन वाले कवियों के मध्य हास्य का विषय रही. [जिसका अर्थ : मैं थैली की शरण में गुप्त भाव से रहता हूँ.] खुद मैथिलीशरण जी के घर की एक घटना इस बात का खुला प्रमाण है कि औरों की निंदा में पहुँचे हुए विद्वान् भी आनंद लेते रहे हैं. 

एक बार अज्ञेय जी गुप्तजी के घर से नाराज होकर जाने लगे तो 
गुप्तजी ने रोका और पूछा "क्या हुआ, उठकर क्यों चल दिए?" 
अज्ञेय जी बोले "दद्दा! मैं आपके यहाँ अब कभी नहीं आऊँगा." 
गुप्तजी - "क्यों क्या हुआ?" 
अज्ञेय - "जहाँ हमेशा औरों की बुराइयों में रस लिया जाता हो, उस राष्ट्र कवि के घर ठहरने में मुझे लज्जा आती है." 
गुप्तजी हँसकर बोले - "अरे भई, निन्दारस से बढ़कर भी कोई रस है?... इसके पीछे हमारी कोई किसी से दुर्भावना नहीं रहती." 

और देखने में आया है कि निन्दारस प्रेम जब बढ़ते-बढ़ते दीवानगी का रूप ले लेता है तब रचना की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उसका प्रस्तुतीकरण ही प्रधान हो जाता है. और तब लेती है मंचीय मजमा शैली और चुटकुला शैली. 'कवि' तब कवि कम मदारी अधिक लगने लगता है. आवाहन करता कवि नहीं डुगडुगी बजाता मदारी. क्यों सही कहा या गलत?

रविवार, 9 जनवरी 2011

एक कोड़े से करी पिटाई

एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 
आगे क्रोध-कुंड है मेरे 
पीछे छल-भावुकता खाई. 

एक पंक्ति में खड़े कर दिए 
दुश्मन और मुँहबोले भाई. 
धूर्त और मक्कार निकलते 
है कैसी ये न्याय-तुलाई? 

खुद का दुःख है पाँव फैलाता 
बन जाता है ताड़ की नाईं. 
और हमारा सिमट गया तो 
समझ लिया सूखी मृत राई. 

जिन पैरों न पड़े बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई. 
जो उनके मन का सोचा है 
वही सत्य-पथ, शेष खटाई. 

कोड़ा अलग ले लिया होता 
पी जाते सब तिक्त दवाई.
एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 

बुधवार, 5 जनवरी 2011

व्यर्थ निंदा लाभकारी

अये सुनारी! 
व्यर्थ निंदा लाभकारी. 
बन गए हैं जो प्रचारक 
अवगुणों के शोधकर्ता 
धूमकेतु भाँति वे भी 
अयन का अधिकार पाने 
लगाने दो उन्हें चक्कर 
धुल धुआँ युक्त डग्गर

अये सुनारी! 
दुष्ट भी तेरे पुजारी. 
कर रहे हैं रात और दिन 
तुझ से नाता जोड़ने को 
औघड़ों की भाँति वे भी 
अर्चना अधिकार पाने 
मारने दो टोना-मंतर.
मांस मदिरा पकड़ खप्पर

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शब्दों से तात्पर्य : 
अयन — गमन, गति,  चाल, प्रायः पिंडों की गोलाकार गति के लिए प्रयुक्त होता है.
डग्गर — हिंसक पशु, खूंखार जानवर.
औघड़ — फूहड़, अघोरपंथी, जो विपरीत क्रियाओं के द्वारा भक्ति का आडम्बर कर्ता है. 
खप्पर — खोपड़ीनुमा भीख माँगने का पात्र. 


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