मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अपशब्द युद्ध कैसे लडूँ?


कोई कर दे तर्क से मुझको पराजित. 
साक्ष्य संचित कर मुझे नीचा दिखाये. 
फिर भी अपने गुरुजनों के पास जाकर 
पक्ष-स्व मज़बूत करना सोचता हूँ. 

कोई भद्दे भाव की करके बुनावट. 
बहस करने को मुझे घर पर बुलाये. 
मौन रहता कायरों की भाँति तब तक 
गालियों की बिछी चादर हट न जाये. 

आज़ अपने ही मुझे कहते कुपोषित. 
मानते हैं वे मुझे शय्या-पसंदी. 
फटकार पर भी मैं उन्हें बेअसर दिखता 
सुधरती है नहीं आदत मेरी गंदी. 

विद्वता के सामने मैं झुक भी जाऊँ. 
कुतर्कियों से हाथ दो-दो आजमाऊँ. 
पर हमेशा भाग जाता पीठ दिखला  
जहाँ भाषा भील बनकर नाच करती. 

1 टिप्पणी:

  1. वाह!! सहज अभिव्यक्ति?
    जवलंत प्रश्न है हम सब के लिये………

    अपशब्द युद्ध कैसे लड़ूँ?

    विद्वता के सामने मैं झुक भी जाऊँ.
    कुतर्कियों से हाथ दो-दो आजमाऊँ.
    पर हमेशा भाग जाता पीठ दिखला
    जहाँ भाषा भील बनकर नाच करती.

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नयी दिल्ली, India
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