रविवार, 30 जनवरी 2011

प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे


मुझे पता है नहीं मिलेगा 
मुझको कोई पुरस्कार.  
इसीलिए मन के दर्पण का 
करता हूँ ना तिरस्कार. 

जैसा लगता कह देता हूँ 
कटु तिक्त मीठा उदगार.
मित्रों को भी नहीं चूकता 
तुला-तर्क वाला व्यवहार.  

मुझको बंधन वही प्रिय है 
जो भार होकर आभार. 
प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे  
मिले यदि, 'जूते' स्वीकार. 


प्रस्तुत कविता में मात्रिक दोष मिल सकता है. यह कविता केवल प्रतिउत्तर देने की शीघ्रता में रची गयी है. 

3 टिप्‍पणियां:

  1. इस कविता का एक पुराना वर्ज़न भी है :
    यह कविता मैंने भी किसी पर लिखी थी लेकिन यह तब लिखी जब मुझे पता चला कि कोई मुझे अहंकारी जान बिलावजह गालियाँ दिया करता है.

    मुझसे तुम घृणा करो चाहे
    चाहे अपशब्द कहो जितने
    मैं मौन रहूँ स्वीकार करूँ
    तुम दो जो तुमसे सके बने.

    मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
    बदले में करता वही पेश.
    छोडो अथवा स्वीकार करो.
    चाहे ममत्व का करो लेश.

    जवाब देंहटाएं
  2. हमें तो पसन्द है यह उद्गार्…।

    जैसा लगता कह देता हूँ
    कटु तिक्त मीठा उदगार.
    मित्रों को भी नहीं चूकता
    तुला-तर्क वाला व्यवहार.

    जवाब देंहटाएं

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