मुझे पता है नहीं मिलेगा
मुझको कोई पुरस्कार.
इसीलिए मन के दर्पण का
करता हूँ ना तिरस्कार.
जैसा लगता कह देता हूँ
कटु तिक्त मीठा उदगार.
मित्रों को भी नहीं चूकता
तुला-तर्क वाला व्यवहार.
मुझको बंधन वही प्रिय है
जो भार होकर आभार.
प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे
मिले यदि, 'जूते' स्वीकार.
इस कविता का एक पुराना वर्ज़न भी है :
जवाब देंहटाएंयह कविता मैंने भी किसी पर लिखी थी लेकिन यह तब लिखी जब मुझे पता चला कि कोई मुझे अहंकारी जान बिलावजह गालियाँ दिया करता है.
मुझसे तुम घृणा करो चाहे
चाहे अपशब्द कहो जितने
मैं मौन रहूँ स्वीकार करूँ
तुम दो जो तुमसे सके बने.
मुझपर तो श्रद्धा बची शेष
बदले में करता वही पेश.
छोडो अथवा स्वीकार करो.
चाहे ममत्व का करो लेश.
हमें तो पसन्द है यह उद्गार्…।
जवाब देंहटाएंजैसा लगता कह देता हूँ
कटु तिक्त मीठा उदगार.
मित्रों को भी नहीं चूकता
तुला-तर्क वाला व्यवहार.
सुन्दर कविता. सच में अच्छी लगी.
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