शनिवार, 22 जनवरी 2011

आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है


एक समय था जब राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन का अर्थ हुआ करता था 'राष्ट्रीय-जगराता'. उस रात कविगण रसिक श्रोताओं को राष्ट्र-रेम, राष्ट्र-भक्ति, सद्भावना, समानता, कर्मठता, नारी के प्रति सम्मान भावना का पाठ पढ़ाते थे. एक क्षण को भी श्रोता ऊँघने या अंगडाई लेने लगता था तो कार्यक्रम की असफलता समझी जाती थी. कवि-सम्मेलन के दो दौर चलना अनिवार्य था. दूसरे दौर का अंत अगले दिन के प्रारम्भ से होता था. दूसरा दौर तब तक चलता था जब तक श्रोता भोर में गाये जाने वाले पक्षियों का समूहगान [कलरव] न सुन लें. 

कवि-सम्मेलनों का पूरी-पूरी रात चलना और श्रोताओं का प्रत्येक कवि की बारी का इंतज़ार करते हुए उस कवि द्वारा परोसे जाने वाली साहित्यिक रचनाओं को जानने की जिज्ञासा अंत तक मंच से बाँधे रखती थी. यूँ तो गोष्ठियों में निराला जी की 'राम की शक्ति पूजा' लम्बी कविताओं को सुनने के लिये आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे धैर्यवान श्रोता ही अंत तक साथ देते हैं, पर ऎसी लम्बी कवितायें प्रारम्भ से ही मंच पर सफल नहीं रहीं, चाहे (निःसंदेह) उनका स्तर कालिदासीय गरिमा [उच्चस्थ कवियों] से ही मंडित ही क्यों न रहा हो. ऐसे में एक समय अंतराल के बाद श्रोताओं की प्रतिक्रियाओं से लगने लगता है कि वे ऊब रहे हैं; उठकर चहलकदमी करने लगना, परस्पर विषयेतर बातें करने लगना, आदि-आदि. हल्की-फुल्की गुदगुदाने वाली रचनाओं पर दिल खोलकर ठहाके लगाना. 

अधिकांश श्रोताओं की रुचिओं और उनकी बदली मानसिकता को ध्यान रखते हुए अब वैसे कवियों की माँग बढ़ गयी है जो वनमानुष-सी शकल बनाकर फूहड़ हास से श्रोता नहीं तमाशबीनों को हँसाने का दम रखते हों. श्रोता इसलिये नहीं कहा क्योंकि 'श्रोता' संज्ञा की भी कुछ गरिमा होती है. श्रोता होने के लिये भी कुछ स्वयं निर्धारित व मर्यादित शर्तों का पालन किया जाना चाहिए. इन सबके चलते आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है, जिनसे हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत मजमा शैली और चुटकुला शैली दो नवीन शैलियों का प्रादुर्भाव देखने को मिल रहा है और साथ ही दूसरी रस की रचनाओं के अंतर्गत गीति और ग़ज़ल शैली प्रचान हो गयी है. 

मंचीय कविता के अंतर्गत मजमा और चुटकुला शैलियाँ नयी हैं. अन्यथा ये दोनों शैलियाँ भी काफी पुरानी हैं. दरबारी संस्कृति में दरबार के या कभी-कभी बड़े स्तर के कार्यक्रमों में प्रजा के मनोरंजनार्थ नट, बाजीगर, मदारी आदि तमाशा दिखाया करते थे. उसके अलावा कभी-कभी दरबार के ही बुद्धिमान लोग [तेनालीराम, वीरभद्र (बीरबल) जैसे] और आश्रित कविगण मनोविनोद निमित्त बड़े पदाधिकारियों से चुटकी लिया करते थे जिसे हम उस समय के चुटकुले कह सकते हैं. बातचीत के दौरान किसी को नीचा दिखा देना या किसी की अभिशंसा करना इस चुटकुला शैली की विशेषताएँ थीं जो आज भी बरकरार हैं. 

राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्तजी के विषय में 'थैली की शरण में गुप्त भावेन स्वीकारोक्ति' तत्कालीन विरोधी मन वाले कवियों के मध्य हास्य का विषय रही. [जिसका अर्थ : मैं थैली की शरण में गुप्त भाव से रहता हूँ.] खुद मैथिलीशरण जी के घर की एक घटना इस बात का खुला प्रमाण है कि औरों की निंदा में पहुँचे हुए विद्वान् भी आनंद लेते रहे हैं. 

एक बार अज्ञेय जी गुप्तजी के घर से नाराज होकर जाने लगे तो 
गुप्तजी ने रोका और पूछा "क्या हुआ, उठकर क्यों चल दिए?" 
अज्ञेय जी बोले "दद्दा! मैं आपके यहाँ अब कभी नहीं आऊँगा." 
गुप्तजी - "क्यों क्या हुआ?" 
अज्ञेय - "जहाँ हमेशा औरों की बुराइयों में रस लिया जाता हो, उस राष्ट्र कवि के घर ठहरने में मुझे लज्जा आती है." 
गुप्तजी हँसकर बोले - "अरे भई, निन्दारस से बढ़कर भी कोई रस है?... इसके पीछे हमारी कोई किसी से दुर्भावना नहीं रहती." 

और देखने में आया है कि निन्दारस प्रेम जब बढ़ते-बढ़ते दीवानगी का रूप ले लेता है तब रचना की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उसका प्रस्तुतीकरण ही प्रधान हो जाता है. और तब लेती है मंचीय मजमा शैली और चुटकुला शैली. 'कवि' तब कवि कम मदारी अधिक लगने लगता है. आवाहन करता कवि नहीं डुगडुगी बजाता मदारी. क्यों सही कहा या गलत?

मेरे पाठक मेरे आलोचक

Kavya Therapy

मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.