मंगलवार, 30 नवंबर 2010

नवोदित शिक्षाविदों की घबराहट बेवजह है

किसी भी दूसरे के विचारों से अथवा पहले की सूचनाओं से लाभ लेने के लिये प्रायः दो माध्यमों का प्रयोग करते रहे हैं. एक श्रुति परम्परा वाला और दूसरा पाठ पद्धति वाला. 

मनुष्य अपने बाल समय से ही जिज्ञासु रहा हि. उसे श्रुति परम्परावाला मेथड शुरू से अच्छा लगता रहा है. दादा-दादी, नाना-नानी या कभी-कबाह माँ-पिताजी से भी ... काफी पुराने समय से 'वह' किस्से-कहानियों के लोभ में चिपकता रहा है. घर के बड़े-बूढों का लाड़ला कहानियाँ सुन-सुनकर आत्मीयतावश उनका इतना बड़ा हिमायती और आज्ञाकारी हो जाता है कि वह दो पीढ़ियों के विवादों में बुजुर्गों के टोल में शामिल मिलता है. 

प्रारम्भ में चित्रों वाली पुस्तकें आदि के प्रति वह खिंचता है. चित्र उसे समझ में आते हैं क्योंकि उन्हें वह देखता है महसूस करता है. लेकिन पढ़ने के प्रति बच्चे का रुझान नहीं होता क्योंकि वह पढ़ना जानता ही नहीं उसे वह मेहनत से सीखता है. चित्रों की भाषा तीन-चार सालों में उसकी विकसित हो चुकी होती है क्योंकि माता के स्तनों का पान करते-करते वह भाव-भंगिमाओं का पंडित बन गया होता है. बच्चा बहुत अच्छे से माँ और गोदी में उठानेवाले परिवार के अन्य सदस्यों के ... अच्छे-बुरे, डांट के, प्यार के, ममता के, हँसी के, रोने के भावों को समझने लग जाता है. और इसी कारण भावों से जुड़े चित्रों को वह भली-भाँति समझता है. देखा गया है कि कई बच्चे तो चित्रों को देख-देखकर अपनी कहानी भी बनाने लगते हैं. 

जहाँ तक 'रटंत विद्या' की बात है वह दोहरावट पद्धति पर आधारित है. इसका अलग माहात्म्य है. वह किसी के चाहने से समाप्त होने वाली नहीं है. रुचि और अरुचि वाले विषयों को पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से पढ़ने की विवशता को परीक्षा के दिनों में 'रटंत विद्या' या दोहरावट पद्धति ही परीक्षा-सागर से पार लगाती रही है. 

आज बाल शिक्षाविदों द्वारा 'पहचान शिक्षा पद्धति' की ओर प्रारम्भिक शिक्षा माध्यम से बालकों को ले चलने का प्रयास बेशक नया नहीं है. लेकिन वर्तमान में सराहनीय अवश्य है. पहचान वाली वस्तुओं और भावों से जोड़कर यदि अक्षरमाला और अन्य बातों को समझाया जाएगा तो बच्चा सहजता से बातें ग्रहण करेगा. बच्चे की जिज्ञासा पहचान के अलावा चीज़ों के प्रति भी हो सकती है जैसे परीकथाओं में. इसमें वह दो चीज़ों को जोड़कर कल्पना कर सकता है — बहन, माँ या आंटी के साथ उड़ते पक्षी को जोड़कर एक परी की कल्पना. 

दूसरे, 'क' से कबूतर या कमल सिखाना ग़लत नहीं कहा जा सकता. ना ही ए फॉर एप्पल बताना ग़लत है. बच्चा इस तरीके से 'क' अक्षर को कबूतर के 'क' के रूप में जानेगा — यह कहना पूरी तरह सही नहीं. इस तरह के बच्चों का अनुपात काफी कम है. यदि मान भी लिया जाये बच्चा 'क' अक्षर को कमल या कबूतर के 'क' रूप में पहचान रहा है तो इससे बछा कौन-सी ग़लत दिशा पकड़ रहा है? यह बच्चे की प्रारम्भिक स्टेज है इसमें बेसिक चीज़ों को बच्चे में भरना पहली जरूरत है न कि सही-ग़लत में पड़ना. यदि ग़लत चीज़ों को नकारना ही है तो निरर्थक शब्दों को भी सिरे से नकारा जाये. जैसे बाल कविताओं में निरर्थक शब्दों की भरमार देखी जाती है फिर भी वे पसंद की जाती रही है. उदाहरण कुछ कविताओं में बेतुके किन्तु गीतिमय शब्द भरे पड़े हैं — सन पकैया, सन पकैया ....., ईलम डीलम ..., आदि आदि ... अन्य उदाहरणों की खोज करनी है तो प्रसिद्ध कवि एवं बाल गीतकार दीनदयाल शर्मा जी के साहित्य में की जा सकती है. 

मतलब यह है कि बच्चा अक्षरमाला जैसे भी सीखे लेकिन वह धीरे-धीरे इस काबिल स्वयं हो जाएगा कि अक्षरमाला के अक्षरों को आदि, मध्य और अंत की स्थिति में आने पर पहचान लेगा और उनका उच्चारण विधान समझ पायेगा. इस सन्दर्भ में शिक्षाविदों की घबराहट बेवजह है. 

[उत्प्रेरक - प्रवीण त्रिवेदी जी, http://primarykamaster.blogspot.com/]




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