रविवार, 2 मई 2010

आतंक को पहचानो

मैंने देखा है
आतंकियों को
हुआ हूँ गद्दारों से रू-ब-रू.
मैंने थाली में छेद करने वाले देखे हैं
देखी हैं हरकतें देश-विरोधी.

मैंने देखे हैं
देश के शहीदों के प्रति घृणित भाव.
मैंने उन सरकारी दामादों को देखा है
जिनकी आवभगत हर इलेक्शन में होती है
जो ज़हर उगलते हैं, दूध पीकर भी डसते हैं.
अल्पसंख्यक होने का पूरा फायदा उठाते हैं
पड़ोसी मुल्क से दोस्ती बढ़ाने के बहाने
बसें ट्रेनें चलवाते हैं.
अपनी पसंदीदा, रोज़मर्रा जरूरत की चीज़
बारूद लेकर आते हैं.

मैं देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने वाले
जाली नोट छापने वाले
चेहरों को पहचानता हूँ.
मैं जानता हूँ
कहाँ मिलती है ट्रेनिंग आतंक की.
मैं ही नहीं आप भी जानते हैं
कहाँ पैदा होती है फसल — देशद्रोह की.

हम सब जानते हैं
पर बोलते नहीं
हम सब देखते हैं
पर अनजान बने रहने का
नाटक किये जा रहे हैं
बरसों से – लगातार.
हमें बचपन से ही
कुछ नारे रटा दिए गए हैं
— हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई.
— हमें हिंसा नहीं फैलानी, हमें घृणा को रोकना है.
— साम्प्रदायिकता से बचो सब धर्मों का सम्मान करो.
तब से ही भाईचारे की भावना लपेटे हुए
मैं जिए जा रहा हूँ.
साम्प्रदायिकता समझी जाने वाली ताकतों से भी बचा हूँ.
मन में हिंसा के भाव नहीं आने देता.
घृणा चाहते हुए भी नहीं करता.
जबकि गली में मीट के पकोड़े तलता है
रोजाना गोल टोपी धारी.
नाक-मुँह बंद कर लेता हूँ.
लेकिन कुछ नहीं बोलता
किसी से शिकायत नहीं
क्योंकि ये सबका देश हो चुका है.

क्या मैं अपनी इस ज़िन्दगी को
अगले बम-विस्फोट तक बचाए हुए हूँ.
क्या मैं हमेशा की तरह इस बार भी
अपने भावों पर ज़ब्त करूँ.
कुछ ना बोलूँ.
शांत रहने का,
शांत दिखने का एक और नाटक करूँ.
मीडिया की फिर वही बकवास सुनूँ —
"बम विस्फोटों के बाद भी
आतंकियों से नहीं डरी दिल्ली
बाज़ार फिर खुले,
लोगों ने रोजमर्रा का सामान खरीदा.


छिद्र टोपीधारी
भारतमाता के दामन में
छिद्र कर चुके हैं न जाने कितने ही.
अब भरोसा नहीं होता
कि पड़ोस के शाहरुख, सलमान, आमिर को
अपने घर बुलाऊँ या उनके घर जाकर ईद-मुबारक करूँ.

......

जामिया के कुलपति
जो आज पैरवी कर रहे हैं
उन मुजरिमों की जो प्रमाणतः आतंकी हैं.
एक घटना पोल खोल देगी
जामिया यूनिवर्सिटी की
देश के प्रति वफादारी की

कारगिल के समय
शोक में था जामिया
गुजर गए थे उस दौरान उनके क्षेत्र के कोई मियाँ.
शोक प्रकट किया गया.
उसी समय हिंदी विभाग के प्रमुख
अशोक चक्रधर जी ने कहा
अब कारगिल के उन शहीदों के प्रति भी
दो मिनट का मौन रखें जिन्होंने देश के लिए जान गँवायी.
पर उर्दू अरबी विभाग के प्रोफेसरों को
बात हज़म नहीं आयी.
मजबूरी में मौन रखने के बाद
बोले — "अब गली में फिरने वाले
उन कुत्तों के लिए भी मौन रखवाइये.
जो अभी-अभी मारे गए हैं."

क्या कहती हैं ये घटना
क्या इस टिपण्णी से
सब प्रकट नहीं हो जाता.
कि कहाँ कैसी शिक्षा दी जा रही है.
कहाँ तैयार हो रही है
देशद्रोह करने वालों की पौध.

मैं जान गया हूँ.
आप जान गए.
क्या सरकार में बैठे हमारे नुमायिंदे नहीं जानते
पुलिस प्रशासन नेता सब जानते हैं.
लेकिन चुनाव सर पर बने रहते हैं.
उन्हें सेंकनी होती हैं रोटियाँ 'वोटों की'
उन्हें हमारे वोटों से ज़्यादा
टुकड़ों पर बिकने वालों के वोटों की परवाह रहती हैं.

तभी तो आज भी
लालू, मायावती, मुलायम
राहुल, सोनिया इस आतंक की लड़ाई में
सख्त बयानबाजी से ही काम चला रहे हैं.
विस्फोटों में स्वाहा हुए परिवारों को
खुले दिल से नोट मदद बाँट रहे हैं,
मदद बाँट रहे हैं. ...
 
[अपने मित्रों के चाहने पर प्रकाशित]

प्रचारतंत्र की जय [आज के नेता का स्वगत कथन]

मुझमें ना है कोई योग्यता
फिर भी मैं हीरो हूँ.

ना ही मुझमें रंग-रूप का
कोई आकर्षण है.

प्रबुद्ध जनों को शीघ्र
प्रभावित कर लूँ — असंभव है.

जिज्ञासु बालक की
जिज्ञासा को शमन करन का
मुझपर नहीं मंत्र-वंत्र है
ना ही कुछ अध्ययन है.

मैं केवल छपता रहता हूँ
पत्र-पत्रिकाओं में.
करूँ अटपटे काम
मैं रोचक न्यूज़ बना करता हूँ.

सर के बल जब चलूँ
तो भी फ्रंट पेज़ छपता हूँ.

मोटी रकम / न्यूज़ पेपर को / दूँ जैसा छाप जाऊँ.
बार-बार न्यूज़ चैनल को / मोटी रकम पहुँचाऊँ.
खुद को मनचाहा फिल्माऊँ.

पत्रकार पर जाँच कमेटी नहीं बैठती भाई.
चाहे कितना भ्रष्ट पतित हो दूर रहे सीबीआई.
ऐसे में मन कहता मेरा "प्रचारतंत्र की जय!"

[आज के नेता का स्वगत कथन]

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समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.