रविवार, 26 सितंबर 2010

नित्य प्रार्थना


विद्या विलास में हो तत्पर 
मन, शील हमारा हो सुन्दर 
तम, भाष हमारा सत्य सहित 
मन, मान मलिनता से हटकर. 

यम नियम आदि का हो पालन 
वैदिक कर्मों से भला इतर. 
जग जन-जन के दुःख दूर करे 
ऐसी विद्या देना हितकर. 

[एक परित्यक्त अर्चना, जो चिकित्सा के लिए 'काव्य थेरपी' औषधालय आ गयी.]

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

जो तय नहीं था

pratulvasistha71@gmail.com

उनको
अपने अनुरूप
कर पाना सरल था.
उससे भी पहले
उनको पा लेना सरल था.
पाकर
प्यार करना सरल था.
प्यार के विभिन्न पड़ावों से होते हुए
भोग तक पहुँच पाना सरल था.
फिर भी
रोकता था मुझको मेरा 'ज़मीर'
अथवा 'समाज का भय' था
किन्तु, इतना तय था ....
वे तोड़ कर सारे बंधन
मिलेंगे मुझको ज़रूर
कहाँ? कब? कैसे?
............. सब कुछ तय था.

लेकिन
राज-घराने की आबरू को बचाने में
राजा, मंत्री, राजपुरोहित
की तन्मयता......... तोडती थी
हमारे आपसी जुड़ाव को.

उनकी याद
दो महीने बाद
बनाकर फरियादी
खींच लायी मुझे राज-दरबार में.

वहाँ की नाटकीयता
करती है मुझको उनसे रू-ब-रू.
जब भी करता हूँ याद —

फरियादी की फ़रियाद :
________"बस एक बार मिलने के बाद चला जाऊँगा"
_____________________ "दूर ........... बहूत दूर."

राजा की चिंता :
________"बेटी का राग
___________घराने के उजले दामन पे दाग
__________________कहाँ मुँह दिखाऊँगा."

मंत्री की दलील :
________ "इस गंदी मछली ने
___________करी है मैली घराने की झील.
_________________ फाँसी दिलाऊँगा."

और
राजपुरोहित ने
मुझको सुनाकर
बोला _________ "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली."

किन्तु अकेले में
राजपुरोहित का राजा से कहना
"वैसे भी राजन! एक तरफ़ा नहीं है
प्रेम इन्हों का.
ये बेटी हमारी, वो बेटा किसी का.
दोनों ही व्याकुल हैं.
मिलने को आतुर हैं.
जुटा लिए हैं मैंने सारे प्रमाण."

पर मेरी गरदन
झुकी है न आगे किसी के.
प्रेम अतिशय था
इसीलिए तय था/ मुझ फरियादी का
राजा के सम्मुख, नतमस्तक होना.
लेकिन
लगायी जो शर्त उन्होंने
"जमाता रहेगा तो तू यहीं का"

कैसे मैं मानूँ?
_______________ जो तय नहीं था.


शनिवार, 11 सितंबर 2010

शेरा का बसेरा

बहुत दिनों से इंतज़ार है 
खेलों का हो जाए सवेरा.
दिनभर बादल छाये रहते 
रातों का तो फिक्स अंधेरा. 


दिनरात ट्रकों ने भर-भर पैसा 
दिल्ली की सड़कों पर गेरा.
कोमनवेल्थ गेम गाँव में 
शेरा का बन गया बसेरा. 

शीला के घर का शेरू ही  
खेलों का मैनेजर शेरा. 
कोमनवेल्थ गेम गुफा में 
घपले घोटालों का डेरा. 

पैसा पानी तरह बहा तो 
पानी भी आ गया भतेरा.
आधे अनपूरे कामों पर 
हथिनी कुंड ने पानी फेरा. 

शेरा .. तेरा शेरा .. मेरा   
शेरा को .. पानी ने घेरा. 
ऊपर गरजें काले बादल 
पीछे हथिनी का जल-घेरा. 

डूब रही है झोपड़-पट्टी 
डूब रहा उम्मीद बसेरा. 
लेकिन अपनी यही कामना 
खेलों का हो जाए सवेरा. 

रविवार, 5 सितंबर 2010

सूखी वृद्ध-गंध

pratulvasistha71@gmail.com

आदमी 
जब अनुभवों से 
पक जाता है, 
शरीर से 
सूख जाता है. 
फिर वह 
समाज के लिए 
अधिक उपयोगी हो जाता है.
सफेदे की पत्तियों की तरह. 

पर आज 
युवाओं को क्या हुआ है 
वह अपनी हथेलियों पर 
नहीं मसलता अनुभव की पत्तियाँ. 

अपनी ऊर्जावान मांसपेशियों को देखकर 
वृद्धों के जर्जर शरीर से तुलना करने लगता है. 
सूँघ नहीं पाता वह 
तब, चहुँ ओर व्याप्त 
सूखी वृद्ध-गंध*. 


*सूखी वृद्ध-गंध — अनुभव [जीवनानुभव]
[यह टिप्पणी रूप में विकसित हुई थी और इसका श्रेय शेखर सुमन जी को है, जिनका लिंक है : 
http://i555.blogspot.com/2010/08/blog-post_29.html ]

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

मुग्धावस्था का आत्मदाह

pratulvasistha71@gmail.com

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब मैं अनुरागी हो जाता हूँ.
तब मैं आपकी नहीं सुनता
बस अपनी ही कहता हूँ.
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह महत्व बनाने की कोशिश है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर प्रेमातिशयता का वाचिक प्रवाह?

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब आपके मुझसे बोले कथन
'शब्दों में'
खालिस शब्द ही रह जाते हैं
उनके भीतर का 'अर्थ' निकालना
मुझे याद नहीं रहता.
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह आपके प्रति घोर उपेक्षित भाव है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर मेरी मुग्धावस्था का आत्मदाह?

जब आप उपलब्ध होते हैं
तब मैं आपको बुला लेना चाहता हूँ
'समीप'
जबकि यह 'उपलब्धता' हमेशा आपकी तरफ से होती है
>>>>>>>>>>>>>> क्या यह मात्र 'शिष्टाचार-निमंत्रण' है
>>>>>>>>>>>>>> या फिर मेरी आत्मीयता का ताकना अदृश्य राह?

[प्रिय अमित शर्मा जी के लिए मेरे मनोभाव]

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