सोमवार, 15 अगस्त 2011

वाह रे आज का प्रजातंत्र !!

वाह रे आज का प्रजातंत्र 
घूमते सब गुंडे स्वतंत्र 
हाय फैला कैसा आतंक 
लगे हैं रक्षक-भक्षक अंक 
पुलिस पर एक बड़ा है मन्त्र 
किसी को पीट करें परतंत्र 
घोर है उनका अत्याचार 
रोंये सब जन-जन हो लाचार
बनाया था जिनको सरताज 
वही सर चढ़े हुए हैं आज 
लूटते लाज करें दुष्काज
गिरी न अब तक उनपर गाज.

प्रभु, एक विनती है सुन लो!
हमें तुम ऐसे रक्षक दो 
जो भक्षक के भक्षक हों.
या फिर,
करें ये राज, करें ये राज 
शीघ्र आयें हरकत से बाज 
नहीं तो हो जाएगा नाश 
हमारा ये सुन्दर समाज.

['लोकतंत्र' जीवित रहे ........ आओ ऎसी कामना करें.]

सोमवार, 25 जुलाई 2011

जान-कलेवा दुःख-देवा

मैंने तो सोचा था 
मेरा 'वोट' करेगा 'जनसेवा'
नहीं पता था 
वोट-वृक्ष के फल खा जायेगी बेवा. 

मैंने तो सोचा था 
बोया 'बीज' बनेगा 'तरु-मेवा'
नहीं पता था 
विषबेलें ही लिपट बनेंगी 'तरु-खेवा'.

मैंने तो सोचा था 
होती 'देश' प्रथम फिर 'स्व' सेवा
नहीं पता था 
लूट करेंगे मुखिया जी ही 'स्वमेवा'.

मैंने तो सोचा था 
'मोहन' अर्थ जगत के हैं देवा.
नहीं पता था 
निकलेंगे ये 'जान-कलेवा दुःख-देवा'.


शुक्रवार, 6 मई 2011

परशुराम-स्तुति

अक्षय तृतीया पर विशेष प्रस्तुति  

 [१]
नयन करुणा समम दृष्टि
सौम्यता मुख प्रेम वृष्टि
ब्रह्म तेजस निःसृती इव
....................... गंधित कमले [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[2]
युद्ध विद सम्पूर्ण सज्जित
रुद्र उर आक्रोश मज्जित
परशु पाश कृपाण सायक
....................... शंख चक्र धरे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]


[३]
भयं शोकं मनस्तापम
काम क्रोधं च दुष्पापम
सकल जन मन ग्रंथियों पर
....................... चलाता फरसे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[४]
जमद'ग्नि सुत, राम बालक
पिता आज्ञा वचन पालक
गंध मादन पर अहर्निश
....................... शिव तपस्य करे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[५]
शिव ह्रदय तप से द्रवित कर
दिव्य अस्त्र समग्र लेकर
प्राप्त ज्ञान प्रयोग सबका
....................... कर लिया शिव से [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[६]
मुक्त कर ला, काम धेनुक
शीर्ष हत कर मात रेणुक
पिता आज्ञा, मांग वर से
....................... पुनः जीवन दे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[७]
अपहरण महिषा विमर्दन
लूट चोरी अनीति वर्द्धन
सहस्रबाहु संग सारे
....................... इति हुए जड़ से [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[८]
अश्वमेधी यज्ञ में त्वम्
त्यागते सम्पूर्ण राज्यं
चल दिए उत्कल जलाशय
....................... गिरी महेंद्र वसे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[९]
सिय स्वयंवर समय शिंजिनी
चढ़ गयी धनु राम, कंजनी
देख लोचन, तेज विष्णु
....................... राम को देते [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[१०]
वाच नारद विश्व के हित
प्रभो.! दत्तात्रेय संचित
त्रिपुर सुन्दरि मंत्र जप से
....................... शक्ति लब्ध करे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[११]
द्रोण परशुराम शिष्यं
तक्र वत कुरु-मूल शून्यं
विवशतावश नय विपक्षी
....................... पक्ष किन्तु लड़े [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[१२]
गुरु गदा बलराम अभयम
कर्ण शिष्यं 'ब्रह्म' वदयम
भीष्म ने भी शिष्य बनकर
....................... दिव्य अस्त्र वरे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[१३]
दीन रक्षक दुष्ट घातक
नष्ट करते सकल पातक
नींव धरकर विश्व में तुम
....................... प्रजातंत्र तरे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी..ययी]
....................... परशुराम नमे [यययी]

[अखिल भारतीय ब्राहमण सेवासंघ के विशेष आग्रह पर प्राचारार्थ]

यह स्तुति गीति शैली में होने से टेक के रूप में 'यययी..ययी' [निरर्थक शब्द] सहारे के लिए प्रयोग में लाया गया है. इसका कोई अर्थ नहीं है.
उवाच में एक 'उ' मात्रा अखर रही है सो उसे आप उ को स्पर्श करते हुए केवल 'वाच' ही पढ़ें.

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

करुणानिधान उर्फ़ चिकना घड़ा

'मुझको वञ्चित' 
---------- किया सो किया। 
'था जो सञ्चित' 
---------- दिया सो दिया। 

कर ली तेरी हर विधि पूजा। 
जबरदस्ती खुश होकर जिया।। 


'सुख था किञ्चित'
---------- मृग मरीचिका। 
'बतरस सिञ्चित' 
---------- दृग यवन्निका*।

है तेरा अन्याय सुरक्षित। 
सुख देकर दुःख अधिक दे दिया।।  


'अमित प्रवंचित'
---------- हुआ क्यों हुआ?
'भौमिक स्वर मित'
---------- हुआ क्यों हुआ? 

करुणानिधान कह कह तुमको
चिकना मैंने घड़ा कर दिया।। 

_____________________
* दृग यवन्निका = दृग यवनिका [पलकें]
यवनिका = रंगमंच का परदा.

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

गांधी गुजरा आया अन्ना

भूखा बैठा वजन घटाता 
जनता की आवाज बढाता 
बेलगाम शासन को काबू 
करने को अनशन अपनाता 

जागी फिर स्वराज तमन्ना 
गांधी गुजरा आया अन्ना.

सत्ताधारी मोटे अजगर 
पड़े हुए हैं कितना खाकर?
नहीं जानता कोई अब तक? 
कौन सपेरा पकड़े आकर? 

पलट गया संशय का पन्ना.
गांधी गुजरा आया अन्ना.

भारत मुद्रा गांधीवादी 
जिसपर जितनी उसकी आंधी. 
असली गांधी नाम लगाकर 
करते चांदी नकली गांधी.

निचुड़ चुका गांधी का गन्ना. 
गांधी गुजरा आया अन्ना.

मंगलवार, 29 मार्च 2011

प्रशंस-भोज


कलाकार का धर्म 
कला में कल की रचना करना. 
एक नया आकार बना कर 
कल को रंगी करना. 
बीते कल को सोच 
ध्यान से धीरे-धीरे चलना. 
क्षण-भंगुर सपनों में 
अपने नेत्र-निमीलन मलना. 
कलाकार-प्रतिभा का भूषण 
केवल भोग नहीं है. 
उसकी भी पाने की इच्छा 
प्रशंस-भोज रही है.

मंगलवार, 22 मार्च 2011

उतरन होली

होली पीछे गयी .. रंग की 
आयी है ... 'उतरन होली'. 
रंगे हुए सियारों की अब 
सुन लो 'हुआ-हुआ' बोली.

"मेरे अनशन ने दिलवाया 
भूखों को .. खाना भरपेट. 
पर 'सुभाष' ने खून माँगकर* 
खुलवाया .. हिंसा का गेट." 

"मेरे ... बन्दर बँटवारे ने 
रोकी .. छीना-झपटी कैट.
पर .. 'नाथू' लंगूर भगाता 
पार .. 'राम नाम' के गेट."*

"मेरे .. 'हरिजन' संबोधन ने 
दी दलितों को बिग नेम-प्लेट. 
'भीमराव जी' फिर भी घूमे 
'अम्बेडकर' का नाम लपेट."*

"वैष्णवजन तो तैने कहिये 
'शैतानों' को ... दे भरपेट. 
उनको दुश्मन कहो देश का 
जो रहते हैं 'आउट ऑफ़ डेट." 



मंगलवार, 15 मार्च 2011

संतापों से दग्ध हुए हृदय में 'त्वरा आह्लाद' है होली

संस्कृत और हिन्दी व्याकरण में 'ह' और 'स/श/ष' को दग्धाक्षर कहा जाता है. 
– क्यों? इन्हें दग्धाक्षर क्यों कहते हैं? 
– क्या ये सभी वर्ण दग्ध (जले हुए) हैं? अथवा 
– इनका नाद दग्ध करता है? 
इनकी गणना ऊष्म व्यंजनों के अन्दर भी होती है. 
– क्या इनके उच्चारण पर ऊष्मा का निस्सरण होता है? अथवा 
– ये उच्चरित होकर ऊष्मा संग्रहित करते हैं? 

जी हाँ, प्रत्येक ध्वनि के अपने-अपने विशेषण हुआ करते हैं और उन विशेषणों का शब्द-रूप औचित्यपूर्ण हुआ करता है. अनायास शब्द-निर्माण या भाव-चित्र के लिये अनुमान से शब्द गढ़ना संस्कृत व्याकरण में तो रहा नहीं |

प्राणियों में मनुष्य ही सार्थक ध्वनि समूहों वाली भाषा का प्रयोग करता है. शोक, हर्ष व अन्य अनुभूतियों पर आंगिक क्रिया करने के साथ-साथ वह उनसे सम्बद्ध ध्वनियों का उच्चारण भी अनायास कर बैठता है. यदि इन सभी ध्वनियों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि इनमें से संतापसूचक, पीड़ा-प्रदर्शक और आह्लाद-द्योतक ध्वनियाँ ही 'ऊष्म व्यंजनों वाली' है |

शरद, हेमंत, शिशिर की ऋतुओं में शीत के सताने पर जो ध्वनियाँ मुख से  निकलती हैं वे भी ऊष्म व्यंजनों से बाहर नहीं. कँपकँपी में "ह्ह्ह , हो..हो..हो..",  जलन में श्वास मुख से भीतर-बाहर करते हुए - "शsss.." ध्वनि करना |

कभी ध्यान दें बच्चों को चोट लगने पर, ... जो सबसे पहली ध्वनि होगी .. वह 'अ', 'आ', के स्वरों में मिली ऊष्म व्यंजनों की ही होगी |

विदेशी 'ओह, आsह, आउच' शब्दों में अपनी पीड़ा का मोचन करने वाले लोग भी इन 'ओ,आ' स्वरों में अपनी दग्धता छिपाए हैं | 

'अ, आ' आदि स्वरों को दग्धाक्षरों से पूर्व तभी जोड़कर बोला जाता है जब अपनी पीड़ा या अपनी अनुभूति को दूसरे तक संप्रेषित करना लक्ष्य हो. बच्चा 'उवाँ-उवाँ' करके रोये अथवा कोई मोर्डन महिला 'आउच' करे - ये ध्वनियाँ संकेत मात्र हैं कि उनकी परेशानी को समझा जाये, उन्हें उचित सुरक्षा दी जाये | 

वस्तुतः शब्दों में अधिकांश स्वरों का प्रयोग उन्हें बल प्रदान करने के लिये होता है. अधिक स्वरों का आगम शब्द को  आकर्षक और बरबस ध्यान खींचने वाला बना देता है |

'होली' शब्द में दूसरा व्यंजन 'ल' है जो अन्तस्थ व्यंजन है. यह अनुभूति (हृदय) की आह्लादात्मक ध्वनि है. 'ह' ध्वनि संताप व्यक्त करने के साथ-साथ आह्लाद को भी दर्शाती है |

हँसी के रूप में 'हा.हा.हा...' और हीं.हीं.हीं...' ध्वनियाँ प्रयुक्त होती हैं. इस प्रकार 'ह' और 'ल' दोनों ही व्यंजन आह्लादात्मक उल्लास को व्यक्त करते हैं. किन्तु इन दोनों में अंतर यही है कि 'ल' वर्ण पूर्णतः आह्लाद को दर्शाता है जबकि 'ह' वर्ण की विशेषता 'उन्मोचन' की है |

प्रफुल्लित हृदय 'ल' ध्वनि की पुनरावृत्ति से झूम उठता है, तो संकुचित विश्रांत मन 'आलंबन और उद्दीपन' की श्रेष्ठता के आधार पर संचित पीड़ा को ... 'ह' ध्वनि के रूपों से ... मोचता है | 

पहला रूप शोक का है — 'हा! हाय-हाय! होs.. च्च.[क्लिक ध्वनि] !' ये मनःस्थिति की स्वाभाविक प्रस्तुति है. 
दूसरा रूप हर्ष का है — "हें! [आश्चर्य]......... हु हा हा हा!!  [हँसी] ......... हीं.हीं.हीं.' ये मनःस्थिति की वैकल्पिक प्रस्तुतियाँ हैं किन्तु एक सीमा तक | 

अपने दुःख पर 'हाय-तौबा' करना सामान्य वृत्ति है, स्वयं के संतापों पर मुस्कुराना या हँसना दार्शनिक वृत्ति है किन्तु दूसरों की पीड़ा या पराजय पर हँसना हास्य का शिष्ट रूप नहीं |

प्रतियोगिता में प्रतिवादी को हारते देख या शत्रु को रणभूमि में पराजित होते देख उसमें अपने पक्ष के लोगों की आह्लादात्मक ध्वनियाँ भी एक सीमा तक शिष्टाशिष्ट दायरे से बाहर रखी जाती हैं ये तो मात्र उत्साहवर्धन का आनंद द्योतित रूप होती हैं | 

इस तरह 'होली' शब्द का ध्वन्यात्मक अर्थ स्पष्ट है :
ह+ओ+ल+ई (संताप प्रदर्शक ध्वनि + ध्यानाकर्षक ध्वनि + आह्लाद द्योतक + तीव्रता सूचक ध्वनि) 

होली पर्व पर प्रायः "होली हैSS, होली हैSS" ... का स्वर ... रंग उड़ाते, रंग लगाते, रंग मलते, रंग घोलते आदि आदि करते समय सुना जा सकता है |

होली पर व्यक्ति कर कुछ भी रहा हो मूलतः वह अपने मनस्ताप और शारीरिक तापों को दूर कर देना चाहता है. "होली है, होली हैSS,होली हैSS" की गूँज ... संतापों का हरण करने में सहायक है |

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

तनाव की तपन

कविता ने है कर दिया 
मेरा कंठ अवरुद्ध. 
भ्रष्ट राग गाता फिरा 
नहीं हुआ कुछ शुद्ध. 

नहीं हुआ कुछ शुद्ध 
तनाव की तपन झुलसता. 
सत्य सूर्य को आज़ 
भ्रष्ट बादल भी ग्रसता. 

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तब ही वाणी तुझको स्वीकार करेगी


अय माँ! कहाँ पर मेरी शिक्षा होगी? 
है कौन पद्धति शिक्षा की उपयोगी? 

मैं जहाँ ब्रह्मचारी बनकर पढ़ पाऊँ. 
संयम मर्यादा शील धर्म अपनाऊँ.
मुट्ठी में कर लूँ मरण शरण किस जाऊँ? 
करनी से अपने ही सब क्लेश मिटाऊँ?

विकृत न सोच को होने दूँ व्यभिचारी. 
ना बसे कल्पना में आ नंगी नारी. 
किस तरह उचित-अनुचित का निर्णय लेकर 
मैं स्वयं बुद्धि को मथ लूँ अपने वश कर. 

गुरुकुल कोलिज का मुझको भेद बताओ. 
उलझे प्रश्नों को आप प्रथम सुलझाओ. 

क्या संयम से मुझको नव जोश मिलेगा? 
होकर विरक्त मुझको संतोष मिलेगा? 
या दमन इन्द्रियों का करके तन जर्जर 
हो जावेगा क्या ह्रदय नहीं निज बर्बर? 

क्या स्नेह नहीं तब उर को छील बहेगा? 
तब भी क्या उर संवेदनशील रहेगा? 
करुणा दीनों पर तब भी क्या उपजेगी? 
क्या क्रोध बुद्धि का तब ना नाश करेगी? 

क्या संन्यासी मन प्रेम नहीं करता है? 
अथवा विरक्त होकर खुद को छलता है? 
उर में ममत्व का ज्वार नहीं क्या उठता? 
अथवा ऊपर से शांत भीत से कुढ़ता? 

उर्वशी रूप पर मुग्ध हुआ योगी था? 
योगी था वा वासना त्रस्त रोगी था? 
उस विश्वमित्र का वंश बढाने वाले 
हैं बैठ गए बन योगी आश्रम वाले. 

किसके आगे ना खाई न पीछे गड्ढा? 
है कौन आश्रम नहीं अय्याशी अड्डा? 
पहले मठ होते थे पर अब आश्रम हैं? 
दाढी वाले बाबा भी किस से कम हैं? 

अब रहा कौन आदर्श आज गुरुकुल में. 
चेले बाहर गुरु अन्दर देखे फ़िल्में. 
श्लोकों की जगह आज गीतों ने ली है. 
मुख के द्वारा यह खुले आम केली* है. 

अब नहीं पद्धति गुरुकुल की भाती है. 
कोलिज की भी मन मेरा उचटाती है. 

मैं बदला कोलिज में जाने के कारण. 
बन गया लार्ड मैकाले का मैं चारण. 
संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनी मैं भूला. 
श्लोकों का उच्चारण करना भी भूला. 

मैं भूल गया - मैं कौन देश का वासी. 
मैं भूल गया हूँ - नाम और क्या राशी. 
सभ्यता संस्कृति है क्या, भूल गया हूँ. 
पहचान हमारी है क्या, भूल गया हूँ. 

अब भेद नहीं मनुष्य-पशु में कर पाता*. 
क्या है सच अथवा झूठ नहीं कह पाता. 
परिभाषाओं ने रूप बदलकर अपना. 
मुझको असमंजस में डाला है इतना. 

कि भूल गया मैं पिछले आदर्शों को. 
गत भक्तिकाल तक के बीते वर्षों को. 
अब रीतिकाल ही मन पर छाया रहता. 
सबको नंगा करने को उत्सुक रहता. 

हर दृष्टिकोण मेरा अब अपराधी है. 
अब अर्धनग्न नारी भी मर्यादी है. 
क्या आग लगी है उर में मेरे भाई. 
मैं रसिकराज बनकर करता कविताई. 

मन आज मुझे ना जाने क्या-क्या कहता. 
नंगों को ही नंगा करने को कहता. 

मन को मैंने है लाख बार समझाया. 
कि नंग बड़ा परमेश्वर होता आया. 
यदि कर भी दूँ शब्दों से उनको नंगा. 
कर देंगे सारे नंगे कल को दंगा. 

मन बार-बार फिर भी मुझको उकसाता. 
मुझको कायर सामर्थ्यहीन बतलाता. 
किस तरह स्वयं के मन को मैं समझाऊँ. 
परिचय दूँ अपना अथवा चुप रह जाऊँ. 

या पकड़-पकड़कर सबको कर दूँ नंगा? 
दो थन वाले जीवों से कर लूँ पंगा? 
मॉडल बन नारी का अपमान करे जो. 
बेशरमी से अंगों का गान करे जो. 

माँ सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो. 
मेरी वाणी में सुधा नहीं विष घोलो. 
विष बुझे बाण सीधे मृत्यु देते हैं. 
अविलम्ब 'अभी' को 'गत' करवा देते हैं. 

मैं आज विवश होकर विषपान करूँगा. 
पर कंठ तलक ही विष को मैं रक्खूँगा. 
मेरी वाणी को सुन पापी तड़पेगा. 
अन्दर से मरकर बाहर से भड़केगा. 

पर, मैं क्योंकर उनसे डरने वाला हूँ. 
मैं कलम छोड़कर ना भगने वाला हूँ. 
दो आशी माता कलम सत्य ही बोले. 
बेशक कषाय कटु तिक्त सदा ही बोले. 
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नर शक्तिशाली होकर सुन्दरता पाता. 
दुष्कर्मों से लेकिन गुंडा कहलाता. 
हो यही नियम नारी पर भी अब लागू. 
'रंडी' बोलो ... यदि है नारी बेकाबू. 

तब गायें गाना 'हाय..हेलो.. लुग* बोलें.
रंडी है देसी शब्द ... ज़रा अब बोलें. 
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मद काम वासना की जिसमें भी अति है. 
यदि आज नहीं तो कल उसकी दुर्गति है. 
हो गया काम गुंडा, रति हो गयी रंडी. 
जिह्वा पर अब मेरे सवार है चंडी. 
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शारदे!  क्षमा, वाणी ने विष्ठा उगला. 
बन बैठा मानस हंस आज है बगुला. 
बगुले पर ही अब सरस्वती बैठेगी. 
ना बैठेगी तो ... कभी नहीं बैठेगी. 

यदि शरम शारदे, बगुले पर आती है. 
वीणा भी छूट धरती पर गिर जाती है. 
तो रण-चंडी का दुर्गा रूप धरो री! 
अपनी वीणा को शिव का शूल करो री! 

वध करो शूल से जो हो नर व्यभिचारी. 
वध करो शूल से तब तुम निर्लज नारी. 
विद्यादेवी ! ....  तब ही वसंत मानूँगा. 
तब ही अपनी साधना सफल जानूँगा. 

मन में तेरी तब जय-जयकार हुवेगी. 
तब ही वाणी तुझको स्वीकार करेगी. 

[मेरी शिकायत : मेरी पूजा]



बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

खाली पेट ना होए जुगाली


ममता के आँसू घड़ियाली 
मिली रेलवे की रखवाली 
लालू को दिखता बिहार था 
ममता को दिखता बंगाली.

सत्ता की साधना कर रहे 
आज़ लुटेरे, बनकर माली. 
सबने लूटा तरह-तरह से 
ममता की थ्योरी 'बदहाली'.

लालू 'गरीब-रथ' लेकर आये  
खाली पेट ना होए जुगाली. 
ममता ने भी सोचा अब तो 
'नक्सल-रथ' भी भालो चाली. 

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

ज़्यादा फेरे नहीं लगाओ


परिणय की इस वर्षगाँठ पर 
गृहस्थी की ग्रंथी सुलझाओ. 
अमित और दिव्या शर्मा जी 
ज़्यादा फेरे नहीं लगाओ. 

उलझ रही हैं आज़ स्वयं में 
जो भी बातें यहीं भुलाओ. 
प्रेम और विश्वास जताने 
ज़्यादा फेरे नहीं लगाओ. 

संतोष परम धन कहते साधु 
आशा का कुछ अंत न पाओ. 
एक और व्यापार जमाने 
ज़्यादा फेरे नहीं लगाओ. 

कभी बुलाओ अपने घर पर 
और कभी खुद आओ-जाओ. 
परिणय की इस वर्षगाँठ पर 
ज़्यादा फेरे नहीं लगाओ. 

रविवार, 30 जनवरी 2011

प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे


मुझे पता है नहीं मिलेगा 
मुझको कोई पुरस्कार.  
इसीलिए मन के दर्पण का 
करता हूँ ना तिरस्कार. 

जैसा लगता कह देता हूँ 
कटु तिक्त मीठा उदगार.
मित्रों को भी नहीं चूकता 
तुला-तर्क वाला व्यवहार.  

मुझको बंधन वही प्रिय है 
जो भार होकर आभार. 
प्रेम नहीं प्रतिउत्तर चाहे  
मिले यदि, 'जूते' स्वीकार. 


मंगलवार, 25 जनवरी 2011

अपशब्द युद्ध कैसे लडूँ?


कोई कर दे तर्क से मुझको पराजित. 
साक्ष्य संचित कर मुझे नीचा दिखाये. 
फिर भी अपने गुरुजनों के पास जाकर 
पक्ष-स्व मज़बूत करना सोचता हूँ. 

कोई भद्दे भाव की करके बुनावट. 
बहस करने को मुझे घर पर बुलाये. 
मौन रहता कायरों की भाँति तब तक 
गालियों की बिछी चादर हट न जाये. 

आज़ अपने ही मुझे कहते कुपोषित. 
मानते हैं वे मुझे शय्या-पसंदी. 
फटकार पर भी मैं उन्हें बेअसर दिखता 
सुधरती है नहीं आदत मेरी गंदी. 

विद्वता के सामने मैं झुक भी जाऊँ. 
कुतर्कियों से हाथ दो-दो आजमाऊँ. 
पर हमेशा भाग जाता पीठ दिखला  
जहाँ भाषा भील बनकर नाच करती. 

शनिवार, 22 जनवरी 2011

आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है


एक समय था जब राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन का अर्थ हुआ करता था 'राष्ट्रीय-जगराता'. उस रात कविगण रसिक श्रोताओं को राष्ट्र-रेम, राष्ट्र-भक्ति, सद्भावना, समानता, कर्मठता, नारी के प्रति सम्मान भावना का पाठ पढ़ाते थे. एक क्षण को भी श्रोता ऊँघने या अंगडाई लेने लगता था तो कार्यक्रम की असफलता समझी जाती थी. कवि-सम्मेलन के दो दौर चलना अनिवार्य था. दूसरे दौर का अंत अगले दिन के प्रारम्भ से होता था. दूसरा दौर तब तक चलता था जब तक श्रोता भोर में गाये जाने वाले पक्षियों का समूहगान [कलरव] न सुन लें. 

कवि-सम्मेलनों का पूरी-पूरी रात चलना और श्रोताओं का प्रत्येक कवि की बारी का इंतज़ार करते हुए उस कवि द्वारा परोसे जाने वाली साहित्यिक रचनाओं को जानने की जिज्ञासा अंत तक मंच से बाँधे रखती थी. यूँ तो गोष्ठियों में निराला जी की 'राम की शक्ति पूजा' लम्बी कविताओं को सुनने के लिये आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे धैर्यवान श्रोता ही अंत तक साथ देते हैं, पर ऎसी लम्बी कवितायें प्रारम्भ से ही मंच पर सफल नहीं रहीं, चाहे (निःसंदेह) उनका स्तर कालिदासीय गरिमा [उच्चस्थ कवियों] से ही मंडित ही क्यों न रहा हो. ऐसे में एक समय अंतराल के बाद श्रोताओं की प्रतिक्रियाओं से लगने लगता है कि वे ऊब रहे हैं; उठकर चहलकदमी करने लगना, परस्पर विषयेतर बातें करने लगना, आदि-आदि. हल्की-फुल्की गुदगुदाने वाली रचनाओं पर दिल खोलकर ठहाके लगाना. 

अधिकांश श्रोताओं की रुचिओं और उनकी बदली मानसिकता को ध्यान रखते हुए अब वैसे कवियों की माँग बढ़ गयी है जो वनमानुष-सी शकल बनाकर फूहड़ हास से श्रोता नहीं तमाशबीनों को हँसाने का दम रखते हों. श्रोता इसलिये नहीं कहा क्योंकि 'श्रोता' संज्ञा की भी कुछ गरिमा होती है. श्रोता होने के लिये भी कुछ स्वयं निर्धारित व मर्यादित शर्तों का पालन किया जाना चाहिए. इन सबके चलते आज़ मंच पर रचना नहीं उसका प्रस्तुतीकरण प्रधान हो गया है, जिनसे हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत मजमा शैली और चुटकुला शैली दो नवीन शैलियों का प्रादुर्भाव देखने को मिल रहा है और साथ ही दूसरी रस की रचनाओं के अंतर्गत गीति और ग़ज़ल शैली प्रचान हो गयी है. 

मंचीय कविता के अंतर्गत मजमा और चुटकुला शैलियाँ नयी हैं. अन्यथा ये दोनों शैलियाँ भी काफी पुरानी हैं. दरबारी संस्कृति में दरबार के या कभी-कभी बड़े स्तर के कार्यक्रमों में प्रजा के मनोरंजनार्थ नट, बाजीगर, मदारी आदि तमाशा दिखाया करते थे. उसके अलावा कभी-कभी दरबार के ही बुद्धिमान लोग [तेनालीराम, वीरभद्र (बीरबल) जैसे] और आश्रित कविगण मनोविनोद निमित्त बड़े पदाधिकारियों से चुटकी लिया करते थे जिसे हम उस समय के चुटकुले कह सकते हैं. बातचीत के दौरान किसी को नीचा दिखा देना या किसी की अभिशंसा करना इस चुटकुला शैली की विशेषताएँ थीं जो आज भी बरकरार हैं. 

राष्ट्रीय कवि मैथिलीशरण गुप्तजी के विषय में 'थैली की शरण में गुप्त भावेन स्वीकारोक्ति' तत्कालीन विरोधी मन वाले कवियों के मध्य हास्य का विषय रही. [जिसका अर्थ : मैं थैली की शरण में गुप्त भाव से रहता हूँ.] खुद मैथिलीशरण जी के घर की एक घटना इस बात का खुला प्रमाण है कि औरों की निंदा में पहुँचे हुए विद्वान् भी आनंद लेते रहे हैं. 

एक बार अज्ञेय जी गुप्तजी के घर से नाराज होकर जाने लगे तो 
गुप्तजी ने रोका और पूछा "क्या हुआ, उठकर क्यों चल दिए?" 
अज्ञेय जी बोले "दद्दा! मैं आपके यहाँ अब कभी नहीं आऊँगा." 
गुप्तजी - "क्यों क्या हुआ?" 
अज्ञेय - "जहाँ हमेशा औरों की बुराइयों में रस लिया जाता हो, उस राष्ट्र कवि के घर ठहरने में मुझे लज्जा आती है." 
गुप्तजी हँसकर बोले - "अरे भई, निन्दारस से बढ़कर भी कोई रस है?... इसके पीछे हमारी कोई किसी से दुर्भावना नहीं रहती." 

और देखने में आया है कि निन्दारस प्रेम जब बढ़ते-बढ़ते दीवानगी का रूप ले लेता है तब रचना की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता, उसका प्रस्तुतीकरण ही प्रधान हो जाता है. और तब लेती है मंचीय मजमा शैली और चुटकुला शैली. 'कवि' तब कवि कम मदारी अधिक लगने लगता है. आवाहन करता कवि नहीं डुगडुगी बजाता मदारी. क्यों सही कहा या गलत?

रविवार, 9 जनवरी 2011

एक कोड़े से करी पिटाई

एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 
आगे क्रोध-कुंड है मेरे 
पीछे छल-भावुकता खाई. 

एक पंक्ति में खड़े कर दिए 
दुश्मन और मुँहबोले भाई. 
धूर्त और मक्कार निकलते 
है कैसी ये न्याय-तुलाई? 

खुद का दुःख है पाँव फैलाता 
बन जाता है ताड़ की नाईं. 
और हमारा सिमट गया तो 
समझ लिया सूखी मृत राई. 

जिन पैरों न पड़े बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई. 
जो उनके मन का सोचा है 
वही सत्य-पथ, शेष खटाई. 

कोड़ा अलग ले लिया होता 
पी जाते सब तिक्त दवाई.
एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 

बुधवार, 5 जनवरी 2011

व्यर्थ निंदा लाभकारी

अये सुनारी! 
व्यर्थ निंदा लाभकारी. 
बन गए हैं जो प्रचारक 
अवगुणों के शोधकर्ता 
धूमकेतु भाँति वे भी 
अयन का अधिकार पाने 
लगाने दो उन्हें चक्कर 
धुल धुआँ युक्त डग्गर

अये सुनारी! 
दुष्ट भी तेरे पुजारी. 
कर रहे हैं रात और दिन 
तुझ से नाता जोड़ने को 
औघड़ों की भाँति वे भी 
अर्चना अधिकार पाने 
मारने दो टोना-मंतर.
मांस मदिरा पकड़ खप्पर

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शब्दों से तात्पर्य : 
अयन — गमन, गति,  चाल, प्रायः पिंडों की गोलाकार गति के लिए प्रयुक्त होता है.
डग्गर — हिंसक पशु, खूंखार जानवर.
औघड़ — फूहड़, अघोरपंथी, जो विपरीत क्रियाओं के द्वारा भक्ति का आडम्बर कर्ता है. 
खप्पर — खोपड़ीनुमा भीख माँगने का पात्र. 


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