अय माँ! कहाँ पर मेरी शिक्षा होगी?
है कौन पद्धति शिक्षा की उपयोगी?
मैं जहाँ ब्रह्मचारी बनकर पढ़ पाऊँ.
संयम मर्यादा शील धर्म अपनाऊँ.
मुट्ठी में कर लूँ मरण शरण किस जाऊँ?
करनी से अपने ही सब क्लेश मिटाऊँ?
विकृत न सोच को होने दूँ व्यभिचारी.
ना बसे कल्पना में आ नंगी नारी.
किस तरह उचित-अनुचित का निर्णय लेकर
मैं स्वयं बुद्धि को मथ लूँ अपने वश कर.
गुरुकुल कोलिज का मुझको भेद बताओ.
उलझे प्रश्नों को आप प्रथम सुलझाओ.
क्या संयम से मुझको नव जोश मिलेगा?
होकर विरक्त मुझको संतोष मिलेगा?
या दमन इन्द्रियों का करके तन जर्जर
हो जावेगा क्या ह्रदय नहीं निज बर्बर?
क्या स्नेह नहीं तब उर को छील बहेगा?
तब भी क्या उर संवेदनशील रहेगा?
करुणा दीनों पर तब भी क्या उपजेगी?
क्या क्रोध बुद्धि का तब ना नाश करेगी?
क्या संन्यासी मन प्रेम नहीं करता है?
अथवा विरक्त होकर खुद को छलता है?
उर में ममत्व का ज्वार नहीं क्या उठता?
अथवा ऊपर से शांत भीत से कुढ़ता?
उर्वशी रूप पर मुग्ध हुआ योगी था?
योगी था वा वासना त्रस्त रोगी था?
उस विश्वमित्र का वंश बढाने वाले
हैं बैठ गए बन योगी आश्रम वाले.
किसके आगे ना खाई न पीछे गड्ढा?
है कौन आश्रम नहीं अय्याशी अड्डा?
पहले मठ होते थे पर अब आश्रम हैं?
दाढी वाले बाबा भी किस से कम हैं?
अब रहा कौन आदर्श आज गुरुकुल में.
चेले बाहर गुरु अन्दर देखे फ़िल्में.
श्लोकों की जगह आज गीतों ने ली है.
मुख के द्वारा यह खुले आम केली* है.
अब नहीं पद्धति गुरुकुल की भाती है.
कोलिज की भी मन मेरा उचटाती है.
मैं बदला कोलिज में जाने के कारण.
बन गया लार्ड मैकाले का मैं चारण.
संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनी मैं भूला.
श्लोकों का उच्चारण करना भी भूला.
मैं भूल गया - मैं कौन देश का वासी.
मैं भूल गया हूँ - नाम और क्या राशी.
सभ्यता संस्कृति है क्या, भूल गया हूँ.
पहचान हमारी है क्या, भूल गया हूँ.
अब भेद नहीं मनुष्य-पशु में कर पाता*.
क्या है सच अथवा झूठ नहीं कह पाता.
परिभाषाओं ने रूप बदलकर अपना.
मुझको असमंजस में डाला है इतना.
कि भूल गया मैं पिछले आदर्शों को.
गत भक्तिकाल तक के बीते वर्षों को.
अब रीतिकाल ही मन पर छाया रहता.
सबको नंगा करने को उत्सुक रहता.
हर दृष्टिकोण मेरा अब अपराधी है.
अब अर्धनग्न नारी भी मर्यादी है.
क्या आग लगी है उर में मेरे भाई.
मैं रसिकराज बनकर करता कविताई.
मन आज मुझे ना जाने क्या-क्या कहता.
नंगों को ही नंगा करने को कहता.
मन को मैंने है लाख बार समझाया.
कि नंग बड़ा परमेश्वर होता आया.
यदि कर भी दूँ शब्दों से उनको नंगा.
कर देंगे सारे नंगे कल को दंगा.
मन बार-बार फिर भी मुझको उकसाता.
मुझको कायर सामर्थ्यहीन बतलाता.
किस तरह स्वयं के मन को मैं समझाऊँ.
परिचय दूँ अपना अथवा चुप रह जाऊँ.
या पकड़-पकड़कर सबको कर दूँ नंगा?
दो थन वाले जीवों से कर लूँ पंगा?
मॉडल बन नारी का अपमान करे जो.
बेशरमी से अंगों का गान करे जो.
माँ सरस्वती, बोलो अब तो कुछ बोलो.
मेरी वाणी में सुधा नहीं विष घोलो.
विष बुझे बाण सीधे मृत्यु देते हैं.
अविलम्ब 'अभी' को 'गत' करवा देते हैं.
मैं आज विवश होकर विषपान करूँगा.
पर कंठ तलक ही विष को मैं रक्खूँगा.
मेरी वाणी को सुन पापी तड़पेगा.
अन्दर से मरकर बाहर से भड़केगा.
पर, मैं क्योंकर उनसे डरने वाला हूँ.
मैं कलम छोड़कर ना भगने वाला हूँ.
दो आशी माता कलम सत्य ही बोले.
बेशक कषाय कटु तिक्त सदा ही बोले.
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नर शक्तिशाली होकर सुन्दरता पाता.
दुष्कर्मों से लेकिन गुंडा कहलाता.
हो यही नियम नारी पर भी अब लागू.
'रंडी' बोलो ... यदि है नारी बेकाबू.
तब गायें गाना 'हाय..हेलो.. लुग* बोलें.
रंडी है देसी शब्द ... ज़रा अब बोलें.
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मद काम वासना की जिसमें भी अति है.
यदि आज नहीं तो कल उसकी दुर्गति है.
हो गया काम गुंडा, रति हो गयी रंडी.
जिह्वा पर अब मेरे सवार है चंडी.
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शारदे! क्षमा, वाणी ने विष्ठा उगला.
बन बैठा मानस हंस आज है बगुला.
बगुले पर ही अब सरस्वती बैठेगी.
ना बैठेगी तो ... कभी नहीं बैठेगी.
यदि शरम शारदे, बगुले पर आती है.
वीणा भी छूट धरती पर गिर जाती है.
तो रण-चंडी का दुर्गा रूप धरो री!
अपनी वीणा को शिव का शूल करो री!
वध करो शूल से जो हो नर व्यभिचारी.
वध करो शूल से तब तुम निर्लज नारी.
विद्यादेवी ! .... तब ही वसंत मानूँगा.
तब ही अपनी साधना सफल जानूँगा.
मन में तेरी तब जय-जयकार हुवेगी.
तब ही वाणी तुझको स्वीकार करेगी.
[मेरी शिकायत : मेरी पूजा]
शब्दार्थ :
केली — काम-क्रीडा
लुग — लोग, व्यक्ति से तात्पर्य
मनुष्य-पशु में मिटता भेद : स्वभाव के अलावा क्रिया-कर्म में भी भेद समाप्त होता जा रहा है, जबसे मुझे पता चला है कि इस्लाम में पशु-मैथुन आदि दुष्कर्म तक होते हैं. मन कराह उठा यह सब जानकार : "फोड़ ले आँखे आज समाज , बहुत खुश होगा ईश्वर आज..." सभ्यता बची नहीं रह गयी है.
पंडित बी. के. शर्मा ने अपने भंडाफोडू" में समाज का ये कैसा चित्र दिखा दिया !!!
आपकी रचना पढ़ी । सार्थक अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
दो आशी माता कलम सत्य ही बोले.
जवाब देंहटाएंबेशक कषाय कटु तिक्त सदा ही बोले.
भगवती से हम भी यही वर चाहतें है. भीषण सत्याग्नी का ताप महसूस हो रहा है, आपकी कविता में. "सांच की आंच"
आपने रचना पढी और सराही.
जवाब देंहटाएंमेरा अहोभाग्य. वैसे ऐसा काव्य-पाठ तो हमेशा उपेक्षित ही होता आया है - मैं जानता हूँ.
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जवाब देंहटाएंमैंने दो दिन प्रतीक्षा की अपने इस चिकित्सालय में लेकिन कोई अन्य झुलसा हुआ फोलोअर नहीं आया.
"कटु सुनकर भी 'चिकने भन्टे' प्रतिक्रियाहीन
अपशब्द नहीं कहते, मनोरंजन करें, बीन
महिषा समक्ष मैं बजा गाल करता बकबक.
उनका होता मन-रंजन मेरा शुष्क हलक. "
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प्रतिक्रिया में मुझे ताली नहीं अपशब्द भी मिलें तो उस कविता को मैं प्रभावी मानता हूँ.
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suprabhat guruji,
जवाब देंहटाएं"........"
pranam.
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जवाब देंहटाएंसंजय जी,
आपने इस कटु रचना पर अपनी मौन उपस्थिति तो दर्ज करवायी.
मुझे अच्छा लगा.
मैंने कभी एक नारा बनाया था :
"मौन भंग मौन संग"
इस 'नारे' को आपने आज सार्थकता दे दी. आभार.
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Great POST
जवाब देंहटाएंज्यादा बोलने की हिम्मत नहीं होती आपके आगे .. पता नहीं कौन सा [बेहद सीधा सा] सवाल मुझ मासूम से पूछ लिया जाये :(
जवाब देंहटाएंबहुत्सुन्दर रच्बा है :)
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