रविवार, 9 जनवरी 2011

एक कोड़े से करी पिटाई

एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 
आगे क्रोध-कुंड है मेरे 
पीछे छल-भावुकता खाई. 

एक पंक्ति में खड़े कर दिए 
दुश्मन और मुँहबोले भाई. 
धूर्त और मक्कार निकलते 
है कैसी ये न्याय-तुलाई? 

खुद का दुःख है पाँव फैलाता 
बन जाता है ताड़ की नाईं. 
और हमारा सिमट गया तो 
समझ लिया सूखी मृत राई. 

जिन पैरों न पड़े बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई. 
जो उनके मन का सोचा है 
वही सत्य-पथ, शेष खटाई. 

कोड़ा अलग ले लिया होता 
पी जाते सब तिक्त दवाई.
एक कोड़े से करी पिटाई 
दर्द इसी का है दुःखदाई. 

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नयी दिल्ली, India
समस्त भारतीय कलाओं में रूचि रखता हूँ.