दर्द इसी का है दुःखदाई.
आगे क्रोध-कुंड है मेरे
पीछे छल-भावुकता खाई.
एक पंक्ति में खड़े कर दिए
दुश्मन और मुँहबोले भाई.
धूर्त और मक्कार निकलते
है कैसी ये न्याय-तुलाई?
खुद का दुःख है पाँव फैलाता
बन जाता है ताड़ की नाईं.
और हमारा सिमट गया तो
समझ लिया सूखी मृत राई.
जिन पैरों न पड़े बिवाई
वो क्या जाने पीर पराई.
जो उनके मन का सोचा है
वही सत्य-पथ, शेष खटाई.
कोड़ा अलग ले लिया होता
पी जाते सब तिक्त दवाई.
एक कोड़े से करी पिटाई
दर्द इसी का है दुःखदाई.
वीर-रस लिखो कवि, यह दयनीय-रस शोभा नहीं दे रहा।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंसुज्ञ जी,
मुझे नेक सलाह के लिए धन्यवाद. मैं इस काव्य-थेरेपी चिकित्सालय में कभी-कभी अपनी चिकित्सा भी करता हूँ. जो मन में था वह बाहर आना मवाद की तरह मान सकते हैं.
वीर रस के लिए उत्साह आवश्यक है. वह मुद्दों के सामने आते ही पैदा होगा. कृत्रिम रूप में आनंद नहीं रहता. उत्साह के लिए इंतज़ार करता हूँ.
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शायद कवि नीरज की कविता है…………
जवाब देंहटाएंछिप छिप के अश्रु बहाने वालों,
मोती व्यर्थ लुटाने वालों।
कुछ सपनो के मर जाने से,
जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है? नयन सेज पर,
सोया हुआ आंख का पानी।
और टूटना उसका जैसे,
जागे कच्ची निंद जवानी।
गीली उम्र बनाने वालो,
डूबे बिना नहाने वालो।
कुछ पानी के बह जाने से,
सावन नहीं मरा करता है।
suprabhat guruji,
जवाब देंहटाएंsundar vichar-samjhdar ke liye..
pranam.
एक कोड़े से करी पिटाई
जवाब देंहटाएंदर्द इसी का है दुःखदाई
bahut achcha laga.