रविवार, 25 जुलाई 2010

भयभीत श्रद्धा [गुरु-पूर्णिमा पर]

pratulvasistha71@gmail.com
[एक रचना मैं अपनी कोलिज़ की गुरु डॉ. रेखा अवस्थी को समर्पित करता हूँ. वैसे समाज में तमाम मेरे गुरु हैं जिनकी स्मृति आज मैं कर रहा हूँ. नाम लेकर कृतज्ञता अर्पित भी कर लेता हूँ. बालपन के गुरु शांता दीदी,  श्री पूसा सिंह, श्री रफीक मोहम्मद, श्री उमेश सिंह, श्री राम नारायण पाण्डेय, श्री किसन सिंह, श्री यू. वी. सिंह, कथूरिया सर, मित्तल सर, श्री धूम सिंह, श्री गंगा राम; श्री एन. एस. त्यागी, डॉ. विष्णु गोपाल सारस्वत, पोखरयाल सर, श्री एस. एन अवस्थी, आचार्य श्री रामप्रकाश भारद्वाज, धर्म गुरु विद्याराम मिश्र, तानाजी आचार्य, डॉ. देवव्रत आचार्य, डॉ. कृष्ण बिहारी मिश्र, डॉ. अनिल राय, डॉ. छाया तिवारी, डॉ. नवल किशोर शर्मा, डॉ. महेंद्र त्यागी; मित्रों में प्रोफ़ेसर संजय कुमार राजहंस, मित्र दीपचंद पाण्डेय, नवल मित्र अमित शर्मा, लेखक मित्र श्री समीर खान 'सूर्यपुत्र',  दार्शनिक मित्र निखिलेश कुमार 'निखंज', मित्र विनय कुमार, मित्र इन्दर कुमार — इन सभी से मैंने अपने चलायमान जीवन में काफी कुछ सीखा है. घोषित गुरुओं में कुछ को तो पता है कि उनका एक शिष्य 'प्रतुल' नामी है. कुछ मित्र-गुरुओं को पता नहीं होगा शायद उनसे किसी ने चुपचाप कुछ सीख लिया है.
मित्र दीप से एकांत सेवन, मित्र संजय राजहंस से मिलनसारिता, मित्र समीर खान से अविश्वास, मित्र मित्र विनय से जानकारी में अपडेट रहना, मित्र इन्दर से गंभीरता — मैंने सभी से कुछ-न- कुछ सीखा लेकिन ये सभी गुण उनकी स्मृति के साथ संचारी रहते हैं. मेरे मूल स्वभाव का गुरु मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरे संपर्क में आने वाले लोग हैं. प्रकृति है, परमात्मा है. अतः मैं उन सभी को नमन करता हूँ.
फिलहाल जो कविता मैं देने जा रहा हूँ वह डॉ. रेखा अवस्थी जी के एक संशय से उपजी थी.  व्याख्या देने में कविता कहने की इच्छा समाप्त ना हो जाए सो केवल कविता ही कहूँगा. ]

श्रद्धा समेट आया करने 
वंदन तेरे चरणों का मैं. 
पर मुझको ठोकर दे तुमने 
बिठा दिया श्रद्धा में भय. 


कैसे श्रद्धा निज निर्भय अब 
तेरे चरण पखारेगी.
कैसे हृत का अहम् छोड़कर
वत्सलता से हारेगी.


नहीं भूल पाऊँगा तेरे
शब्द, मिला जिनमें संशय.
पय पीता बच्चा बनता, सब
बातें मेरी मिथ्यामय.


सोच रहा था गुरु-पूर्णिमा
के दिन पाऊँगा आशी.
सदा-सदा के लिए भाग्य
से, अमा छंटेगी अविनाशी.


पर दुर्भाग्य सदा मुझसे दो
कदम पूर्व ही चलता है.
घोर निराशा की संध्या में
आशा-दिनकर ढलता है.
[रचनाकाल : गुरु-पूर्णिमा, १९९२]

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