सुन ली है मैंने
आपकी धड़कन
ह्रदय की.
भीड़ इतनी थी
कि बस में
कान मेरा
(सीट बैठे ) छू रहा था
वक्ष तेरा
आप ठाड़े पास में थे.
बोलते थे आप शायद
"सीट आरक्षित हमारी"
गाड़ियों का शोर
'पौं- पौं'
हो रहा था
नहीं पडता था सुनाई.
मैं विफलता शौक में था
शून्यता के लोक में था
सोचता था –
'भाग्य मेरा
साथ देता क्यों नहीं है'
"नहीं आती शर्म तुझको
बेशरम, बन ढीठ बैठा." –
खड़ा कर देने का 'दम'
उस कर्कशा आवाज़ में था.
हलक सूखा
लग रहा था
मीन मुख में
फँस पड़ा हो कोई 'काँटा'.
हाथ दोनों में से मैंने
एक टाँगा
हेंगर की भाँति ऊपर
और टेका दूसरा
सीट के डंडे के ऊपर
जहाँ पहले से धरे
दो हाथ चिकने
और उनपर केश बिखरे
लालिमा ले बाल काले.
झाँकता था श्वेत सुन्दर
बाल उनसे चमचमाता.
और मुझको था कराता
ज्ञान उसकी अवस्था का.
मेरे उठते सीट से ही
हो गई थी सीट के ही
गिर्द हलचल.
किन्तु मेरा ध्यान उसके
श्वेत कच की ओर ही था.
पा रहा था स्वयं को मैं
श्वेत कच की भाँति
छूटा -- बिन पुता.
हो गए हैं शेष काले
बाल वो भी लालिमा ले.
देख उनको याद आते क्लास वाले.
मेरी दृष्टि खोजती उनकी सफेदी.
और खुद की श्वेतिमा पर
करती अश्रुपात जमकर.
जड़ हुआ मस्तिष्क, लेकिन
प्रश्न अब भी कर रहा है :
"कौन कब आकर करेगा,
श्वेतिमा-सौन्दर्य को
मौलिक कसौटी पर कसेगा?"
विफलता शौक पर मेरे मन के उदगार.