[अपनी स्मृति के लिए : यह उस दौरान की कविता है जब अमित जी ने अपनी एक पोस्ट में मरू भूमि का एक ऐसा चित्र हमें दिखाया था जिसमें 'रेत' जल की भाँति बहती दिख रही थी, उसे देख मन रोमांचित हो गया था, यह तब ही की रचना है. इस कविता में दो पंक्तियों के बाद मरू ने ही अमित जी को संबोधित किया है.]
सूख चुके पानी के सोते
मन लगाता फिर भी गोते.
दादा जी के प्यारे पोते !
पालो संस्कार के तोते.
जो हममें हैं प्रेम पिरोते
उसके ही हम प्रेमी होते
पहला संस्कार यही है
नहीं परायों सम्मुख रोते.
चाहे जितने प्यासे होते
रहमों के आते हों न्योते
हम उधार का पानी लेकर
अपने अन्दर नहीं समोते.
धर्म बीज को बोते-बोते
खाली सारे हुए हैं पोथे
फिर भी खरपतवार उगे तो
'नहीं किये हमने समझौते.'
मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं. दिवाली की सफाई काम आयी.
मित्र अमित, मुझे पूरी कविता आखिर मिल ही गयी. उसे काव्य थेरपी में संग्रहित कर रहा हूँ. कहीं फिर लुप्त ना हो जाए. ऎसी ही लापरवाही ने मेरी कई रचनाएँ मुझसे दूर कर दी हैं. अब ऐसा नहीं होने दूँगा.
धर्म बीज को बोते-बोते
जवाब देंहटाएंखाली सारे हुए हैं पोथे
फिर भी खरपतवार उगे तो
'नहीं किये हमने समझौते.'
बहुत सुन्दर गहरे भाव लिये कविता के लिये बधाई।