[यह रचना एक प्रतिक्रिया मात्र है]
जो अमुक तारीख को
भरी थी फीस
लाया था
नयी चप्पलें और कमीज़.
एक कम दाम वाली
साइकिल और
छठी जमात के
दाखिले का परचा
वह भी कई स्कूलों में से
किसी एक बेहतर का.
"मदरसे तो सब एक से होते हैं
वहाँ नहीं होती ऎसी समस्या ढूँढने की"
ऐसा — बड़े अब्बा ने बोला था.
फिर भी ना जाने किस ताकत ने
मुझे सही-सही कदम उठाने को हमेशा उकसाया
लम्बे चौड़े रास्तों पर
चलने की बजाय
मैंने उस पतली गली में
चलना बेहतर पाया
जो बेशक बदबूदार
मीट की दुकानों से पटी थी
फिर भी मुझे
वहाँ से एक झोला भर
रात के खाने का
बंदोबस्त करने की पड़ी थी.
बारूदी पटाखों का शौक मुझे भी था
और मेरे बेटे को भी है.
बहरहाल, बेटा !
जितनी अच्छी बातों का फैसला है
वह मेरा खुदा ही मुझे बक्शता है.
और जितनी मेरी ऐन्द्रीय इच्छाएँ हैं
खाने-पीने और शौक पूरे करने की
उसमें मेरे खुदा का कोई रोल नहीं.
समझे ना बेटा.
उस खुदा से कोई बेहतर नहीं
और मैं भी नहीं.
एक श्रेष्ठ रचनाकार की रचना पर कमेन्ट करने की कोशिश की थी. यह मेरे मेल में सुरक्षित थी जिसे संजोने के लिए मैंने पोस्ट पर डालने का निर्णय लिया. क्योंकि मुझे ये 'प्रतिक्रिया वाला कमेन्ट' मुझे उस पल विशेष से जोड़ता है.
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