आधा गाँव
— आधा शहर
घूमें ढोर
— आठों पहर.
डाले बाँह
— हो निडर.
बाँहों में
— बेखबर.
सुबह शाम
— सड़कों पर.
घूमें हैं
— वधु-वर.
निकला बाजू
— ट्रक होकर.
उछला "छप्प्प"
— से गोबर.
[उड़न तश्तरी पर सवार श्रीमान समीर लाल जी को समर्पित]
समीर सर से एक प्रश्न: यदि कहीं कुछ लिखा जाता है तो बिना प्रभाव पड़े क्या रहा जा सकता है? यदि गोबर "उछाल पद्धति" से खुद पर आ गिरे तो कोई प्रतिक्रिया क्या आप नहीं देंगे?
उडन तश्तरी तक तो आपका (?) गोबर पहुंचने से रहा ।
जवाब देंहटाएंऐसे में क्या करियेगा-जिस गाय ने गोबर किया था, उसे खोज कर पीटियेगा या गांव की सारी गायों को गांव से निकलवा दिजियेगा कि क्यूँ गोबर करती हैं या ट्रक का चलना बंद कराईयेगा या खुद को साफ करियेगा और आगे से ऐसे मौको पर और संभल कर/बच कर चलियेगा?
जवाब देंहटाएंजबाब आप खुद ही सोच कर तय कर लिजियेगा-मैं क्या बताऊँ, आप तो स्वयं ही समझदार हैं. :)
आशा है जो प्रश्न आपने किया है, उसका जबाब मैं दे पाया. ऐसे ही ध्यान से पढ़ते रहिये और शंका उत्पन्न होने पर प्रश्न करते रहें, यह सजगता का परिचायक है.
आदरणीय समीर sir , आपके उत्तर संतुलन और धैर्य के परिचायक हैं, अच्छे लगते हैं, गुरु के सामने जिस तरह हर प्रश्न अपना समर्पण कर देता हैं उसी तरह आपके सामने भी. आगे भी अगर प्रश्न उठे तो पूछूँगा जरूर. गायों को गोबर करने की सजा शहर से हटाना कतई नहीं और ना ही कत्लगाह में भेजने की मुहीम चलाना है. लेकिन यह तो समाज में दिखाई दे रहा है. पर दूसरे स्तर पर गंदगी (भैसों का गोबर भी शामिल) फैलाने वाली अन्य खुदा कि भैसों का कोई कुछ बिगाड़ नहीं रहा. यह तो दोहरी नीति है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय आशा जी, यह गोबर गौ माता का ही था, जिससे कभी आँगन लीपा जाता था, मेरा गोबर से कभी बैर नहीं रहा. हाँ, कोई अगर अचानक दूध भी फैंक दे तो तिलमिलाहट तो होती ही है, प्रतिक्रिया देना मानवीय स्वभाव हैं. समझदारी का कुछ देर बाद बोध होता है. जिस तरह मेरे विचारों पर आपकी प्रतिक्रिया मिली, हाँ, जिससे लगाव होता है, उसकी चिंता भी होती है कि वह क्या कर रहा है.
मेरे घर आकर कोई रोगी बैठ जाए और जाए नहीं, तो मेरा ध्यान हर समय उस पर ही लगा रहेगा कि नहीं. कभी मैं उसकी तीमारदारी का सोचूंगा और कभी इश्वर से प्राथना करूंगा कि वह जल्द ठीक जो जाए.
मैं गुरु जनों से अपेक्षा रखता हूँ कि वे मार्गदर्शन सदा बनाए रखें.
प्रतुल जी नमस्कार,
जवाब देंहटाएंये वाली कविता तो मुझे आसानी से समझ आयी । इस बार मेरी ट्यूब लाइट झट से जल गयी। समीर जी बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं। आपने बहुत सही गुरु चुना। आप अपने कार्य में निसंकोच लगे रहिये। मन में प्रश्न उठाना बहुत स्वाभाविक है और आपके पास समीर जी जैसा मार्ग निर्देशक हो क्या कहने।
मेट्रो कल्चर में बूढ़े माँ-बाप भी अप्रासंगिक से ही है. और आने वाले समय में जब आप और बुजुर्ग हो जायेंगे तब उस पीढ़ी के लिए आप भी और ज्यादा अप्रासंगिक हो जायेंगे. और ये जो लोग हर किसी चीज को बकवास, अप्रासंगिक कहकर और धर्म (विशेषकर हिन्दू-धर्म) के नाम मुंह बिचका के अपने आप को खुले विचारों वाला और आधुनिक जतलाना चाहते है, इन्ही लोगो के हिसाब से इनका निपटारा किस प्रकार होना चाइये ये समझ सकते है .
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