बुधवार, 31 मार्च 2010
उदाहरण
—अनुगामी
आगे चलती मम परिभाषा।
औ' परिभाषा पदचिह्नों पर
मैं उछलकूद करता जाता।
या कभी-कभी
छुक-छुक-छुक कर
इक छोर पकड़ परिभाषा का
अपने मित्रों को साथ लिए
इक छोर और निर्मित कर उनके हाथ दिए
पीछे-पीछे
दौड़े चलते परिभाषा के।
तब अकस्मात्
पाठक श्रोता
का ध्यान भंग होता
या, कर्षण
खींच-खींच
लदने की इच्छा करा
सीटियाँ — बजवाता।
सोमवार, 29 मार्च 2010
मेरा प्रेम
— शून्य!
— अर्थात?
— खुला आकाश!
— क्यों?
— क्योंकि वहाँ मेरी कल्पना विचरण करती है।
— अच्छा, तो क्या तुम कल्पना से प्रेम करते हो?
— हाँ, बहुत!!
— बहुत, फिर भी कितना?
— जितना मैं अपने आप से करता हूँ।
— लेकिन यह शरीर और जीवन दोनों ही क्षण-भंगुर हैं। तब, क्या तुम्हारा प्रेम भी...
— हाँ, मेरा प्रेम भी क्षणिक है, जब तक यह शरीर और जीवन है, तब तक ही कल्पना से प्रेम जीवित है। या यूँ कहें, कल्पना भी तब तलक ही है।
— कवि! तब तुम्हारी आत्मा का क्या कार्य है?
— वह मुझे सदैव प्रेम करने की प्रेरणा देती रहती है। लौकिक के अतिरिक्त अलौकिक वस्तुओं से भी वह प्रेम करना सिखाती है। मेरी कल्पना लौकिक वस्तुओं से निर्मित होकर भी अलौकिकता की गरिमा लिए हुए है।
गुरुवार, 25 मार्च 2010
पीड़ा होती
(१)
हो जाती जब कोई उलझन
होने लगती जब है अनबन
पड़ जाती रस्ते में अड़चन
आती संबंधों में जकड़न
खोता समाज में जब बचपन
होने लगता युग परिवर्तन
आदर्शों का उत्थान पतन
देखा करते निर्लज्ज नयन
शिक्षित होकर होते निर्धन
हो रही व्यर्थ एजुकेशन
-- ऐसे में जलता है तनमन
व्याकुलता से झन झन झननन।
(२)
खुद को पावरफुल कहता मन
मानता नहीं किंचित वर्जन
मैं उल्लंघन बो लता जिसे
मन करे उसी का आलिंगन
कल्पनाशील कितना हैं मन
हर दम करता रहता चिंतन
बाहों में भरके नंग बदन
शय्या पर करता रहे शयन
संबंधों में होती जकड़न
भागा-भागा फिरता है मन
-- तब नहीं मानता कोई बहन
कामुकता में, झन झन झननन।
(३)
कर सको आप तो करो श्रवन
सभ्यता सनातन का कृन्दन
चिंता चिंतन सत सोच मनन
मर गया हमारा संवेदन
कर रही विदेशी कल्चर
घर की परम्पराओं का मर्दन
अब नहीं रहे सत भाव
ना माटी ही माथे का चन्दन
देहात शहर बन रहे और
बन रहे शहर नेकिड लन्दन
-- होता मर्यादा-उल्लंघन
पीड़ा होती झन झन झननन।
(४)
जब समाचार पत्रों को भी
घर में छिपकर पड़ता यौवन
छापते अवैध संबंधों पर
झूठे सच्चे जब अंतरमन
जब करे दूसरे मज़हब का
कोई हुसैन नंगा सर्जन
गीतों की धुन पर जब बच्ची
करती है कोई फूहड़पन
एडल्ट फिल्म को देख करे
बच्चा जब बहना को चुम्बन
-- हो जाते खुद ही बंद नयन
पीड़ा होती झन झन झननन।
(५)
विलुप्त हुआ परिवार विज़न
कमरे-कमरे में टेलिविज़न
जो भी चाहे जैसे कर ले
चौबीस घंटे मन का रंजन
सबकी अपनी हैं एम्बीशन
अनलिमिटेशन, नो-बाउंडएशन
फादर-इन-ला कंसल्टेशन
इंटरफेयर, नो परमीशन
बिजली पानी चूल्हा ईंधन
न्यू कपल सेपरेट कनेक्शन
--पर्सनल लाइफ पर्सनल किचन
पीड़ा होती झन झन झननन।
(६)
बच्चे बूढ़े इक्वल फैशन
इक्वल मेंटल लेवल नैशन
बच्चे तो जीते ही बचपन
बूढों में भी बचकानापन
डेली रूटीन सीनियर सिटिजन
वाकिंग, लाफिंग, वाचिंग चिल्ड्रन
वृद्धावस्था पाते पेंशन
फिर भी रहती मन में टेंशन
एँ! ये कैसी एजुकेशन
आंसर देंगे जब हो ऑप्शन
-- है रेपर नोलिज नंबर वन
पीड़ा होती झन झन झननन।
बुधवार, 24 मार्च 2010
नंगा सच
नहीं छूना उसे"
पड़ोस का बच्चा
कूद फांद कर आया
'फंसी पतंग' एंटीना से छुड़ाने
-- बड़ी उतावली से।
देश की बढ़ती
आबादी
ने मिला दी
हैं, गली की
छतें सारी।
पहले कभी
जब न मिली
थी छत किसी की
सब -- एक थे
-- परिवार से।
अब, हम न सही
छतें सही
-- मिल कर रहें।
एक मंजिल थी कभी
दूसरी बन ही गयी
-- किरायेदारों के लिए।
अब तीसरी मंजिल
बनाने की तैयारी हो रही
है/ भाई-भाभी के लिए।
हम सामने वाले पड़ोसी से
दस मंथ पीछे हैं
-- कंस्ट्रक्शन में।
अब सामने घर के हमारे
ईंट चट्टे में, बदरपुर
रेट, रोड़ी, आयरन
-- बिखरे पड़े।
मेरा लफंगा
भाई छोटा
'कार में' --
न जाने कौन आई, पर कटी
-- घुमाने ले गया।
साथ/ पूसी भी गया है।
मसाला बनाने की मशीन
शोर करती
--'घरड-घरड'
दब गयी आवाज जिससे
--'परड-परड'
बाथरूम के पास वाले
एक छोटे कमरे
से आ रही।
फलाने/ पब्लिक स्कूल का रिक्शा
रुका/ सामने वालों के बच्चे
आ गए/ हैं गुनगुनाते
-- गीत फिल्मी।
गा रही लड़की
अपने अनउगे अंगों का गीत
और लड़का
बेझिझक
चिल्ला रहा -- कुछ पूछता
कुछ वर्ष पहले
थे सामने -- जब दूध पीता
'नासमझ'
अब छिप गए हैं आड़ ले
-- उनके विषय में।
माँ बहुत खुश--
'आये बच्चे गीत गाते'
हैं पड़ोसी
और मैं भी
-- चुप्प --
आदत पड़ गयी है
'गीत सेक्सी' रोज़
सुनने की
-- गली में।
(इस अकविता का जन्म मध्यम वर्गीय सामाजिक परिवेश में मेरी उस विवशता को व्यक्त करता है जिस विरोध को मैं चाहते हुए भी स्वर नहीं दे पाता)
सोमवार, 22 मार्च 2010
धर्म नहीं बतलाता चोटी रखना
है आर्य सभ्यता अपनी बहुत सनातन
वैदिक संस्कृति की बनी हुई वह साथन
जिसमें नारी को पूरा मान मिला है
जननी देवी माता स्थान मिला है
पर वही आज माता बन गयी कुमाता
कामुकता से भर गयी काम से नाता।
है अंगों की अब सेल लगाया करती
फिल्मों में जाकर अंग दिखाया करती
ईश्वर प्रदत्त सुन्दर राशी का अपने
वह भोग लगाकर, खाना खाया करती।
क्या लज्जा की परिभाषा बदल गयी है?
क्या अवगुंठन की भाषा बदल गयी है?
या बदल गयी है इस भारत की नारी?
या सबने ही लज्जा शरीर से तारी?
अब सार्वजनिक हो रही काम की ज्वाला
हैं झुलस रही जिसमें कलियों सी बाला
अब बचपन में ही निर्लज्ज हो जाती है।
अपने अंगों के गीत स्वयं गाती है।
हे परशुराम! कब तलक चलेगा ऐसा?
क्या आयेगा अब नहीं तुम्हारे जैसा?
जिसमें निर्लज्ज नारी वध की क्षमता हो
हो बहन किवा बेटी पत्नी माता हो।
मैं बहुत समय पहले जब था शरमाता
जब साड़ी पहना करती भारत माता
माँ की गोदी में जाकर ममता पाता
पर आज उसी से मैं बचता कतराता
क्योंकि माँ ने परिधान बदल लिया है
साड़ी के बदले स्कर्ट पहन लिया है
है भूल गयी मेरी माता मर्यादा
भारत में पच्छिम का प्रभाव है ज्य़ादा।
है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा।
इसलिए मात्र-वध की होती है इच्छा।
जब-जब माता जमदग्नी-पूत छ्लेगी
मेरी जिव्हा परशु का काम करेगी।
ये चकाचौंध चलचित्रों की सब सज्जा
देखी, नारी खुद लुटा रही है लज्जा
क्या पतन देख यह, मुक्ख फेर लूँ अपना
या मानूँ इसको बस मैं मिथ्या सपना।
सभ्यता सनातन मरे किवा जीवे वे
गांजा अफीम मदिरा चाहे पीवे वे
या पड़ी रहे 'चंचल' के छल गानों में
वैष्णों देवी भैरव के मयखानों में?
या ओशो के कामुक-दर्शन में छिपकर
कोठों पर जाने दूँ पाने को ईश्वर?
या करने दूँ पूजा केवल पत्थर की?
छोटी होने दूँ सत्ता मैं ईश्वर की?
क्या मापदंड नारी को उसका मानूँ
सभ्यता सनातन यानी नंगी जानूँ
चुपचाप देखता रहूँ किवा परिवर्तन
आँखों पर पर्दा डाल नग्नता नर्तन।
क्या धर्म व्याज पाखण्ड सभी होने दूँ?
भगवती जागरण वालों को सोने दूँ?
क्या सम्प्रदाय को धर्म रूप लेने दूँ?
यानी पंथों के अण्डों को सेने दूँ?
जब पंथ और भी निकलेंगे अण्डों से
औ' जाने जावेंगे अपने झंडों से
प्रत्येक पंथ का धर्म अलग होवेगा
तब धर्म स्वयं अपना स्वरुप खोवेगा।
"है धर्म नाम दश गुण धारण करने का।
है मार्ग उन्नति का सबसे जुड़ने का।
है धर्म वही कर सके प्रजा जो धारण।
जैसे सत्यम अस्तेय धृति क्षमा दम।
है धर्म नहीं बतलाता चोटी रखना।
यज्ञोपवीत गलमुच्छ जटायें रखना।
कच्छा कृपाण कंघा केशों को रखना।
कर-कड़ा, गुरुद्वारे में अमृत चखना।
प्रेरणा मिले इनसे तो बात भली है।
हैं धर्म अंग, वरना यह रूप छली है।
जो लिए हुए आधार वही अच्छा है।
बस धर्म सनातन वैदिक निज सच्चा है।"
(अपने मित्र के विशेष आग्रह पर कुछ अंश)
मंगलवार, 16 मार्च 2010
कल भी मैं कहूँगा
कल भी मैं कहूँगा
तुम देनवारे हो, दाता हो, स्वामी हो, गोविन्द हो
मेरे अप्रैसल फ़ार्म में मेरा पुनः मूल्यांकन
करने वाले अथार्टी पर्सन
मेरा परमोशन रोके रहो, ... रहो
तुम्हारे लिए
पेज़ दर पेज़ एन्टर करते
तुम्हारे ही दिल में एक दिन
एन्टर कर जाऊंगा।
तुम्ही ने दिया है यह हक़
तुम्ही ने हाथों में बाँधी है एन्टर करने की स्पीड
यह मैं हर क्षण जानता हूँ।
गति यहाँ सब कुछ है, ...
सांस गिन कर लो
शरीर के अकस्मात् पड़ने वाले
दबावों को झेलते रहो।
वाशरूम की तरफ मुँह न करो
कॉफी, सूप चाय का जायका भूल जाओ।
टारगेट अचीव करो
वही पुराने कछुआ सर्वर की पीठ पर चढ़कर।
ओ, मेरे धैर्य की पराकाष्ठा गोविन्द
मेरी भाषा से भयभीत रहने वाले मिलिंद
मैं तुम्हें पहचानता हूँ
मांगो तुम चाहे जो
मांगोगे - दूंगा -
श्रम, गति, समय।
तुम दोगे जो - मैं सहूंगा -
उपेक्षा, डांट-फटकार बेवजह की।
"परमोशन"
आज नहीं/ कल सही
कल नहीं/ साल भर बाद सही
न सही ...
मेरा तो नहीं है बस
कि अपनी ही पीठ थपथपाऊँ
अपने हर कार्य पर।
खुद को धकेलता ले जाऊं
महत्पूर्ण कुर्सियों के
आस-पास।
ऍक ही नौकरी है ... बाबूजी
और जगह सीवी डाला नहीं
बेवजह की भागदौड़ होती नहीं अब
खूब पैसा बर्बाद कियें हैं
चिट्ठी पत्री में
नौकरी के आवेदनों को करते-करते।
स्वामि!
आज नहीं/ कल सही
सोच समझकर
थोड़े ही शब्दों में
किफायत के साथ
एक-एक, दो-दो
अच्छे-अच्छे शब्द
सबको बाँट दो।
काम करने वाले
अपने ही काम में
रूचि नहीं ले पा रहे हैं
कोशिश करके
अधरों के मध्य एक
स्मिति को बैठाओ और
सबके पास घूम जाओ।
फिर देखना
सभी काम करने वाले
नवीन उत्साह नयी उमंग
के साथ काम करने लगेंगे।
आज तुम इन्क्रीमेंट ना दो
ना दो
कल भी मैं कहूँगा।
रविवार, 14 मार्च 2010
प्राइमरी का मास्टर
मतलब, प्राइमरी स्कूल का मास्टर
बाल मस्तिष्क की उपजाऊ भूमि पर
नैतिकता के बीज छितरने वाला।
अच्छे बच्चे --
जिद नहीं करते/
झूठ नहीं बोलते/
बड़ों की बात मानते हैं।
शोर नहीं मचाते/
गंदे नहीं रहते/
सुबह उठकर दांत मांजते हैं।
ना जाने कितने ही नैतिक सूत्र
किताबी शिक्षा के साथ-शाथ
निरंतर खाद पानी की तरह दिया करता है।
प्राइमरी का मास्टर --
बाल मस्तिष्क की कल्पनाशीलता को
पंख ज़रूर लगा देता है लेकिन
ज़मीन पर मजबूती से टिके रहने के लिए
उसकी सोच को तर्क के भारी जूते भी पहनाता है।
उसके तर्क के ये जूते
घर में काफी शोर करते हैं
मम्मी! आप दादा जी के सामने मुँह ढकती हो/
घर के बाहर बाल खोल कर निकलती हो, क्यों?
पापा! आप मंगल को शेव क्यों नहीं करते?
स्कूल जाते बिल्ली रास्ता काट जाए तो क्या होता है?
कोई बात तीन बार बोलने से ही क्यों पक्की मानी जाती है?
क्या पहली और दूसरी बार की बातें झूठ बोलने की छूट देती हैं?
घर की सुख-शांती के लिए
माँ-पिता अक्सर उसे
भोले बाबा के मंदिर ले जाते हैं
हाथ जुडवाते हैं/
माथा टिकवाते हैं/
मंदिर के बाहर तर्क के जूते खुलवाते हैं।
इस तरह उसे आस्तिक बनाते हैं।
परिणामस्वरूप
बच्चा आस्तिक बनता है
आँख मूंदकर बिना सोचे
अटपटे विश्वासों में इजाफा करता है।
पुस्तक में रंगीन चिड़ियों के पंख रखकर समझता है --
"आने वाली परीक्षा में ज्यादा नंबर आयेंगे"
चील कौवे देखकर शकुन-अपशकुन गड़ता है।
अपने से ज्यादा भगवान् पर भरोसा रखता है।
हिचकी को किसी का याद करना और
आँख भुजा आदि फड़कने को
अच्छी-बुरी घटनाओं से जोड़ता है।
प्राइमरी का मास्टर
जहां बच्चे की सोच को
वृहत और लोजिकल बनाने का प्रयास करता है
वहीं मम्मी-पापा द्वारा दी गयी घरेलू शिक्षा
उसे सीमित और केवल अपने लिए जीना सिखाती है।
धीरे-धीरे पुस्तकीय शिक्षा और घरेलू ट्रेनिंग
एक-दूसरे में घुल-मिल जाती है।
प्राइमरी का मास्टर
स्कूल में केवल मास्टर नहीं होता
वह मासिक पगार का जरूतमंद
मजबूरी में कक्षा के बच्चों को रोके रखने वाला
- एक बेरियर
दोडते-भागते बच्चों के लिए
- एक स्पीड ब्रेकर
एजुकेशन के कई पडावों में से
- एक स्टोपेज होता है।
क्या इन रुकावटों की जरूरत है?
सोचता हूँ -- नहीं है।
माँ और पिता
बच्चे को जन्म दें/
पालें-पोसें/
इतना काफी है।
चलने-बोलने लगे तो उसे
घरेलू इस्तेमाल का साधन मात्र ना बनाएं
शिक्षा के सतत, गतिशील, तार्किक प्रवाह में धकेल दें।
प्राइमरी का मास्टर
जो भी पढ़ाता है
बच्चा घर में आकर दोहराता है, सबको सुनाता है।
इस कारण सबको पता रहता है कि वह क्या पढ़ता है।
लेकिन
यूनिवर्सिटी का मास्टर
जो पढ़ाता है
उसे बच्चा ना दोहराता है, ना अपनाता है
साथ ही घर के अभिभावकों को भी कोंफ्युजन रहता है।
फिर भी
"प्राइमरी का मास्टर" संबोधन
शिक्षा जगत में
कामचलाऊ सम्मान पाता है
उच्च शिक्षा की सीढ़ियों के पायदान पर
बैठा सकुचाता है
नए वेतन आयोग की सिफारिशों में
बाद में याद आता है।
किसान, मजदूर की ही भाँति
बीज की गुणवत्ता निखारने वाला मास्टर
अपने रहन-सहन की गुणवत्ता नहीं सुधार पाता।
बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
आखिरकार
बेचारे की शादी
नाईयों में ही हुयी।
जान गए लोग
अपनी कोलोनी का 'शर्मा'
रिश्तेदारों को
'शर्मा' बताने में शर्माता था
' उसके लड़के ने
मेरे साथ ही इंटर किया है'।
कभी दिया था उसने
ज़ोरदार भाषण
उखाड़ी थी बखिया
पंडितों द्वारा
बनायी वर्णव्यवस्था की।
और मिला था उसको
"प्रथम पुरस्कार"।
आज
लड़ नहीं सकता वो
समाज की वर्णव्यवस्था से
कभी
प्रेम विवाह का
प्रबल समर्थक था
फिर भी
उच्च वर्ण की कन्या से
'प्रेम करने से'
झिझकता था।
अनजाने ही हो बैठा
'प्यार' उसको
एक शर्माती कन्या से
जो 'शर्मा' थी।
कल्पना ने उसको
हिम्मत दिलायी थी।
संघर्ष अधिक उसको
करना नहीं पड़ा
सहर्ष स्वीकारा था
कन्या के पापा ने
'समधी'
बने थे दोनों के पापा।
इधर लड़के के 'मौसा' ने
उधर लड़की की 'चाची' ने
रिश्तेदारों में
मचाया था हल्ला —
"अपनों में शादी नहीं की भाई,
ओ गोलू की मम्मी,
ओ हड्डू की तायी।"
प्रेम विवाह से
दोनों सुखी थे
अनजान रहकर।
पर,
दुर्भाग्य उनका
निकले वे दोनों ही
जाति से 'नाई'।
तब से
भयंकर, होती लड़ाई ।
(वैसे जातीय हीनता और श्रेष्ठता की भावना अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुयी है। इस कारण, सामाजिक तोर पर दुराव-छुपाव आज भी देखने में मिलता है जो हास्यास्पद स्थितियों को जन्म देता है।)
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
आत्मघात
बड़ी तेज़ी से किया
दस दिन का काम दो दिन में ख़त्म किया
आज वो सुखी हैं – हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं ।
काम करते हुए लोगों को देख मन ही मन दुखी हैं
कि – "इनका काम कब ख़त्म होगा"
मेहनतकश गधे पर यदि एक दिन
बोझा न रखा जाए तो बिदक जाता है
इधर-उधर चरता घूमता है,
अपने से दूसरे गधे भाइयों से मिलता है,
हाल-चाल पूछता है,
उसे बातचीत के दौरान दुलत्तियों का इस्तेमाल सूझता है ।
काम का निरंतर बने रहना कितना ज़रूरी है
नहीं तो कोई भी मेहनतकश
काम की ग़ैर-मौजूदगी में पगला जाएगा
ईडियट होकर घूमेगा
ईडियट्स के बीच बैठेगा
ईडियटटी करेगा
और अच्छे-बुरे की पहचान खोकर
कथित बुद्धिजीविता के मोटे-चश्मे से
थ्री-ईडियट्स देखने का दंभ भरेगा
देखकर सराहेगा
वाहियात चीज़ों पर मुस्कराएगा
फिल्म का बेसिक मैसेज भूल जाएगा
फिल्म में परोसे फूहडपने को दिल खोलकर अपनाएगा
अमर्यादित होती जा रही भारतीय संस्कृति के कलेजे पर
हाथ रखकर चिल्लाएगा – "ऑल इज़ वेल "
(सभी नयी सोच अपनाने वालों को समर्पित)
सोमवार, 15 फ़रवरी 2010
पशु
तो पशुता न होती
पशुता न होती तो मन शांत होता
मन शांत होता, क्या रति भाव होता
रति भाव से ही तो सृष्टि बनी है
रति भाव में भी तो पशुता छिपी है
है पशुता ही मनुष्य को मनुष्य बनाती
वरना मनुष्य देव की योनि पाता
अमैथुन कहाता, अहिंसक कहाता
तब सृष्टि की कल्पना भी न होती
संसार संसार होने न पाता
होता यहाँ भी शून्य केवल
अतः पशु से ही संसार संभव।
(तार्किक मित्र दीपचंद पाण्डेय को समर्पित)
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
जीवन नौका
वर-वधु की अब जीवन नौका
मिलकर वे होते हैं सवार
कौशल दिखलाने का मौक़ा।
डोलेगी नौका इधर-उधर
आयेगा दुःख पीड़ा-झोंका
संतुलन बिगड़ न जाए कहीं
दौर है रस-क्रीडाओं का।
(प्रिय साथी कृष्णा एवं सस्मीता जी के विवाह के उपलक्ष्य पर)
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
स्नेह भर दो
प्रिय मिलन की चाह लेकर
मैं तुम्हें जब ध्यान लाता
विरस मन से स्मृति पट पर
किरण रेखा खींच पाता।
बिखर जाते तब अचानक स्वप्न होकर चूर।
आ रहे जितने निकट तुम किन्तु उतनी दूर।
होती हृदय में कसक पीड़ा और कम्पन
धूसरित हो रो रहा है नयन दर्पण
प्रेम बंधन थाम लो तुम हो लिया मजबूर।
आ रहे जितने निकट रहे तुम किन्तु उतनी दूर।
जब प्रेम वायु प्रेम पत्रों को हिलाती
आशा किरण दे लोरियां झूला झुलाती
टिमटिमाते दीप में स्नेह भर दो, रो लिया भर पूर।
आ रहे जितने निकट तुम किन्तु उतनी दूर॥
(सनातन मित्र संजय राजहंस को समर्पित)
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
जाड़ा चला हिमालय से
लेकर अपनी फौज।
मिल-जुलकर सब बैठ गए
अपने मन की मौज।
जाड़े ने हमला बोला
जो ग़रीब था भाई।
पर ग़रीब ने जाड़े को
आंच की ढाल दिखाई।
सुबह चार घंटे हुई
जमकर खूब लड़ाई।
सूरज जी आ गए तभी
दोनों की रार* मिटाई।
मंगलवार, 12 जनवरी 2010
कविता ख़तम
आपकी बकवास --- कविता।
आपका चिंतन सींचा काव्य
हमारा अधम रहे तुम बता।
हमारा तीन शब्द का वाक्य
हुआ करता है कम-से-कम।
आपका तीन शब्द का काव्य
क्रान्ति लाता है कहते तुम।
"है घना तुम जागते हम "
------ कविता ख़तम।
आपकी भाँती तो हम भी
तुरत कर सकते करम ।
तुम्हारी तोप हमारा बम
------ कविता ख़तम।
तुम्हारा शोर हमारा शम
------ कविता ख़तम।
तुम्हारी ख़ुशी हमारा गम
------- कविता ख़तम।
टिके हो तुम हमारे दम
------- कविता ख़तम।
(नयी कविताओं के रचनाकारों को समर्पित )
शुक्रवार, 8 जनवरी 2010
ताज़ा न्यूज़
पोला हमारा ---- लूज़ है।
टेबल लैम्प का
लट्टू हमारा --- फ्यूज़ है।
लिट्रेचर नहीं
मूवी हमारी --- चूज़ है।
आज की ताज़ा
यही बस --- न्यूज़ है।
गुरुवार, 7 जनवरी 2010
मोडर्न आर्ट
चबाता हूँ उसे -- पान है।
थूक दूँ तो -- पीक है।
कलाप्रेमी हूँ
तरीके से सदा थूकूँ।
कोर्ट की दीवार
कोने की
किवा
लम्बी लगी क्यू
बिल जमा करने की -- अंतिम डेट को।
मैं बिन कलर बिन ब्रश
बनाता हूँ -- मोडर्न आर्ट।
हर उस जगह
जिस पर निगाहें
देर से पड़तीं।
जब बोर होता
कोई, चिंताग्रस्त होता
खोई, द्रष्टि देखने लगती।
स्वतः ही आर्ट मोडर्न --- पीक की।
(सभी पान प्रेमियों को समर्पित )
बुधवार, 6 जनवरी 2010
गुह्य अकविता
डिफेक्टइड हो गया मेरे
रात से गुड-गुड गड़ा-गड़ ।
तीन बारी जा चुका हूँ
है चौथी तैयारी
करता फ़टाफ़ट ।
सिटिंग वाली कम्फर्टेबल
खींच रस्सी मुट्ठवाली
फ्लश गटागट
(प्रस्तुत रचना में ध्वन्यात्मकता है। सर्दी का असर स्पष्ट परिलक्षित है.)
गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
नया साल आया
- विप्रा ने राजू से
पूरे साल चाय का बड़ा कप भरवाया।
नया साल आया। - नीरजा ने करन से
कोसिमा के छत्ते पर फिर से हाथ लगवाया।
नया साल आया। - कोटेश ने गीतिका से
ऑफिस डेकोरम का राग गव्वाया।
नया साल आया। - रियाज़ ने रिबिका से
ज़ोर से बोलकर ईमेल के ज़रिये डेली स्टेटस मंगवाया।
नया साल आया। - नीलम ने इन्दर से
एक ही डाटा दो बार इंटर करवाया।
नया साल आया। - गज़नफ़र ने मुझसे
किया वादा कई रिमाइनडर पर भी नहीं निभाया।
नया साल आया। - आई टी के चौहान ने कृष्णा और अरुण को
गड़बड़ी होने पर प्यार से समझाया।
नया साल आया। - विजयपाल और दीपा ने बिपुल को
यू-टर्न का एक-एक फायदा गिनाया।
नया साल आया। - डॉ रविन्द्र ने हँसकर
हर क्वेरी / प्रोब्लम को लकड़ी बताया
नया साल आया। - जीजू का एक्सेस कार्ड
पिछले साल मोर्निंग में मोनिका ने छुआया
नया साल आया। - अजोय ने कोटेश का
रिसेशन के दिनों में फिर से वेतन बढ़ाया।
नया साल आया।
(केवल काव्य रसिकों के निमित्त लिखी गयी )
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
सालाना मुसाफिर
कान पर मफ़लर लपेटे
आ रहा जो कंपकंपाता
ईसवीं का साल नूतन ।
करो स्वागत - कर नमस्ते
पास में अपने बिठाकर
ओड़ने को दो रजाई
चाय कॉफ़ी पूछो भाई।
यूँ तो पीछे आ रहे हैं
और भी उसके मुसाफिर
करो उनका भी सु-आगत
उसी हर्षोल्लास से तुम।
इस मुसाफिर भीड़ में ही
विक्रमी संवत दिखेगा
ध्यान रखना - भाई मेरे,
पूर्वजों को भूल मत रे!
(प्रतिपल नवीन है मानो तो/ क्या नव वर्ष क्या गत वर्ष। कामना सदा रखो शुभ/ रहो उत्फुल्ल हुवे उत्कर्ष।)
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
पेड़ के हाथ-पाँव
बना नया खेल गाँव।
चौड़ी की जा रही हैं
आस-पास की सड़कें
बिन रुके गाड़ियां दौड़ने को
बनाए जा रहे हैं
मल्टी स्टोरी पुल।
इस होते विकास के तले
न जाने कितने ही सुन्दर-स्वस्थ पेड़ों को
जड़ समेत ख़त्म कर दिया गया।
ऐसे में एक दिन ...
लो-फ्लोर बस में बैठा
जब मैं निकल रहा था खेल गाँव से
अपने ऑफिस को सुबह-सुबह।
तब ही सोचा, प्रकृति निरीक्षण कर।
परमात्मा ने बनाया सभी जीवों को सम्पूर्ण
जिसको हाथ-पाँव देने थे।
उसे हाथ-पाँव दिए।
जिसे करना था खड़ा जड़वत
उसे कर दिया खड़ा वृक्ष रूप में।
जिसे देनी थी गति
उसे बना दिया घोड़ा।
जो गति पाकर भी
न हो पाया गतिवान (चालक)
बन गया समाज पर फोड़ा।
एक कल्पना कर सिहर जाता हूँ।
"अगर वृक्ष के होते हाथ-पाँव"
तो परमात्मा की व्यवस्था का क्या होता?
आज के मनुष्य को पास आता
देखकर
बिदक उठते पेड़
फडफडाती शाखाएं - आवाज करतीं -
"मेरी छाँव में आने से पहले
देना होगा - पहचान-पत्र,
करेक्टर सर्टिफिकेट
दिखाने होंगे - सभी कागज़ात
एक-एककर।
जब तक विश्वास न होगा -
प्रकृति प्रेमी होने का
न बैठ पाओगे - मेरी छाँव तले।"
जबरन कोई बैठ जाता
मूर्ख कालिदास की भांति
या, वृक्ष तले पड़े-पड़े
कुरेदता जड़ें - अस्थिर मति से।
पकड़-पकड़कर वृक्ष अपने हाथों से
स्वयं ही बचाव में अपने
उठ खड़े होते।
या, फिर थके राही को
सुनसान रेतीले प्रदेश में
जा-जा पास उसके छाया देते
फलदार फल देते
हलक सूखे हर संकोची राहगीर को।
परन्तु अच्छा ही हुआ
परमात्मा ने जिसे जो देना था
उसे वही दिया।
मनुष्य को 'हाथ-पाँव' - कर्म करने को
वृक्ष को 'शाखाएं' - छाया, फल देने को
पर्वत को 'उंचाई' - अहंकार की बाड़ से बचने को।
... जिसे जो-जो दिया
पूरा था
मगर असंतोषी लोभी मनुष्य
उसे मानता अधूरा है।
(नया खेल गाँव बनाने के लिए सेकड़ों वृक्ष काटे गए, उन कटे वृक्षों की स्मृति में)