आखिरकार
बेचारे की शादी
नाईयों में ही हुयी।
जान गए लोग
अपनी कोलोनी का 'शर्मा'
रिश्तेदारों को
'शर्मा' बताने में शर्माता था
' उसके लड़के ने
मेरे साथ ही इंटर किया है'।
कभी दिया था उसने
ज़ोरदार भाषण
उखाड़ी थी बखिया
पंडितों द्वारा
बनायी वर्णव्यवस्था की।
और मिला था उसको
"प्रथम पुरस्कार"।
आज
लड़ नहीं सकता वो
समाज की वर्णव्यवस्था से
कभी
प्रेम विवाह का
प्रबल समर्थक था
फिर भी
उच्च वर्ण की कन्या से
'प्रेम करने से'
झिझकता था।
अनजाने ही हो बैठा
'प्यार' उसको
एक शर्माती कन्या से
जो 'शर्मा' थी।
कल्पना ने उसको
हिम्मत दिलायी थी।
संघर्ष अधिक उसको
करना नहीं पड़ा
सहर्ष स्वीकारा था
कन्या के पापा ने
'समधी'
बने थे दोनों के पापा।
इधर लड़के के 'मौसा' ने
उधर लड़की की 'चाची' ने
रिश्तेदारों में
मचाया था हल्ला —
"अपनों में शादी नहीं की भाई,
ओ गोलू की मम्मी,
ओ हड्डू की तायी।"
प्रेम विवाह से
दोनों सुखी थे
अनजान रहकर।
पर,
दुर्भाग्य उनका
निकले वे दोनों ही
जाति से 'नाई'।
तब से
भयंकर, होती लड़ाई ।
(वैसे जातीय हीनता और श्रेष्ठता की भावना अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुयी है। इस कारण, सामाजिक तोर पर दुराव-छुपाव आज भी देखने में मिलता है जो हास्यास्पद स्थितियों को जन्म देता है।)
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