परशुराम की दीक्षा का दूसरा भाग : "धर्म"
है आर्य सभ्यता अपनी बहुत सनातन
वैदिक संस्कृति की बनी हुई वह साथन
जिसमें नारी को पूरा मान मिला है
जननी देवी माता स्थान मिला है
पर वही आज माता बन गयी कुमाता
कामुकता से भर गयी काम से नाता।
है अंगों की अब सेल लगाया करती
फिल्मों में जाकर अंग दिखाया करती
ईश्वर प्रदत्त सुन्दर राशी का अपने
वह भोग लगाकर, खाना खाया करती।
क्या लज्जा की परिभाषा बदल गयी है?
क्या अवगुंठन की भाषा बदल गयी है?
या बदल गयी है इस भारत की नारी?
या सबने ही लज्जा शरीर से तारी?
अब सार्वजनिक हो रही काम की ज्वाला
हैं झुलस रही जिसमें कलियों सी बाला
अब बचपन में ही निर्लज्ज हो जाती है।
अपने अंगों के गीत स्वयं गाती है।
हे परशुराम! कब तलक चलेगा ऐसा?
क्या आयेगा अब नहीं तुम्हारे जैसा?
जिसमें निर्लज्ज नारी वध की क्षमता हो
हो बहन किवा बेटी पत्नी माता हो।
मैं बहुत समय पहले जब था शरमाता
जब साड़ी पहना करती भारत माता
माँ की गोदी में जाकर ममता पाता
पर आज उसी से मैं बचता कतराता
क्योंकि माँ ने परिधान बदल लिया है
साड़ी के बदले स्कर्ट पहन लिया है
है भूल गयी मेरी माता मर्यादा
भारत में पच्छिम का प्रभाव है ज्य़ादा।
है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा।
इसलिए मात्र-वध की होती है इच्छा।
जब-जब माता जमदग्नी-पूत छ्लेगी
मेरी जिव्हा परशु का काम करेगी।
ये चकाचौंध चलचित्रों की सब सज्जा
देखी, नारी खुद लुटा रही है लज्जा
क्या पतन देख यह, मुक्ख फेर लूँ अपना
या मानूँ इसको बस मैं मिथ्या सपना।
सभ्यता सनातन मरे किवा जीवे वे
गांजा अफीम मदिरा चाहे पीवे वे
या पड़ी रहे 'चंचल' के छल गानों में
वैष्णों देवी भैरव के मयखानों में?
या ओशो के कामुक-दर्शन में छिपकर
कोठों पर जाने दूँ पाने को ईश्वर?
या करने दूँ पूजा केवल पत्थर की?
छोटी होने दूँ सत्ता मैं ईश्वर की?
क्या मापदंड नारी को उसका मानूँ
सभ्यता सनातन यानी नंगी जानूँ
चुपचाप देखता रहूँ किवा परिवर्तन
आँखों पर पर्दा डाल नग्नता नर्तन।
क्या धर्म व्याज पाखण्ड सभी होने दूँ?
भगवती जागरण वालों को सोने दूँ?
क्या सम्प्रदाय को धर्म रूप लेने दूँ?
यानी पंथों के अण्डों को सेने दूँ?
जब पंथ और भी निकलेंगे अण्डों से
औ' जाने जावेंगे अपने झंडों से
प्रत्येक पंथ का धर्म अलग होवेगा
तब धर्म स्वयं अपना स्वरुप खोवेगा।
"है धर्म नाम दश गुण धारण करने का।
है मार्ग उन्नति का सबसे जुड़ने का।
है धर्म वही कर सके प्रजा जो धारण।
जैसे सत्यम अस्तेय धृति क्षमा दम।
है धर्म नहीं बतलाता चोटी रखना।
यज्ञोपवीत गलमुच्छ जटायें रखना।
कच्छा कृपाण कंघा केशों को रखना।
कर-कड़ा, गुरुद्वारे में अमृत चखना।
प्रेरणा मिले इनसे तो बात भली है।
हैं धर्म अंग, वरना यह रूप छली है।
जो लिए हुए आधार वही अच्छा है।
बस धर्म सनातन वैदिक निज सच्चा है।"
(अपने मित्र के विशेष आग्रह पर कुछ अंश)
बहुत ही अच्छी कविता । एक उत्साहित कर देने वाली कविता है। हो सकता है कुछ लोगों को बुरी लगे या समझ न आये या फिर लोग इसके लिए तैयार न हों पर फिर भी बहुत ही अच्छी कविता। मजा आ गया।
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