आ रहे जितने निकट तुम किन्तु उतनी दूर।
प्रिय मिलन की चाह लेकर
मैं तुम्हें जब ध्यान लाता
विरस मन से स्मृति पट पर
किरण रेखा खींच पाता।
बिखर जाते तब अचानक स्वप्न होकर चूर।
आ रहे जितने निकट तुम किन्तु उतनी दूर।
होती हृदय में कसक पीड़ा और कम्पन
धूसरित हो रो रहा है नयन दर्पण
प्रेम बंधन थाम लो तुम हो लिया मजबूर।
आ रहे जितने निकट रहे तुम किन्तु उतनी दूर।
जब प्रेम वायु प्रेम पत्रों को हिलाती
आशा किरण दे लोरियां झूला झुलाती
टिमटिमाते दीप में स्नेह भर दो, रो लिया भर पूर।
आ रहे जितने निकट तुम किन्तु उतनी दूर॥
(सनातन मित्र संजय राजहंस को समर्पित)
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