शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

जो तय नहीं था

pratulvasistha71@gmail.com

उनको
अपने अनुरूप
कर पाना सरल था.
उससे भी पहले
उनको पा लेना सरल था.
पाकर
प्यार करना सरल था.
प्यार के विभिन्न पड़ावों से होते हुए
भोग तक पहुँच पाना सरल था.
फिर भी
रोकता था मुझको मेरा 'ज़मीर'
अथवा 'समाज का भय' था
किन्तु, इतना तय था ....
वे तोड़ कर सारे बंधन
मिलेंगे मुझको ज़रूर
कहाँ? कब? कैसे?
............. सब कुछ तय था.

लेकिन
राज-घराने की आबरू को बचाने में
राजा, मंत्री, राजपुरोहित
की तन्मयता......... तोडती थी
हमारे आपसी जुड़ाव को.

उनकी याद
दो महीने बाद
बनाकर फरियादी
खींच लायी मुझे राज-दरबार में.

वहाँ की नाटकीयता
करती है मुझको उनसे रू-ब-रू.
जब भी करता हूँ याद —

फरियादी की फ़रियाद :
________"बस एक बार मिलने के बाद चला जाऊँगा"
_____________________ "दूर ........... बहूत दूर."

राजा की चिंता :
________"बेटी का राग
___________घराने के उजले दामन पे दाग
__________________कहाँ मुँह दिखाऊँगा."

मंत्री की दलील :
________ "इस गंदी मछली ने
___________करी है मैली घराने की झील.
_________________ फाँसी दिलाऊँगा."

और
राजपुरोहित ने
मुझको सुनाकर
बोला _________ "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली."

किन्तु अकेले में
राजपुरोहित का राजा से कहना
"वैसे भी राजन! एक तरफ़ा नहीं है
प्रेम इन्हों का.
ये बेटी हमारी, वो बेटा किसी का.
दोनों ही व्याकुल हैं.
मिलने को आतुर हैं.
जुटा लिए हैं मैंने सारे प्रमाण."

पर मेरी गरदन
झुकी है न आगे किसी के.
प्रेम अतिशय था
इसीलिए तय था/ मुझ फरियादी का
राजा के सम्मुख, नतमस्तक होना.
लेकिन
लगायी जो शर्त उन्होंने
"जमाता रहेगा तो तू यहीं का"

कैसे मैं मानूँ?
_______________ जो तय नहीं था.



वैधानिक चेतावनी : 
यह एक बासी कविता है, जो केवल कविता-अभ्यास के निमित्त लिखी गयी थी. इस कविता से किसी भी व्यक्ति का लेना-देना नहीं है.

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