सोमवार, 23 अगस्त 2010

ऊर्जा की सार्थकता

pratulvasistha71@gmail.com


चौराहे के
एक किनारे पर
बैठी कुतिया
चाटती, सहलाती
स्वान-कर्षित अंगों को
अब लगाए है आस
फिर से किसी का उद्दीप्त करने को विकार.

होना नहीं चाहती वह
मातृत्व बोझ से बोझिल
सो नहीं समझती वह
या समझना नहीं चाहती वह
उस विकार से जन्मे सुख को.

हाय!
कुचल डाला
अधो भाग उसका
किसी दैत्य से वाहन ने
पहले ही खून से लथपथ टायरों से.

न अब
किसी विकार को
पनपने देने की इच्छायें हैं शेष
और न बलवती है वह अनवरत प्यास
उस स्वान के प्रेम में अंधी हुई कुतिया की.

पर वह वाहन
निश्चिन्त-सा क्यों है?
समझना नहीं चाहता वह —
'एक को आहत कर
दोष उसी पर मढ़
और अब दूसरे की बारी पर
निश्चिन्त गुज़र कर'
अपनी 'ऊर्जा की सार्थकता'!

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