शनिवार, 14 अगस्त 2010

मातृभाषा : प्रयोग से विकास की आशा

"जब तक मातृभाषा को उच्च शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जाएगा, तब तक पाठ्य-पुस्तकें कैसे लिखी जायेंगी, नयी शब्दावली कैसे बनेगी? भाषा का विकास उसके प्रयोग से ही होता है."
— विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर

यह हमारे देश का दुर्भाग्य व उसकी विडंबना ही कही जायेगी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पचास साल बाद भी अंग्रेज़ी-प्रेम में कोई कमी नहीं आई है. अंग्रेज़ी-भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाए जाने के सम्बन्ध में अंग्रेज़ी भाषा के पक्षधर निम्न तर्क देते हैं —
[१] सभी जातीय भाषाओं में अत्यंत सीमित शब्द-भण्डार हैं जो विभिन्न क्षेत्रों, विषयों आदि का ज्ञान देने में असमर्थ हैं.
[२] भारतीय भाषाओं में ज्ञान, विज्ञान की उपयोगी पुस्तकों का अभाव है जिससे बच्चों का ज्ञान अधूरा रह जाता है.
[३] सच्चे अर्थों में अंग्रेज़ी भाषा विश्वव्यापी है. इसके माध्यम से ज्ञान अर्जन में अधिक सुविधा होती है.

............ इन तर्कों पर यदि ध्यान से विचार किये जाए तो ये सारे तर्क निरर्थक व थोथे सिद्ध होते हैं. यदि किसी भाषा को अनुपयोगी मानकर दूसरी भाषा को महत्व दिया जाए तो उस भाषा का न तो विकास हो सकता है और न उसके शब्द-भण्डार में वृद्धि हो सकती है.                                                            [यह मेरे मौलिक विचार नहीं हैं]

2 टिप्‍पणियां:

  1. एक और सीधा कारण है..अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अच्छे होते हैं इसकी तुलना में हिंदी माध्यम के अच्छे स्कूल बेहद कम है. प्राइमरी में तो कोई तुलना ही नहीं है शिक्षा के स्तर में.
    सैद्धांतिक विचारों के साथ व्यवहारिक समस्याओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है. तभी हिंदी का विकास होगा.

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  2. @ अंग्रेजी माध्यम के स्कूल 'अच्छे' ...... मानसिकता बन जाने के बाद किया मूल्यांकन है. हम शिक्षा को आज जिस तराजू में तोल रहे हैं वह इलेक्ट्रोनिक है,
    अगर भार उठाने वाले हत्था तराजू पर शिक्षा को तोलेंगे तो वजन में हिंदी माध्यम वाली शिक्षा भारी पड़ेगी. यह जमीनी हकीकत है.
    गमलों की फुलवारी से स्थान-विशेष की सुन्दरता ही बढायी जा सकती है. हर कहीं की नहीं.
    व्यवहारिक समस्याएँ तभी तक हैं जब तक सिद्धांत पर अमल दृढ़ता से न किया जाए.
    आज की व्यावहारिक समस्या 'अच्छा रोजगार' है, तेजी से उन्नति है, ना कि आलस्य है, कर्मण्यहीनता है.

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