शनिवार, 7 अगस्त 2010

जीवन दर्शन

मेरे पिता का आज जन्म दिवस है और मैं उनके जीवन दर्शन को व्यक्त करती उनकी आत्मकथात्मक कविता को आपके सामने रख रहा हूँ. उनके मानस को जहाँ तक मैंने समझा उसे अपने शब्दों में ज्यूँ-का-त्यूँ उकेरने का प्रयास किया है.

 
















आज के ही दिन
मुझे मुक्ति मिली थी
माता के गर्भ से
और आज के ही दिन
मुझे होना है
व्यवसाय से मुक्त.

उस मुक्ति पर
जिसे जन्म कहते हैं.
मुझे ध्यान नहीं
कोई बड़ा कार्यक्रम
हुआ था या नहीं.
हाँ, इकट्ठे हुए होंगे अवश्य
मेरे माता-पिता के
नाते-रिश्तेदार, सगे-संबंधी
पास-पड़ौस के रहने वाले लोग
बँटे होंगे लड्डू
'कि लड़का हुआ है'.


वैसी ही खुशी का
यह दूसरा अवसर है
होते हैं खुश वे भी
जो शत्रु मानते हैं मुझे
कि 'अहा, कट गये हाथ-पाँव
पत्रकारिता-जगत से
कि नहीं होगा करना
लिहाज़ 'पंडितजी' की
'मौजूदगी का'.
किन्तु, खुशी दिखलाते हैं
वे भी जो आत्मीय हैं
उनकी खुशी मुझे प्रसन्न करने को है.
याद करते हैं सभी
मुझ संग बितायी घड़ियाँ
चाहते हैं अभिव्यक्त होना
आँसुओं के साथ शत्रु भी
'कि नहीं रहे, अब हम तुम्हारे बैरी.
स्नेही जन
'हनुमान की भाँति
छाती फाड़कर' दिखलाना चाहते हैं
अपने अमूर्त स्नेह की छवि.
ऐसे समय में जब
मिलने वाली है
एक अपार धन-राशि.
— जो किसी मंत्री द्वारा
किये घोटाले की रकम
के मुक़ाबिल
कुछ भी नहीं - कुछ भी नहीं .


आ रहे हैं पास
मिटा रहे हैं गिले-शिकवे
'क्या कारण है, क्या कारण है'
— ऐसा संदेह करना स्वभाव में
नहीं रहा मेरे.
मै देता हूँ प्राधानता.
हमेशा से आज की मित्रता को.
आज की सच्ची खरी निष्ठा को.
प्रेम-पूर्ण व्यवहार को.
शिष्ट आचार को.
नहीं याद करना चाहता तब
किसी समय रही
अपने मध्य की
'कटुता' को.
समाज के कुछ लोग
आज भी मुझे
अपना प्रतिद्वंद्वी मान
तनाव झेल रहे हैं
चाहते हैं मुझको भी
तनाव में रखना
और मैं
रहता हूँ जैसा वे चाहते हैं

फिर भी
जब मित्रवत बना रहता व्यवहार मेरा
तब वे भी शायद
कटुता भुला चुके होते हैं.


आज मैं
सभी क्षेत्रों में अपनी
अब तक बनी
दूरस्थ मित्रता
और समीपस्थ दुश्मनी
को एकरूप कर लेना चाहता हूँ.
मैं नहीं चाहता
कि कभी भी और किसी भी
व्यक्ति द्वारा डाला जाये
सामाजिक कार्यों में व्यवधान.


मैं हमेशा से विद्वानों की
विद्वता सम्मुख
रहा नतमस्तक
पाया अपने को
उनके सामने
वैसे ही
जैसे दरवाजे पर दस्तक
जो होती है धीरे से
खट-खट खट-खट — जिज्ञासापरक.


पत्रकार दस्तक ही तो है
जो जानना चाहती है
कि बैठा है कौन
बंद दरवाजा किये
कमरे के भीतर.


एक समय
जब मैं था सफल प्रूफरीडर
समाज में नहीं चल सका
वह गुण, वह धर्म
दोषों को ढूँढ़ना, छाँटना
व्याकरणिक त्रुटियों पर चिह्न लगाना
लेख-निबंधों तक ठीक है.


'व्यक्ति गलतियों का पुतला है' —
जैसे पाश्चात्य कथन,
'नकारात्मक सोच लिये
आदर्शविहीन वाक्य' — मैंने नहीं गढ़े.

मैंने तो माना है
व्यक्ति को संबंधों का वृक्ष
जिस पर लगते भाँति-भाँति के फल.
किन्तु उनके फलों की मधुरता
'स्वार्थ, संदेह' जैसे मीतनाशक
भावों से दफा हो जाती है.


बचपन के दोस्तों को
जिनके साथ खेला, खाया, बड़ा हुआ
आज
दौड़ती भागती गाड़ियों के बीच
इस शहरी सभ्यता में भुला चुका हूँ.
कौंध जाती है कभी
मानस पटल पर
उनकी देहाती छवि
जब देखता हूँ सड़क के
बीचों बीच पार करते में
बिदका हुआ देहाती-व्यक्ति
किसी 'मारुती' या 'सूमो' के आगे.


क्षण में तैर जाते हैं चित्र
एक एक कर
मेरे अपने निजी विकास के
उठते स्टेटस के
स्कूल के, कोलिज़ के,
विवाह के, व्यवसाय के,
अभिन्न मित्रों के, सहयोगियों के.


आज ढंग से हर चित्र को
देखने का अवसर है, फुर्सत है.
'मैं पाँचवी दर्जा नहीं पढ़ा
मुझे याद है वह दिन
जब मेरा सीधे चौथे से
छठे दर्जे में दाखिला हुआ था.
देश भर में बँटी थी मिठाइयाँ
यह देश की आजादी का दिन था.
उसी बरस शिक्षा की
अनिवार्य भाषा
'उर्दू' समाप्त हो गई.



किसनचन्द्र मिश्र
पड़ोसी 'जीजी' का लड़का
उम्र में चार बरस छोटा
एक ही साइकिल पर
बैठ, जाते थे —
जब किया इंटर.

हो गया विवाह
जीवन का प्रवाह
सतत गतिशील
संघर्ष क्षेत्र ससुराल बना.

खोला विद्यालय
लिया सहयोग विद्वानों का
बुजुर्गों का, सेठों का.
बाद में
अर्थाभाव का शिकार हुए
मेरे दो बच्चे
सुधा और सुधीर.

पत्नी कहती है उसमें
लापरवाही थी मेरी.
पूरे समाज को परिवार-सा
माना है प्रारम्भ से
वह नहीं समझ पाई
आज तक.


ईमानदारी से जी पाना
कठिन है आज के समाज में — सच है.
शायद पुत्रों को, बहुओं को
शिकायत है आज भी
मुझसे — उनके लिये मैंने अधिक
नहीं किया.

ईमानदारी से स्वाभिमानपूर्वक
जीते हैं आज वे
क्या ये संस्कार पर्याप्त नहीं.



विद्याराम मिश्र
जो मुझे 'दादा' कहते हैं
मेरे पुत्रों द्वारा
'गुरु' रूप में आज भी पूजे जाते हैं.


मुझे अपनी ही दृष्टि में
महत्वपूर्ण बना दिया है
जिन अपनों ने
उनमें महेंद्र शर्मा और सतीश सागर
प्रमुख हैं.
मिला है मुझे वर्षों से
अपने बड़ों का निच्छल प्रेम.
शिवराज जी, लोकेन्द्र जी
ने कमी नहीं खलने दी
बड़े भाई की.

मित्रों में सबसे अधिक
निभायी मित्रता मित्तल जी ने
सहयोगी रूप में वे
सबसे पहले आगे आए रहे हैं.


पुत्रों में प्रिय हैं मुझे सभी
पर सबसे अधिक अपेक्षा
मुझे पाँचवे पुत्र से है
जो जुड़ा है लेखन से
शायद वही
मुझे शताब्दियों तक
जीवित रख सके.

किन्तु उनकी लापरवाही
या कहूँ कवि मष्तिष्क ने
उसको कदम-कदम पर दी है असफलता
मैं कहता हूँ "प्रतिभा अवरोध
बर्दाश्त नहीं करती"
कि उसकी हिम्मत बढे.
आत्म-विश्वास बढे.
पर वह व्यंजना कर
उसकी / मान बैठता है
अपने में अकूत प्रतिभा
करने लगता है मूल्यांकन
छिद्रान्वेषण
— अपनी ही कसौटी पर.
अतः भविष्य ही उसका निर्णायक है
कुछ कह पाना उसके विषय में
कठिन है. जटिल है.


समस्त जीवन के अनुभवों का
निचोड़ लेकर समाज के
बुद्धिजीवी वर्ग से
एक ही अपेक्षा पाले हूँ
कि
"समाज-हित के
कार्यों में सहयोगी बनें
........... प्रतिस्पर्धी नहीं.
धार्मिक कर्मों की व्याख्या करें
.......... अवहेलना नहीं.
नैतिकता का प्रसार करें
........... राजनीतिक छल नहीं.
साहित्य से समाज की सेवा करें
............ संस्कारित कर.
उसे दर्पण न दिखाएँ, बार-बार
कि वह नंगा है
सदियों से
जब से वह जन्मा है. "


भविष्य मुझे धुंधलके
में आ रहा नज़र
......... मित्रों से मिल पाना
......... निरंतर अब कम होगा.
.......... समाज के हित का चिंतन
........... अब हर दम होगा.
.......... आओगे जब भी मिलने मुझसे तुम.
........... मेरा प्रेम न कम होगा, न कम होगा.


[मेरे पिता की षष्ठिपूर्ति (७ अगस्त १९९८) पर के अवसर पर पढ़ी गयी आत्मकथात्मक कविता]
{उनकी जीवन-शैली से मुझे आज भी प्रेरणा मिलती है और मैं उनका पाँचवा पुत्र हूँ. }

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