सोमवार, 17 मई 2010

मेरा उत्तर [मेरे मित्र विनय कुमार की कविता]

अपेक्षाएँ हैं मुझसे कितनी,
पूरी कर न सकूँ जितनी.
लाभ इसका होगा क्या,
मेरी बस बात है इतनी.

लिखूँ गद्य लिखूँ पद्य,
न सेवन करूँ कभी मद्य.
विचारूँ छंद उतारूँ निबंध,
बुरी हर बात पे प्रतिबन्ध.

'उनका' विचार अब त्याग दूँ,
सीमाएँ अपनी बाँध लूँ.
दिखाया है आपने जो मार्ग,
अपना लक्ष्य उसपे साध लूँ.

था आवरण संकोच का जो,
अब मेरे किस काम का.
समय आ गया है कदाचित
लज्जा के प्रस्थान का..

[मेरे संकोची मित्र विनय कुमार जी द्वारा रचित एकमात्र कविता, मैंने ज्यूँ की त्यूँ उतार दी है.]
अगर इस कविता को पढ़कर उन्होंने मुझसे संपर्क नहीं किया तो मैं उनपर लिखी सभी कवितायें जग-जाहिर कर दूँगा.

4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रतुल जी, विनय जी की कविता तो बहुत अच्छी लगी... और आपका अंदाज़ तो निराला है ही।

    "अगर इस कविता को पढ़कर उन्होंने मुझसे संपर्क नहीं किया तो मैं उनपर लिखी सभी कवितायें जग-जाहिर कर दूँगा" भई वाह... अभी तो विनय जी को आना ही पडेगा... हा हा

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